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आप कहते हैं कि कामवासना और क्रोध के प्रति होशपूर्ण रहो, या विमर्श करो, लेकिन जब मैं ऐसा करता हूँ तो बैचेनी होती है?

                            विज्ञान भैरव तंत्र
"कामवासना क्या है और इसे कैसे जानें। यह प्रश्न अपने बाप से पूछो और वह बेचैन हो जाएगा, वह कहेगा कि यह प्रश्न मत पूछो। वह तुम्हें नहीं बताएगा कि कामवासना क्या है, वह तुम्हें नहीं बताएगा कि तुम संसार में कैसे आए। वह खुद कामवासना से गुजरा है, अन्यथा तुम पैदा ही नहीं होते।"

दूसरा प्रश्न :
पिछली रात जिस विधि की चर्चा हुई उसके अनुसार जब क्रोध, हिंसा या कामवासना का उदय हो तो उस पर विमर्श करना चाहिए और तब अचानक उसे छोडेदेना चलिए।

लेकिन जब कोई यह प्रयोग करता है तो कभी— कभी उलझन और बेचैनी सी अनुभव होती है। इन नकारात्‍मक भावों के कारण क्या हैं?


 एक ही कारण है, वह है विमर्श का समग्र न होना। हरेक व्यक्ति क्रोध को समझे बिना क्रोध छोड़ना चाहता है। हरेक व्यक्ति कामवासना को समझे बिना कामवासना से मुक्त होना चाहता है। लेकिन समझ के बिना क्रांति संभव नहीं है। समझ के बिना तुम अपनी समस्याएं बढ़ा लोगे, तुम अपने दुख बढ़ा लोगे।

छोड़ने की बात मत सोचो, सोचो कि कैसे समझें। छोड़ना नहीं, समझना है। त्याग नहीं, बोध। किसी चीज को छोड़ने के लिए उस पर सोच—विचार करने की जरूरत नहीं है, जरूरत है उस चीज की उसकी समग्रता समझने की। अगर तुमने समग्रता से समझ लिया तो रूपांतरण उसका परिणाम है। यदि यह चीज तुम्हारे लिए, तुम्हारे होने के लिए शुभ है तो वह बढ़ेगी, और यदि अशुभ है तो वह विसर्जित हो जाएगी। तो असल बात छोड़ना नहीं है, असली बात है समझना।

तुम क्रोध को क्यों छोड़ना चाहते हो? क्यों? क्योंकि तुम्हें सिखाया गया है कि क्रोध बुरा है। लेकिन क्या तुमने भी समझा है कि क्रोध बुरा है? क्या तुम अपनी गहन अंतर्दृष्टि के जरिए इस वैयक्तिक निष्पत्ति पर पहुंचे हो कि क्रोध बुरा है?अगर तुम अपनी ही आंतरिक खोज के द्वारा इस निष्पत्ति पर पहुंचे हो तो छोड़ने की जरूरत नहीं रहेगी; वह चीज अपने आप ही विदा हो जाएगी। यह जानना पर्याप्त है कि यह जहर है। तब तुम दूसरे ही आदमी हो।

लेकिन तुम सोचे चले जाते हो कि छोडना है, त्याग करना है। यह इसलिए कि दूसरे लोग कहते हैं कि क्रोध बुरा है,और तुम उनसे महज प्रभावित हो गए हो। नतीजा यह है कि तुम सोचते हो कि क्रोध बुरा है, लेकिन जब मौका आता है तो क्रोध करने से चूकते नहीं हो। ऐसे ही एक दोहरा चित्त निर्मित होता है; तुम क्रोध में भी होते हो और सोचते हो कि वह बुरा है। यही अप्रामाणिकता है। अगर तुम सोचते हो कि क्रोध बुरा है और अगर तुम कहते हो कि क्रोध बुरा है, तो समझने की कोशिश करो कि यह तुम्हारा निजी बोध है या किसी दूसरे व्यक्ति ने ऐसा कहा है।

