भीड़ उन्हीं बातों के लिए मुझे गालियां दे रही है, जिन बातों के लिए उसे मुझे धन्यवाद देना चाहिए।
मगर, उनकी तकलीफ भी मेरी समझ में आती है।
उनकी मान्यताओं के विपरीत हैं वे बातें।
और उनकी मान्यताएं टूटें, तो ही उनके जीवन में थोड़ा प्रकाश आए।
मैं भी मजबूर हूं। मैं उनकी मान्यता तोड़ने में लगा ही रहूंगा।
वे गालियां देते रहें, मैं उनकी जंजीरें काटता रहूंगा।
और निश्चित ही, जिसके पैरों में जंजीरें बहुत दिन तक रही हों, तुम उसकी अचानक जंजीर काटने लगो, वह नाराज होगा!
मैंने सुना है, एक पहाड़ी सराय में एक कवि मेहमान हुआ। उस सराय में द्वार पर ही लटका एक तोता था।
उस तोते की एक ही रटंत थी: स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!
उस सराय का मालिक स्वतंत्रता के आंदोलन में सिपाही रह चुका था और उसने अपने तोते को भी स्वतंत्रता का पाठ सिखा दिया था।
उस सराय का मालिक स्वतंत्रता के आंदोलन में जेलघरों में रहा था, कारागृहों में रहा था। कारागृह में उसके भीतर एक ही आवाज उठती थी प्राणों में: स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!
उसने अपने तोते को भी यह सिखा दिया था। यह बड़े मजे की बात है।
हालांकि तोते को बंद किया था पिंजड़े में, मगर यह सिखा दिया था।
तो जैसे कोई तोता राम-राम, राम-राम जपता, वह तोता स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता जपता था।
न तो मालिक को खयाल था कि मैं यह क्या कर रहा हूं? कि अगर स्वतंत्रता से ही मुझे प्रेम है, तो खोलो द्वार, तोते को उड़ जाने दो!
पहाड़ उसके हैं, वन-प्रांतर उसके हैं, झीलें उसकी हैं, वृक्ष उसके हैं, चांद-तारे उसके हैं, आकाश उसका है--
छोड़ो, मुक्त करो!
मगर नहीं, सिर्फ स्वतंत्रता का पाठ!
ऐसे ही लोग मोक्ष का पाठ पढ़ रहे हैं।
मरना कोई नहीं चाहता,
मुक्त कोई नहीं होना चाहता।
अगर किसी से कहो कि सच में जाना है मोक्ष? भेज दूं? तो एकदम नाराज हो जाएगा--
कि आप समझे क्या हैं? आप मोक्ष भेजना चाहते हैं मुझे? अभी नहीं। जाऊंगा कभी।
यह तो अंत की तैयारी कर रहा हूं।
लोग राम-राम, राम-राम जप रहे हैं, लेकिन राम से किसी को कुछ लेना-देना नहीं है।
ऐसा ही तोता था।
लेकिन कवि तो कवि। कवि ने कहा कि बेचारा तोता, स्वतंत्रता के लिए कितना आग्रह कर रहा है, कोई सुन नहीं रहा!
दिन में तो उसने कहा कि ठीक नहीं है, क्योंकि सराय का मालिक शायद नाराज हो, उसका तोता छोड़ दो तो। रात!
तोता फिर भी बोले जा रहा था। चांद निकला था पूरा और तोता बार-बार रात के सन्नाटे में,
उस पहाड़ के सन्नाटे में उसकी गूंज उठती थी: स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!
कवि तो कवि।
वह उठा और उसने जाकर तोते का दरवाजा खोला और कहा, प्यारे, उड़ जाओ! मगर तोता नहीं उड़ा।
बल्कि तोते ने क्रोध से उस कवि को देखा: यह कौन है जो उसका दरवाजा खोल रहा है?
कवि तो कवि,
तोते को उड़ते नहीं देखा तो हाथ डाल कर तोते को बाहर निकालना चाहा।
तोते ने चोंचें मारीं!
मगर कवि तो कवि,
तोता चोंचें मारता रहा, पैरों से जोर से उसने सींकचे पकड़ लिए,
मगर कवि तो कवि,
उसने खींच कर तोते को उड़ा ही दिया।
उसके हाथ लहूलुहान हो गए, लेकिन फिर भी वह प्रसन्न था कि एक आत्मा मुक्त तो हुई!
बड़ी निश्चिंतता से सोया।
सुबह जब आंख खुली तो हैरान हुआ।
तोता पिंजड़े में बैठा था--
दरवाजा अभी भी पिंजड़े का खुला था--और चिल्ला रहा था: स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!
जो कारागृहों में रहने के आदी हो गए हैं, उन्हें मुक्त करना आसान नहीं।
जो अंधविश्वासों में जीने के आदी हो गए हैं, उनको उनके बाहर लाना आसान नहीं।
जिन्होंने कुछ पक्षपात निर्मित कर लिए हैं, पक्षपात ही जिनके प्राण बन गए हैं, उनसे उनके पक्षपात छीनना आसान नहीं।
मेरे हाथ लहूलुहान होंगे।
मगर कवि तो कवि!
गालियां दो,
पत्थर मारो,
मुकदमे चलाओ,
सारा सरकारी यंत्र पीछे लगाओ--
मगर कवि तो कवि!
