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साक्षी मंदिर में बैठा हो कि वेश्यालय में, कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि साक्षी का काम सिर्फ देखने का है।

                     साक्षी की साधना - भाग - 12

साक्षी मंदिर में बैठा हो कि वेश्यालय में, कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि साक्षी का काम सिर्फ देखने का है।

 मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मात्र अनुभव से आप मुक्त हो जाएंगे। अनुभव और साक्षी का भाव संयुक्त हो, तो आप मुक्त हो जाएंगे। अकेला अनुभव हो, तो आपकी आदत और गहरी होती जाएगी। और फिर आदत के वश आप दौड़ते रहेंगे। और अकेला साक्षी— भाव हो और अनुभव से बचने का डर हो, तो वह साक्षी— भाव कमजोर और झूठा है। क्योंकि साक्षी— भाव को कोई भय नहीं है। न किसी चीज के करने का भय है, और न न करने का भय है।
साक्षी— भाव को कर्म का प्रयोजन ही नहीं है। जो भी हो रहा है, उसे देखता रहेगा। तो साक्षी मंदिर में बैठा हो कि वेश्यालय में, कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि साक्षी का काम सिर्फ देखने का है।
कथा है बौद्ध साहित्य में, आनंद एक गांव से गुजर रहा है—बुद्ध का शिष्य। और कथा है कि एक वेश्या ने आनंद को देखा। आनंद सुंदर था। संन्यस्त व्यक्ति अक्सर सुंदर हो जाते हैं। और संन्यस्त व्यक्तियों में अक्सर एक आकर्षण आ जाता है, जो गृहस्थ में नहीं होता। एक व्यक्तित्व में आभा आ जाती है।
वह वेश्या मोहित हो गई। और कथा यह है कि उसने कुछ तंत्र—मंत्र किया। बुद्ध देख रहे हैं दूर अपने वन में वृक्ष के नीचे बैठे। दूर घटना घट रही है, आनंद बहुत दूर है, लेकिन कथा यह है कि बुद्ध देख रहे हैं। बुद्ध देख सकते हैं। वे देख रहे हैं। बुद्ध के पास सारिपुत्त, उनका शिष्य भी बैठा हुआ है। वह भी देख रहा है।
सारिपुत्त बुद्ध से कहता है, आप आनंद को बचाएं। वह किसी मुश्किल में न पड़ जाए। क्योंकि स्त्री बड़ी रूपवान है और उसने बडा गहरा तंत्र—मंत्र फेंका है। और आनंद कहीं ठगा न जाए। लेकिन बुद्ध देखते रहते हैं।
अचानक बुद्ध उठकर खड़े हो जाते हैं और सारिपुत्त से कहते हैं, अब कुछ करना होगा। सारिपुत्त कहता है, अब क्या हो गया जो आप करने के लिए कहते हैं? अब तक मैं आपसे कह रहा था, कुछ करें। आप चुप बैठे रहे। जो बीमारी शुरू हुई, उसे पहले ही रोक देना उचित है!
बुद्ध ने कहा, बीमारी अब तक शुरू नहीं हुई थी; अब शुरू हुई है। आनंद मूर्च्छित हो गया, साक्षी— भाव खो गया। अभी तक कोई डर नहीं था। वेश्या हो, सुंदर हो, कुछ भी हो, अभी तक कोई भय न था। और आनंद उसके घर में चला जाए; रात वहा टिके, कोई भय की बात नहीं थी। अब भय खड़ा हो गया है।
लेकिन सारिपुत्त बडा चकित है, क्योंकि आनंद अब भाग रहा है। वेश्या बहुत दूर रह गई है। जब बुद्ध कहते हैं, भय हो गया है, तब आनंद वेश्या से दूर निकल गया है भागकर और उसने पीठ कर ली है। वह लौटकर भी नहीं देख रहा है। लेकिन बुद्ध खड़े हैं। और वे कहते हैं, इस समय आनंद को सहायता की जरूरत है।