दूसरों के कारण प्रत्येक आदमी अपने इर्द—गिर्द संताप इकट्ठा कर रहा है। कोई कहता

है कि यह बुरा है, और कोई कहता है कि नहीं, यह अच्छा है। और ऐसे सब लोग अपने—अपने विचार तुम पर लाद रहे है। मां—बाप यहीं कर रहे है; समाज यहीं कर रहा। और तब एक दिन तुम दूसरों के विचारों के गुलाम भर हो जाते हो। और तुम्हारा स्वभाव और दूसरों के विचार तुम्हारे भीतर विभाजन पैदा कर देते हैं, तुम स्कीजोफ्रेनिया के, खंडित—चित्तता के शिकार हो जाते हो। तब तुम करोगे कुछ, और मानोगे कुछ और ही।

कृत्य और मान्यता के इस विभाजन से अपराध— भाव पैदा होता है। प्रत्येक व्यक्ति अपराधी अनुभव करता है। ऐसा नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति अपराधी है, लेकिन इस दोहरे चित्त के कारण हर आदमी अपराधी अनुभव करता है।

सब कहते हैं कि क्रोध बुरा है। सबने तुमसे भी यही कहा है। लेकिन किसी ने तुमको यह नहीं बताया कि क्रोध क्या है और इसे कैसे जानें। हर कोई कहता है कि कामवासना बुरी है। लोग सिखाए चले जा रहे हैं कि कामवासना बुरी है। लेकिन कोई यह नहीं बताता कि कामवासना क्या है और इसे कैसे जानें।

यह प्रश्न अपने बाप से पूछो और वह बेचैन हो जाएगा, वह कहेगा कि यह प्रश्न मत पूछो। वह तुम्हें नहीं बताएगा कि कामवासना क्या है, वह तुम्हें नहीं बताएगा कि तुम संसार में कैसे आए। वह खुद कामवासना से गुजरा है, अन्यथा तुम पैदा ही नहीं होते। लेकिन अगर तुम पूछोगे तो वह बेचैन होगा, क्योंकि उसे भी किसी ने नहीं बताया है कि कामवासना क्या है। उसके मां—बाप ने भी उसे नहीं बताया कि कामवासना बुरी क्यों है।

तुम्हें कोई नहीं बताएगा कि कामवासना क्या है, उसे कैसे जाना जाए, उसमें कैसे गहरे उतरा जाए। लोग इतना ही कहते रहते हैं कि फलां चीज अच्छी है और फलां चीज बुरी है। और इसी लेबलिंग से दुख पैदा होता है, नरक पैदा होता है।

तो किसी भी साधक के लिए, सच्चे साधक के लिए एक बात याद रखने योग्य है, एक बुनियादी बात समझने योग्य है कि मुझे सदा अपने तथ्यों के साथ जीना चाहिए। उन्हें जानने की चेष्टा करो। समाज को अपना आदर्श अपने ऊपर मत लादने दो। दूसरों की आंखों से अपने को मत देखो। तुम्हें आंखें हैं, तुम अंधे नहीं हो। और तुम्हारे आंतरिक जीवन के तथ्य तुम्हारे पास हैं। आंखों को काम में लाओ। विमर्श का यही अर्थ है। और अगर विमर्श हो तो यह समस्या नहीं रह जाती।

लेकिन विमर्श करते हुए कोई कभी—कभी उलझन और बेचैनी महसूस कर सकता है। अगर तुमने तथ्यों को नहीं समझा है तो तुम्हें बेचैनी मालूम होगी। क्योंकि यह सूक्ष्म दमन है। तुम पहले से जानते हो कि क्रोध बुरा है। और मैं तुमसे कहता हूं कि इस पर विमर्श करो तो तुम विमर्श भी इसलिए करते हो कि उससे छुटकारा मिले। छुटकारे की बात सदा तुम्हारे मन में बनी रहती है।