ओशो
मगर, उनकी तकलीफ भी मेरी समझ में आती है।
उनकी मान्यताओं के विपरीत हैं वे बातें।
और उनकी मान्यताएं टूटें, तो ही उनके जीवन में थोड़ा प्रकाश आए।
मैं भी मजबूर हूं। मैं उनकी मान्यता तोड़ने में लगा ही रहूंगा।
वे गालियां देते रहें, मैं उनकी जंजीरें काटता रहूंगा।
और निश्चित ही, जिसके पैरों में जंजीरें बहुत दिन तक रही हों, तुम उसकी अचानक जंजीर काटने लगो, वह नाराज होगा!
मैंने सुना है, एक पहाड़ी सराय में एक कवि मेहमान हुआ। उस सराय में द्वार पर ही लटका एक तोता था।
उस तोते की एक ही रटंत थी: स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!
उस सराय का मालिक स्वतंत्रता के आंदोलन में सिपाही रह चुका था और उसने अपने तोते को भी स्वतंत्रता का पाठ सिखा दिया था।
उस सराय का मालिक स्वतंत्रता के आंदोलन में जेलघरों में रहा था, कारागृहों में रहा था। कारागृह में उसके भीतर एक ही आवाज उठती थी प्राणों में: स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!
उसने अपने तोते को भी यह सिखा दिया था। यह बड़े मजे की बात है।
हालांकि तोते को बंद किया था पिंजड़े में, मगर यह सिखा दिया था।
तो जैसे कोई तोता राम-राम, राम-राम जपता, वह तोता स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता जपता था।
न तो मालिक को खयाल था कि मैं यह क्या कर रहा हूं? कि अगर स्वतंत्रता से ही मुझे प्रेम है, तो खोलो द्वार, तोते को उड़ जाने दो!
पहाड़ उसके हैं, वन-प्रांतर उसके हैं, झीलें उसकी हैं, वृक्ष उसके हैं, चांद-तारे उसके हैं, आकाश उसका है--
छोड़ो, मुक्त करो!
मगर नहीं, सिर्फ स्वतंत्रता का पाठ!
ऐसे ही लोग मोक्ष का पाठ पढ़ रहे हैं।
मरना कोई नहीं चाहता,
मुक्त कोई नहीं होना चाहता।
अगर किसी से कहो कि सच में जाना है मोक्ष? भेज दूं? तो एकदम नाराज हो जाएगा--
कि आप समझे क्या हैं? आप मोक्ष भेजना चाहते हैं मुझे? अभी नहीं। जाऊंगा कभी।
यह तो अंत की तैयारी कर रहा हूं।
लोग राम-राम, राम-राम जप रहे हैं, लेकिन राम से किसी को कुछ लेना-देना नहीं है।
ऐसा ही तोता था।
लेकिन कवि तो कवि। कवि ने कहा कि बेचारा तोता, स्वतंत्रता के लिए कितना आग्रह कर रहा है, कोई सुन नहीं रहा!
दिन में तो उसने कहा कि ठीक नहीं है, क्योंकि सराय का मालिक शायद नाराज हो, उसका तोता छोड़ दो तो। रात!
तोता फिर भी बोले जा रहा था। चांद निकला था पूरा और तोता बार-बार रात के सन्नाटे में,
उस पहाड़ के सन्नाटे में उसकी गूंज उठती थी: स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!
कवि तो कवि।
वह उठा और उसने जाकर तोते का दरवाजा खोला और कहा, प्यारे, उड़ जाओ! मगर तोता नहीं उड़ा।
बल्कि तोते ने क्रोध से उस कवि को देखा: यह कौन है जो उसका दरवाजा खोल रहा है?
कवि तो कवि,
तोते को उड़ते नहीं देखा तो हाथ डाल कर तोते को बाहर निकालना चाहा।
तोते ने चोंचें मारीं!
मगर कवि तो कवि,
तोता चोंचें मारता रहा, पैरों से जोर से उसने सींकचे पकड़ लिए,
मगर कवि तो कवि,
उसने खींच कर तोते को उड़ा ही दिया।
उसके हाथ लहूलुहान हो गए, लेकिन फिर भी वह प्रसन्न था कि एक आत्मा मुक्त तो हुई!
बड़ी निश्चिंतता से सोया।
सुबह जब आंख खुली तो हैरान हुआ।
तोता पिंजड़े में बैठा था--
दरवाजा अभी भी पिंजड़े का खुला था--और चिल्ला रहा था: स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!
जो कारागृहों में रहने के आदी हो गए हैं, उन्हें मुक्त करना आसान नहीं।
जो अंधविश्वासों में जीने के आदी हो गए हैं, उनको उनके बाहर लाना आसान नहीं।
जिन्होंने कुछ पक्षपात निर्मित कर लिए हैं, पक्षपात ही जिनके प्राण बन गए हैं, उनसे उनके पक्षपात छीनना आसान नहीं।
मेरे हाथ लहूलुहान होंगे।
मगर कवि तो कवि!
गालियां दो,
पत्थर मारो,
मुकदमे चलाओ,
सारा सरकारी यंत्र पीछे लगाओ--
मगर कवि तो कवि!
ओशो
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