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स्वीकार का अर्थ ही है कि 'मैं धन्यभागी हूं कि प्रभु बुढ़ापा भी दिया! सौंदर्य की आधी भी दी जवानी में, यह बुढ़ापे का शांत प्रसादपूर्ण सौंदर्य भी दिया, यह गरिमा भी दी!

जो है, है, स्वीकारें या न स्वीकारें। जो है, है। उसमें कुछ फर्क नहीं पड़ता। अस्वीकार से भी फर्क नहीं पड़ता। अगर बुढ़ापा आ गया, आ गया। अस्वीकार से क्या फर्क पड़ता है? इतना ही फर्क पड़ेगा कि बुढ़ापे का जो मजा ले सकते थे वह न ले पाएंगे। बुढ़ापे में जो एक शालीनता हो सकती थी, वह न हो पायेगी। बुढ़ापे में जो एक प्रसाद हो सकता था, वह खंडित हो जायेगा। बुढ़ापा तो नहीं हट जायेगा। जो है, है।अस्वीकार करने से मिटता कहां है? बदलता कहां है? अस्वीकार करने से कुछ भी तो नहीं होता! खुद ही कुछ और गंवा देते हैं अस्वीकार में, पाते क्या हैं?
जिस व्यक्ति ने अपने वार्धक्य को, अपने बुढ़ापे को परिपूर्ण भाव से स्वीकार कर लिया है, उसके चेहरे पर एक सौंदर्य देखेंगे जो कि जवान के चेहरे पर भी नहीं होता। जवानी के सौंदर्य में एक तरह का बुखार है, उत्ताप है। बुढ़ापे के सौंदर्य में एक शीतलता है। जवानी के सौंदर्य में वासना की तरंगें हैं,उद्वेलित चित्त है, चंचलता है। जवानी के सौंदर्य में एक तरह की विक्षिप्तता है, ज्वर है। होगा ही। एक तरह का तूफान है, आधी है।
बुढ़ापे का सौंदर्य ऐसा है जैसे तूफान आया और चला गया, और तूफान के बाद जो शांति हो जाती है, जो गहन शांति छा जाती है। कभी देखा, बादल घुमड़े,आंधी आयी, बिजली चमकी, फिर सब चला गया। उसके बाद जो विराम होता है! सब चुप! सारी प्रकृति मौन! वैसी ही शांति बुढ़ापे की है।
अगर स्वीकार कर लें तो बुढ़ापे में प्रसाद है। वह जो मनुष्य के सिर के सफेद हो गये बाल हैं,अगर उनको परिपूर्ण भाव से अंगीकार किया गया है तो जैसे हिमालय के शिखरों पर जमी हुई सफेद बर्फ होती है, ऐसा ही उनका सौंदर्य है।
तो बुढ़ापा तो रहेगा, चाहे इनकार करें चाहे स्वीकार करें। इनकार करने से इतना ही हो जायेगा— तनाव फैल जायेगा बुढ़ापे पर, एक विकृति आ जायेगी, दरारें पड़ जायेंगी बुढ़ापे में। बुढ़ापा और भी कुरूप हो जायेगा, बदतर हो जायेगा। जब ये कहा जाता है कि जो है उसे स्वीकार करो, तो यह नहीं कहा जा रहा है अगर स्वीकार करेंगे तो उसे बदल पाएंगे। बदल तो कोई कभी नहीं पाया। बदलाहट तो होती ही नहीं। और अगर कोई बदलाहट होती है तो स्वीकार से होती है। क्योंकि दंश चला जाता है, विष चला जाता है और अमृत हो जाता है।
फिर स्वीकार में एक बात और खयाल रहे। स्वीकार का यह अर्थ नहीं होता कि अब और कोई चारा ही नहीं है। तो फिर स्वीकार नहीं है। फिर तो मजबूरी है। फिर धन्यभाव से स्वीकार न किया। जिस स्वीकार में स्वागत नहीं है, उसे स्वीकार न समझ लें। स्वीकार का प्राण है स्वागत। स्वीकार का अर्थ ही है कि 'मैं धन्यभागी हूं कि प्रभु बुढ़ापा भी दिया! सौंदर्य की आधी भी दी जवानी में, यह बुढ़ापे का शांत प्रसादपूर्ण सौंदर्य भी दिया, यह गरिमा भी दी! बचपन की अबोध दशा दी, जवानी की बोध और अबोध की मिश्रित दशा दी; यह बुढ़ापे का शुद्ध बोध भी दिया।♣️ Osho

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