एक व्यक्ति, उनकी उम्र साठ के करीब होगी, मेरे पास आए थे। वे बहुत धार्मिक किस्म के व्यक्ति हैं; धार्मिक ही नहीं, किसी किस्म के नेता भी हैं। वे बहुत लोगों के गुरु हैं, और उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखी हैं। वे सदा नीति की शिक्षा देते रहते हैं। और अब साठ साल की उम्र में मेरे पास आकर कहते हैं, आप ही वह आदमी हैं जिनसे मैं अपनी असली समस्या कह सकता हूं कामवासना से मुक्ति कैसे हो?'

और मैंने उन्हें कामवासना से उत्पन्न होने वाले दुखों पर भाषण करते सुना है। उन्होंने इस पर किताबें लिखी हैं; और अपने बेटे—बेटियों को बहुत सताया है।

यदि तुम किसी को सताना चाहते हो तो नैतिकता सबसे अच्छा और सरल उपाय है। उसके जरिए तुम दूसरे व्यक्ति में अपराध— भाव पैदा कर देते हो। यह सबसे सूक्ष्म यातना है; ब्रह्मचर्य की चर्चा करो और तुरंत अपराध— भाव पैदा हो जाता। कारण यह कि ब्रह्मचारी रहना बहुत कठिन है; इसलिए जब तुम ब्रह्मचर्य की चर्चा करते हो तो दूसरा जानता है कि यह नहीं हो सकता, और वह अपराधी अनुभव करता है।

इस तरह अपराध— भाव पैदा करके तुम उसे सता सकते हो। तुमने दूसरे आदमी को ओछा, पतित बना दिया। अब वह कभी चैन से नहीं रहेगा। वह कामवासना में जाएगा और अपने को पापी समझता रहेगा। वह सदा ब्रह्मचर्य की सोचेगा, उसका मन ब्रह्मचर्य का चिंतन करेगा, और उसका शरीर कामवासना में जीएगा। और तब वह अपने शरीर का विरोधी हो जाएगा। तब वह सोचेगा कि मैं यह नहीं हूं यह शरीर बहुत बुरी चीज है। और एक बार तुम ने किसी के भीतर अपराध— भाव पैदा कर दिया कि उसका मन विषाक्त हो जाता है, कि वह बुझ जाता है।

तो वे वृद्ध सज्जन आए और उन्होंने पूछा कि कामवासना से कैसे मुक्त हुआ जाए? मैंने उनसे कहा कि पहले तथ्य के प्रति होशपूर्ण बनें। और वे काफी अवसर खो चुके थे। उनकी कामवासना अब कमजोर पड़ चुकी है; इसलिए होश साधना कठिन होगा। जब कामवासना बलवती होती है, उद्दाम होती है, युवा होती है, तो तुम उसके प्रति आसानी से होशपूर्ण हो सकते हो। तब वह इतनी शक्तिशाली होती है कि उसे देखना, जानना और महसूस करना कठिन नहीं होता है।

इस साठ वर्षीय आदमी को, जब वह दुर्बल और रुग्ण हो चला है, अपनी कामवासना के प्रति सजग होने में बहुत कठिनाई होगी। जब वे युवक थे तब वे ब्रह्मचर्य की सोचते रहे। उन्होंने ब्रह्मचर्य साधा नहीं होगा; क्योंकि उनके पांच बच्चे हैं। लेकिन वे ब्रह्मचर्य का चिंतन करते रहे और अवसर उनके हाथ से चला गया।

मैंने उनसे कहा कि अपने उपदेशों को भूल जाओ, अपनी किताबें जला दो। बिना स्वयं जाने किसी को कामवासना के संबंध में उपदेश मत दो; स्वयं अपनी कामवासना के प्रति जागरूक बनो। मैंने उन्हें जागरूक रहने को कहा।

उन्होंने कहा कि यदि मैं जागरूक रहूं तो कितने दिनों में कामवासना से मुक्त हो जाऊंगा? मन का यही ढंग है। वे जानना भी चाहते हैं तो इसलिए कि काम से छुटकारा हो। मैंने उनसे कहा कि जब आप इसे नहीं जानते हैं तो आप कौन होते हैं निर्णय लेने वाले कि कामवासना से छुटकारा हो? आप इस निष्पत्ति पर कैसे पहुंचे कि कामवासना बुरी चीज है? कैसे तय हुआ? क्या इसे अपने भीतर खोजने की जरूरत नहीं है?

