एक महानगरी में एक बहुत
अदभुत नाटक चल रहा था।
शेक्सपियर का नाटक था।
उस नगरी में एक ही चर्चा थी
कि नाटक बहुत अदभुत है,
अभिनेता बहुत कुशल हैं।

उस नगर का जो
सबसे बड़ा धर्मगुरु था,
उसके भी मन में
हुआ कि मैं भी नाटक देखूं।
लेकिन धर्मगुरु
नाटक देखने कैसे जाए?
लोग क्या कहेंगे?

तो उसने नाटक के मैनेजर को एक
पत्र लिखा और कहा कि
मैं भी नाटक देखना चाहता हूं।
प्रशंसा सुन—सुन कर
पागल हुआ जा रहा हूं।
लेकिन मैं कैसे आऊं?

लोग क्या कहेंगे?
तो मेरी एक प्रार्थना है,
तुम्हारे नाटक—गृह में कोई ऐसा
दरवाजा नहीं है
पीछे से जहां से मैं आ सकूं,
कोई मुझे न देख सके?

उस मैनेजर ने उत्तर लिखा
कि आप खुशी से आएं,
हमारे नाटक— भवन
में पीछे दरवाजा है।
धर्मगुरुओं, सज्जनों,
साधुओं के लिए
पीछे का दरवाजा
बनाना पड़ा है,
क्योंकि

वे सामने के दरवाजे
से कभी नहीं आते।
दरवाजा है,
आप खुशी से आएं,
कोई आपको नहीं देख सकेगा।
लेकिन एक मेरी भी प्रार्थना है,
लोग तो नहीं देख
पाएंगे कि आप आए,
लेकिन इस बात
की गारंटी करना
मुश्किल है कि
परमात्मा नहीं देख सकेगा।

पीछे का दरवाजा है,
लोगों को धोखा
दिया जा सकता है।
लेकिन परमात्मा को
धोखा देना असंभव है।
और यह भी हो सकता है
कि कोई परमात्मा
को भी धोखा दे दे,

लेकिन अपने को धोखा
देना तो बिलकुल असंभव है।
लेकिन हम सब
अपने को धोखा दे रहे हैं।
तो हम जटिल हो जाएंगे,
सरल नहीं रह सकते।
खुद को जो धोखा देगा
वह कठिन हो जाएगा,
उलझ जाएगा,
उलझता चला जाएगा।
हर उलझाव पर नया धोखा,
नया असत्य खोजेगा,

और उलझ जाएगा।
ऐसे हम कठिन
और जटिल हो गए हैं।
हमने पीछे के
दरवाजे खोज लिए हैं,
ताकि कोई हमें देख न सके।
हमने झूठे चेहरे बना रखे हैं,
ताकि कोई हमें पहचान न सके।
हमारी नमस्कार झूठी है,
हमारा प्रेम झूठा है,
हमारी प्रार्थना झूठी है।

परमात्मा कठिन नहीं है,
लेकिन आदमी कठिन है।
कठिन आदमी को परमात्मा भी
कठिन दिखाई पड़ता
हो तो कोई आश्चर्य नहीं।

मैंने सुबह कहा
कि परमात्मा सरल है।
दूसरी बात आपसे कहनी है,
यह सरलता तभी प्रकट होगी
जब आप भी सरल हों।

यह सरल हृदय के सामने ही
यह सरलता प्रकट हो सकती है।
लेकिन हम सरल नहीं हैं।

                ओशो : जीवन रहस्‍य--(प्रवचन--12)

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