सारिपुत्त कहता है, आप भी अनूठी बातें करते हैं! जब वेश्या सामने खड़ी थी और आनंद उसको देख रहा— था और डर था कि वह लोभित हो जाए, मोहित हो जाए, तब आप चुपचाप बैठे रहे। और अब जब कि आनंद भाग रहा है, और वेश्या दूर रह गई है, और उसके मंत्र—तंत्र पीछे पडे रह गए हैं, और उसके प्रभाव का क्षेत्र पार कर गया है आनंद, और आनंद लौटकर भी नहीं देख रहा है, तो अब आपके खड़े होने की क्या जरूरत है?
बुद्ध ने कहा, वह भाग ही इसलिए रहा है कि साक्षी— भाव खो गया। अब वह कर्ता— भाव में आ गया है। और कर्ता की वजह से डरा हुआ है। और अब वह डर रहा है। जब तक साक्षी था, तब तक खड़ा था, डर के कोई कारण भी न थे। अब उसको सहायता की जरूरत है।
एक ही बात करने जैसी है कि आपके भीतर साक्षी— भाव बना रहे। फिर आप कुछ भी करें, विवाह करें, न करें, कुछ भी करें, साक्षी— भाव आपके अनुभव में जुड़ा रहे, तो आप आज नहीं कल अपनी मुक्ति की सीढ़ियां पूरी कर लेंगे।
लेकिन ध्यान रहे, अधूरे और कच्चे अनुभवों को रोकने का परिणाम विषाक्त होता है। भागें मत, डरें मत, साक्षी को ही सम्हाले। मेरा सारा जोर इस बात पर है कि आप जागे, बजाय भागने के। भागकर कहं। जाएंगे? विवाह न करें, यह हो सकता है। लेकिन कितने लोग विवाह न करने से कुछ कहीं पहुंच नहीं जाते। विवाह न करने का परिणाम चित्त में और वासनाओं का जाल होता है।
अगर एक विवाहित और एक अविवाहित आदमी की जांच की जाए बैठकर, तो अविवाहित आदमी के मन में ज्यादा वासना मिलेगी। स्वाभाविक है। जैसे एक भूखे आदमी की और भोजन किए आदमी की जांच की जाए, तो भूखे आदमी के मन में भोजन का ज्यादा खयाल मिलेगा। जिसका पेट भरा है, उसके मन में भोजन का खयाल क्यों होगा!
तो जब तक आपको भीतर का साक्षी ही न जगने लगे, तब तक जीवन के किसी अनुभव से अकारण अधूरे में, अधकचरे में भागना उचित नहीं है। उस भय से कोई किसी सिद्धि को प्राप्त नहीं होता है। सारा जीवन अनुभव के लिए है। यह ऐसा ही है, जैसे हम किसी विद्यार्थी को विश्वविद्यालय भेज दें और वह वहा परीक्षाओं से बचने लगे। यह संसार परीक्षालय है। वहां आपकी चेतना इसीलिए
है, ताकि अनुभवों से गुजरकर परिपक्व हो जाए।
तो मैं तो कहूंगा, सब अनुभव भोग लें, बुरे को भी। अगर जरा भी रस हो बुरे में, तो उसको भी भोग लें। बस इतना ही खयाल रखें कि भोगते समय में भी होश बना रहे, तो आप मुक्त हो जाएंगे। और अगर आप डरे, जिम्मेवारी से बचना चाहा, तो वासनाएं विकृत हो जाएंगी और भीतर मन में घूमती रहेंगी।
उन विकृत वासनाओं के परिणाम कभी भी मुक्तिदायी नहीं हैं। स्वास्थ्य से तो कोई मुक्त हो सकता है, विकृति से कोई मुक्त नहीं हो सकता।
तो सहज हों, स्वाभाविक हों। और जो भी मन में उठता हो, उसको उठने दें, उसको पूरा भी होने दें। सिर्फ एक ही बात खयाल रखें कि पीछे एक देखने वाला भी खडा रहे और देखता रहे। आपकी पूरी जिंदगी एक नाटक हो जाए और आप उसको देखते रहें। यह देखना ही सारी जिंदगी को बदल देगा। यह बड़ा क्रांतिकारी सूत्र है, देखने के द्वारा पूरी जिंदगी को बदल लेना।
भागने के द्वारा कोई कभी नहीं बदलता। भागने से सिर्फ कमजोरी जाहिर होती है। और भागे हुए आदमी की वासनाएं पीछा करती हैं। वह जहां भी चला जाए, वासनाएं उसके पीछे होंगी।
ओशो
गीता दर्शन, भाग -7

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