किसी चीज को छोड़ने की बात मत सोचो। त्याग का मतलब है कि दूसरे तुम्हें मजबूर कर रहे हैं। व्यक्ति बनो। समाज को अपने पर आधिपत्य मत करने दो। गुलाम मत बनो। तुम्हें आंखें हैं। तुम्हें चेतना है। फिर तुम्हारी कामवासना है, तुम्हारा क्रोध है, तुम्हारे दूसरे तथ्य है। अपनी आंख का उपयोग करो। अपनी चेतना का उपयोग करो। ऐसा समझो कि तुम अकेले हो, कोई तुम्हें सिखाने वाला नहीं है। तब तुम क्या करोगे?

आरंभ से आरंभ करो; अ ब स से शुरू करो। तब भीतर जाओ। न जल्दी निर्णय लो और न निष्पत्ति निकालो। अगर तुम अपने ही बोध से किसी निष्पत्ति पर पहुंचे तो वह निष्पत्ति रूपांतरण बनेगी। तब तुम्हें कोई असुविधा या बेचैनी नहीं होगी, तब दमन नहीं होगा। और तभी तुम किसी चीज को छोड़ सकते हो।

मैं यह नहीं कहता हूं कि छोड़ने के लिए सजग बनो। स्मरण रहे, मैं कहता हूं कि अगर तुम होशपूर्ण रहे तो छुटकारा हो जाएगा। होश को कामवासना छोड़ने के लिए विधि की तरह उपयोग न करो। छूटना परिणाम है। अगर तुम होशपूर्ण हो तो कोई भी चीज छूट सकती है। लेकिन छोड़ने के लिए निर्णय लेना जरूरी नहीं है। हो सकता है तुम्हें छोड़ने का खयाल भी न आए।

कामवासना है। अगर तुम उसके प्रति पूरे होशपूर्ण हो जाओ तो उसे छोड़ने का निर्णय नहीं लेना पड़ेगा। तब अगर पूरे बोध से तुम कामवासना में रहने का निर्णय लो तो कामवासना का अपना अलग सौंदर्य होगा। और अगर पूरे बोध से तुम उसे त्यागने का निर्णय लो तो तुम्हारे त्याग का भी सौंदर्य अलग होगा।

मुझे ठीक से समझने की कोशिश करो। बोध के साथ जो भी घटित होता है वह सुंदर है, और बोध के बिना जो भी घटित होता है वह कुरूप है। यही कारण है कि तुम्हारे तथाकथित ब्रह्मचारी बुनियादी रूप से कुरूप होते हैं। उनके जीवन का पूरा ढंग ही कुरूप होता है। उनका ब्रह्मचर्य परिणाम के रूप में नहीं आया है; यह उनकी अपनी खोज नहीं है।

अब डी एच. लारेंस जैसे व्यक्ति को देखो, उसका कामवासना का स्वीकार सुंदर है। तुम्हारे ब्रह्मचारियों के त्याग से उसका स्वीकार सुंदर है, क्योंकि उसने कामवासना को पूरे होश से स्वीकारा है। भीतरी खोज के जरिए वह इस निष्पत्ति पर पहुंचा है कि मैं कामवासना के साथ जीऊंगा। उसने तथ्य को स्वीकारा है। इसमें कोई अड़चन नहीं है, कोई अपराध— भाव नहीं है, बल्कि कामवासना गरिमापूर्ण हो गई है। अपनी कामवासना को पूरी तरह जानने वाले, स्वीकार करने वाले, उसे जीने वाले डी .एच. लारेंस का अपना ही सौंदर्य है।

