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राष्ट्र के भीतर महाराष्ट्र! सिर्फ एक ही है यह देश दुनिया में जहां राष्ट्र के भीतर महाराष्ट्र होते हैं?

पेरिस के विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र के प्रधान ने एक दिन अपनी कक्षा में कहा कि मुझसे महान व्यक्ति इस संसार में दूसरे नहीं है। विद्यार्थी उसके चौंके।...दर्शनशास्त्र का प्रोफेसर विश्वविद्यालय में बड़ी दयनीय अवस्था में होता है; क्योंकि कौन पढ़ने जाता है दर्शनशास्त्र! दर्शनशास्त्र के विभाग करीब-करीब खाली पड़ गये हैं। या तो लड़कियां पढ़ने जाती हैं, जिनको सिर्फ डिग्री चाहिए, ताकि अच्छे घर में शादी हो सके। और या कुछ सिरफिरे लोग पढ़ने जाते हैं; जिनको जिंदगी में भूखा मरने का शौक है। नहीं तो कौन पढ़ने जाता है। विज्ञान पढ़ते हैं लोग, डाक्टरी पढ़ते हैं लोग, इंजीनियरिंग पढ़ते हैं लोग, दर्शनशास्त्र पढ़ कर क्या करेंगे? मक्खियां मारनी हैं!...विद्यार्थी चौंके, विद्यार्थी ने खड़े को कर कहा कि आप और ऐसा कहते हैं! और आप इतने बड़े तर्कशास्त्री और आप ऐसी भूल कर रहे हैं, अपने को दुनिया का सबसे महान व्यक्ति कह रहे हैं! किस आधार पर? क्या प्रमाण?

उसने कहा, प्रमाण! उसने अपनी डेस्क से दुनिया का नक्शा निकाला, बोर्ड पर टांगा, अपनी छड़ी उठायी और कहा कि मैं तुमसे पूछता हूं कुछ प्रश्न, उससे सिद्ध हो जाएगा। मैं तुमसे पूछता हूं, दुनिया में सबसे श्रेष्ठ देश कौन-सा है? स्वभावतः सभी फ्रांस के रहने वाले थे, उन्होंने कहा, फ्रांस से श्रेष्ठ तो कोई भी नहीं। जैसे भारतीय होते तो वे कहते कि भारत तो पुण्यभूमि है, यहां तो देवता पैदा होने को तरसते हैं।...पता नहीं देवता भी कैसे नालायक हैं! यह किसलिए पैदा होने को तरसते होंगे? यहां आदमी पैदा होने से पीड़ित हो रहा है, देवता और किसलिए तरस रहे हैं? मगर बात शायद ठीक ही होगी, नहीं तो इतनी भीड़-भाड़ भी कैसे हो! तैंतीस करोड़ देवता हिंदुओं के ही पास हैं--और किसी के पास तो नहीं--मगर यहां तो मामला भी बढ़ गया है, देवता ही नहीं आ गये, उनके नौकर-चाकर भी सब आ गये हैं। सत्तर करोड़ तो संख्या हो गयी! देवता अपने मित्रों इत्यादि को भी ले आए हैं; दिखता है दानवों इत्यादि को भी ले आए हैं। अकेले नहीं आए, भीड़-भड़के के साथ आ गये हैं।...अगर भारत फ्रांसीसी ही थे, तो यह उनको अहंकार का हिस्सा है, जैसे भारतीयों के अहंकार का हिस्सा है, जैसे चीनियों का...दुनिया में सबके अपने अहंकार हैं! मगर वही बात, भेद कुछ भी नहीं! उन्होंने कहा, फ्रांस निश्चित ही सर्वश्रेष्ठ है। उस प्रोफेसर ने कहा, तो ठीक है, अब फ्रांस बचा, सारी दुनिया समाप्त करो। फ्रांस में सबसे ज्यादा श्रेष्ठ नगर कौन-सा है?

