एडवोकेट के ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक मामले पर राज्य बार काउन्सिल निर्धारित समय पर जांच नहीं करेगा तो यह मामला स्वतः ही बार काउन्सिल ऑफ़ इंडिया को स्थानांतरित हो जाएगा !!मद्रास हाईकोर्ट !!
मद्रास हाईकोर्ट ने एडवोकेट अधिनियम, 1961 की धारा 36B की वैधता की स्वतः संज्ञान लेते हुए जांच करेगा। धारा में प्रावधान है कि अगर किसी एडवोकेट के ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक मामले पर राज्य बार काउन्सिल निर्धारित समय पर जांच नहीं करेगा तो यह मामला स्वतः ही बार काउन्सिल ऑफ़ इंडिया को स्थानांतरित हो जाएगा।
एडवोकेट अधिनियम की धारा 36B के इस प्रावधान को समाप्त कर दे, वह इस मामले की वैधता की जांच स्वतः संज्ञान लेते हुए करेगी, क्योंकि संविधान अनुच्छेद 14 के तहत यह मुक़दमादारों के मौलिक अधिकारों का हनन करता लगता है। इसके अलावा यह अतार्किक और मनमाना भी लगता है और ऐसा प्रतीत होता है कि इसने अपना उद्देश्य और तार्किकता को खो दिया है।"
धारा 36B(2) के प्रावधान में कहा गया है कि राज्य बार काउन्सिल की अनुशासन समिति किसी एडवोकेट के ख़िलाफ़ अनुशासन के मामले को शिकायत मिलने की तिथि से या राज्य बार काउन्सिल की ओर से शुरू की गई प्रक्रिया की तिथि से दोनों में से जो भी बाद में हो, से शुरू कर एक साल में इसका निपटान करेगी और अगर उसने ऐसा नहीं किया तो यह मामला बार काउन्सिल ऑफ़ इंडिया को स्थानांतरित माना जाएगा।
इस प्रावधान को 1973 में एक संशोधन द्वारा जोड़ा गया ताकि एडवोकेटों के ख़िलाफ़ मामले को शीघ्र निपटाया जा सके, लेकिन अदालत ने कहा कि ऐसा लगता है कि राज्य के बार काउन्सिल उक्त प्रावधान का ग़लत फ़ायदा उठा रहे हैं और जानबूझकर मामले को दिल्ली स्थित बार काउन्सिल को ट्रांसफ़र करवा रहे हैं जिससे पीड़ितों के साथ अन्याय हो रहा है।
पीठ ने इस पर सुनवाई में कहा, "अगर यह मामला बार काउन्सिल ऑफ़ इंडिया को भेजा जाता है तो इसमें याचिकाकर्ता की कोई ग़लती नहीं है। याचिकाकर्ता के पास हो सकता है कि इतना पैसा न हो कि वह दिल्ली जाकर इस मामले की सुनवाई में हिस्सा ले। फिर, अगर यह मामला तीन वर्ष से अधिक समय तक लंबित रहा तो इसके लिए तमिलनाडु और पुदुचेरी बार काउन्सिल ज़िम्मेदार है…इसलिए याचिकाकर्ता को अनावश्यक रूप से दिल्ली जाने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए। अत: इस मामले को दिल्ली ट्रांसफ़र करना याचिकाकर्ता के साथ अन्याय करना होगा।"
एडवोकेट अधिनियम की धारा 36B के इस प्रावधान को समाप्त कर दे, वह इस मामले की वैधता की जांच स्वतः संज्ञान लेते हुए करेगी, क्योंकि संविधान अनुच्छेद 14 के तहत यह मुक़दमादारों के मौलिक अधिकारों का हनन करता लगता है। इसके अलावा यह अतार्किक और मनमाना भी लगता है और ऐसा प्रतीत होता है कि इसने अपना उद्देश्य और तार्किकता को खो दिया है।"
धारा 36B(2) के प्रावधान में कहा गया है कि राज्य बार काउन्सिल की अनुशासन समिति किसी एडवोकेट के ख़िलाफ़ अनुशासन के मामले को शिकायत मिलने की तिथि से या राज्य बार काउन्सिल की ओर से शुरू की गई प्रक्रिया की तिथि से दोनों में से जो भी बाद में हो, से शुरू कर एक साल में इसका निपटान करेगी और अगर उसने ऐसा नहीं किया तो यह मामला बार काउन्सिल ऑफ़ इंडिया को स्थानांतरित माना जाएगा।
इस प्रावधान को 1973 में एक संशोधन द्वारा जोड़ा गया ताकि एडवोकेटों के ख़िलाफ़ मामले को शीघ्र निपटाया जा सके, लेकिन अदालत ने कहा कि ऐसा लगता है कि राज्य के बार काउन्सिल उक्त प्रावधान का ग़लत फ़ायदा उठा रहे हैं और जानबूझकर मामले को दिल्ली स्थित बार काउन्सिल को ट्रांसफ़र करवा रहे हैं जिससे पीड़ितों के साथ अन्याय हो रहा है।
पीठ ने इस पर सुनवाई में कहा, "अगर यह मामला बार काउन्सिल ऑफ़ इंडिया को भेजा जाता है तो इसमें याचिकाकर्ता की कोई ग़लती नहीं है। याचिकाकर्ता के पास हो सकता है कि इतना पैसा न हो कि वह दिल्ली जाकर इस मामले की सुनवाई में हिस्सा ले। फिर, अगर यह मामला तीन वर्ष से अधिक समय तक लंबित रहा तो इसके लिए तमिलनाडु और पुदुचेरी बार काउन्सिल ज़िम्मेदार है…इसलिए याचिकाकर्ता को अनावश्यक रूप से दिल्ली जाने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए। अत: इस मामले को दिल्ली ट्रांसफ़र करना याचिकाकर्ता के साथ अन्याय करना होगा।"
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