वैसे ही तथ्य को पूरी तरह जानकर उसे छोड़ने वाले महावीर का भी अपना सौंदर्य है। लारेंस और महावीर दोनों सुंदर हैं, दोनों सुंदर हैं। लेकिन यह सौंदर्य कामवासना का सौंदर्य नहीं है, न कामवासना के त्याग का है; यह सौंदर्य बोध का सौंदर्य है।

यह बात भी सदा याद रखने की है कि तुम उसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते जिस पर बुद्ध पहुंचे। उसकी जरूरत भी नहीं है। तुम उस निष्पत्ति पर भी नहीं पहुंच सकते जिस पर महावीर पहुंचे। वह अनिवार्य नहीं है। यदि कोई अनिवार्यता है तो वह एक ही है, वह बोध की — अनिवार्यता है। जब तुम पूरी तरह बोधपूर्ण हो तो जो कुछ होता है वह सुंदर है, दिव्य है।

अतीत के सिद्धों को देखो। शिव पार्वती के साथ बैठे हैं; पार्वती गहन प्रेम—मुद्रा में शिव की गोद में बैठी हैं। तुम इस मुद्रा में महावीर की कल्पना भी नहीं कर सकते—असंभव है। इस मुद्रा में बुद्ध की कभी कल्पना भी नहीं हो सकती है। क्योंकि राम सीता के साथ खड़े हैं, इसलिए जैन उन्हें अवतार मानने के लिए राजी नहीं हैं। वे कहते हैं कि वे अब भी स्त्री के साथ हैं!

जैन राम को अवतार की तरह सोच ही नहीं सकते, इसलिए वे उन्हें महामानव कहते हैं, अवतार नहीं। वे महामानव हैं; लेकिन मानव ही। क्योंकि स्त्री है! स्त्री के रहते हुए तुम मनुष्य के पार नहीं जा सकते, अर्धांगिनी जब तक है तब तक तुम मनुष्य ही हो। जैन कहते है कि राम महापुरुष थे, उससे अधिक नहीं।

अगर तुम हिंदुओं से पूछो तो उन्होंने महावीर की चर्चा तक नहीं की है, उन्होंने अपने शास्त्रों में महावीर के नाम का भी उल्लेख नहीं किया है। हिंदू—चित्त कहता है कि स्त्री के बिना पुरुष अधूरा है, अखंड नहीं। राम अकेले संपूर्ण नहीं हैं; इसलिए हिंदू सीताराम कहते हैं। और वे स्त्री को पहले रखते हैं; वे कभी रामसीता नहीं कहते। वे सीताराम कहते हैं, वे राधाकृष्ण कहते हैं। और एक बुनियादी कारण से वे स्त्री को पहले रखते हैं। कारण है कि पुरुष भी स्त्री से जन्म लेता है,और वह आधा है; स्त्री के साथ वह पूर्ण हो जाता है।

इसलिए कोई हिंदू देवता अकेला नहीं है; उसकी अर्धांगिनी उसके साथ है। सीताराम पूर्ण हैं, वैसे ही राधाकृष्ण पूर्ण हैं। कृष्ण अकेले आधे हैं। राम के लिए सीता को छोड़ना जरूरी नहीं है। कृष्ण के लिए राधा को छोड़ना जरूरी नहीं है। क्यों? वे पूरे बोध को उपलब्ध लोग हैं। शिव से अधिक बोधपूर्ण, शिव से अधिक होशपूर्ण व्यक्ति और कहा मिलेगा? लेकिन वे पार्वती को गोद में लेकर बैठे हैं। इससे समस्या खड़ी होती है। कौन सही है? बुद्ध सही हैं या शिव सही हैं?