तब जरा विद्यार्थी चौंके कि यह बात तो कुछ बिगड़ने लगी। मगर करते भी क्या! पेरिस के ही सब निवासी थी, और पेरिस के निवासी तो मानते हैं दुनिया मग पेरिस जैसा कोई नगर ही नहीं है--हो भी नहीं सकता--तो उन्होंने कहा, पेरिस। तब प्रोफेसर ने कहा, और पेरिस में सबसे सबसे ज्यादा पवित्र स्थल कौन-सा है? स्वभावतः विद्या-मंदिर ही तो पवित्र होगा, तो विश्वविद्यालय। और तब उसने कहा, विश्वविद्यालय में सबसे श्रेष्ठ विषय कौन-सा है? निश्चित ही सभी दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी, उन्होंने कहा, दर्शनशास्त्र। उसने कहा, अब मैं तुम्हें कुछ सिद्ध करूं कि हो गया सिद्ध? मैं दर्शनशास्त्र का प्रधान हूं, इसलिए मैं कहता हूं कि मैं दुनिया का सबसे श्रेष्ठ व्यक्ति हूं। किसी को कोई एतराज है? अब क्या एतराज हो! अब तो बात बड़े तर्क से सिद्ध हो गयी। मगर देखते हैं कितनी चालबाजी से मैं दुनिया का श्रेष्ठतम व्यक्ति हूं, यह सिद्ध किया गया।

सीधे-सीधे कहो, कोई राजी नहीं होगा; तो हमें कान को उलटे पकड़ना होता है। भारत महान है, क्योंकि तुम भारतीय हो। भारत महान राष्ट्र है। और फिर भारत में भी महाराष्ट्र का तो कहना ही क्या। राष्ट्र के भीतर महाराष्ट्र! सिर्फ एक ही है यह देश दुनिया में जहां राष्ट्र के भीतर महाराष्ट्र होते हैं? तुमने चीनी डिब्बों की कहानियां सुनी होंगी डिब्बे भीतर डिब्बा, लेकिन यहां उससे भी गजब की बात है। यहां डिब्बे के भीतर उससे बड़ा डिब्बा! इसको कहते हैं जादू! इसको कहते हैं चमत्कार, आध्यात्मिक चमत्कार! राष्ट्र वगैरह में क्या रखा है, महाराष्ट्र!! बंगाली से पूछो, वह कहेगा कि सोनार बांगला! सोने का बंगाल। यह है पुण्यभूमि धन्यभूमि। यहीं रवींद्रनाथ! किसी से भी पूछ लो, जिससे पूछेंगे, वह अपने दावे करेगा।

हालांकि सीधा नहीं कहेगा कि मैं महान हूं, मगर तिरछी चला चलेगा। मेरा धर्म महान, मेरा राष्ट्र महान, मेरा वर्णन महान, मेरा रंग महान, मेरी जाति महान, मगर पुरुष है तो पुरुष महान। और अगर धीरे-धीरे तुम खींचते ही जाओ बात को तो वही आ जाएगा जहां दर्शन-शास्त्रों का यह प्रोफेसर आ गया। आखिर में, तुम अगर उसको कुरेदते ही जाओ, तो आज नहीं कल, कल नहीं परसों उसे कहना ही पड़ेगा, अब सच्ची बात कह देता हूं कि मैं महान।

इस "मैं' की महानता को, अहंकार को सिद्ध करने के लिए तुम न-मालूम किन-किन बातों को पकड़े हुए हो। ये सब छोड़नी होंगी, तो ही बीज टूटेगा। साहस चाहिए। ज्ञात को छोड़ने के लिए और अज्ञात में प्रवेश के लिए साहस चाहिए। और यह हमारा विक्षिप्त मन, यह हमारा पागल मन अतीत को पकड़ता है। इसके पीछे कारण हैं। क्योंकि मन अतीत से ही पोषण पाता है। मन है अतीत का संग्रह। मन के पास अज्ञात में प्रवेश का कोई उपाय नहीं है। यह ज्ञान में ही जीता है। यह परिचित में ही जीता है। और इसलिए मन ही बाधा है। यही तुम्हारा दीया नहीं जलने देता। जिस दिन तुम्हारे और किसी जले हुए दीये के बीच कोई फासला न रह जाएगा--यह मन न खड़ा रह जाएगा। उस क्षण तुम्हारा दीया भी जल जाएगा। तत्क्षण जल जाएगा। मगर कुछ तुम्हें भी करना होगा। तुम्हें पास सरकते आना होगा। श्रद्धा ही पास सरका सकती है।

और तुम्हें आर्द्र होना होगा, तुम्हें प्रेमपूर्ण होना होगा। और तुम्हें शून्य होना होगा, मौन होना होगा। मौन को मैं ध्यान कहता हूं। जिस को पलटू ने "नाम' कहा है, उसको मैं *"ध्यान'* कहता हूं।
शब्द का ही भेद है। जब तुम निर्विचार हो जाओगे तो मन गया। और जहां मन गया, वहां ज्योति आयी। तत्क्षण आती है।
 *दीपक बारा नाम का*

ओशो

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