समस्या इसलिए पैदा होती है क्योंकि हम नहीं जानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपने निजी ढंग से खिलता है। बुद्ध और शिव दोनों पूर्ण रूप से जाग्रत पुरुष हैं। लेकिन ऐसा होता है कि बुद्ध इस पूर्ण बोध में कुछ छोड़ देते हैं। यह उनका चुनाव है। शिव अपने पूर्ण बोध में सब कुछ स्वीकार कर लेते हैं। जहां तक ज्ञान का, बुद्धत्व का सवाल है, दोनों एक ही शिखर पर हैं। लेकिन उनकी अभिव्यक्ति भिन्न—भिन्न होगी।

तो किसी ढांचे में मत पड़ो। कोई नहीं जानता है कि तुम जब बोध को उपलब्ध होगे तो क्या होगा। बुद्धत्व के पहले मत निर्णय लो कि यह छोड़ना है कि वह छोड़ना है। निर्णय ही मत लो। कोई नहीं जानता है। प्रतीक्षा करो। बोधपूर्ण होओ और अपने फूल को खिलने दो। कोई नहीं जानता है कि क्या होगा। प्रत्येक के फूल खिलने की संभावना अलग और अज्ञात है। और तुम्हें किसी का अनुगमन नहीं करना है, क्योंकि अनुगमन खतरनाक है, विध्वंसक है। सब अनुकरण आत्मघात है। प्रतीक्षा करो!

ये सारी विधियां तुम्हारे बोध को जगाने के लिए हैं। और जब तुम बोधपूर्ण हो जाओ तो तुम छोड़ सकते हो या जारी रख सकते हो। जब तक जागे नहीं हो तब तक जो हो रहा है उसे स्मरण रखो, उसे देखो। तुम उसे न सहज स्वीकार कर सकते हो और न छोड़ सकते हो।

तुम्हें कामवासना है। तुम न इसे पूरी तरह स्वीकार करके भूल सकते हो और न उसे छोड़ सकते हो। मैं कहता हूं कि या तो इसे स्वीकार कर लो और भूल जाओ, या फिर छोड़ ही दो और भूल जाओ। लेकिन तुम इन दोनों में से एक नहीं करोगे, तुम सदा दोनों करोगे। तुम स्वीकार करोगे और फिर छोड़ने की सोचोगे। यह दुश्चक्र है। जब भी तुम कामवासना में उतरते हो तो फिर कुछ घंटों के लिए या कुछ दिनों के लिए उसे त्यागने की सोचते हो। लेकिन सच में तुम क्या कर रहे हो? तुम सिर्फ फिर से शक्ति इकट्ठी कर रहे हो। और जब शक्ति इकट्ठी कर लोगे तो तुम फिर कामवासना में उतरने की सोचोगे।

और यह सिलसिला जीवन भर चलेगा। यही सिलसिला अनेक जन्मों से चलता रहा है। लेकिन जब तुम पूरे बोध को उपलब्ध होकर स्वीकार करोगे तो उस स्वीकार में सौंदर्य होगा। और तब अगर त्याग करोगे तो उस त्याग में भी सौंदर्य होगा।

एक बात निश्चित है कि जब तुम जागरूक होते हो तो भूल सकते हो, दोनों ढंग से भूल सकते हो। तब यह समस्या नहीं रहेगी। तब तुम्हारा निर्णय समग्र है, और समस्या गिर जाती है। लेकिन अगर तुम्हें बेचैनी महसूस होती है तो उसका अर्थ है कि तुमने विमर्श नहीं किया है, कि तुम जागरूक नहीं हो। इसलिए अधिकाधिक जागरूक होओ। किसी भी तथ्य पर ज्यादा गहराई से, ज्यादा वैयक्तिक ढंग से, दूसरों की निष्पत्ति को बीच में लाए बिना विमर्श करो।
ओशो
तंत्र - सूत्र, भाग 2, प्रवचन - 18
(ओशो गंगा)

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