अगर मैं दुखी या सुखी हूं तो मेरी ही वजह से हूं ।
जब तक तुम्हारे सुख दुख का आधार दूसरा है,ऐसा तुम समझते हो वहां तक तुम अधार्मिक हो !! ओशो!!
मनुष्य अपने हृदय की प्रतिध्वनि ही अपने जीवन के सारे अनुभवों में सुनता है। जो तुम्हें बाहर मिलता है, वह तुम्हारे भीतर का ही प्रक्षेपण होता है। बाहर तो केवल पर्दे हैं। तुम अपने को ही उन पर्दों पर, अपनी ही छायाओं को उन पर देखा करते हो।
अगर जीवन में दुख मालूम पड़ता है और चारों ओर दुख की छाया दिखाई पड़ती है, तो तुम्हारे हृदय का ही दुख है। तुम्हारे भीतर दुख है, तो दुख बहार आएगा । तुम्हारे भीतर सुख है तो सुख बाहर आएगा.
अगर मैं दुखी या सुखी हूं तो मेरी ही वजह से हूं । अगर ये सत्य तुम स्वीकार कर लो तो धर्म के जगत में तुम्हारा प्रवेश हो गया ।
जब तक तुम्हारे सुख दुख का आधार दूसरा है,ऐसा तुम समझते हो वहां तक तुम अधार्मिक हो,या दूसरा तुम्हे सुखी या दुखी कर सकता है,
ऐसा मानते हो वहां तक तुम धर्म से बहुत दूर हो, और तब तक तुम्हारे पूजा,अर्चना,प्रार्थना,ध्यान, भजन, शास्त्र, कीर्तन, संध्या सब व्यर्थ है ।अगर जीवन में विषाद दिखाई पड़ता है, तो वह विषाद तुमने ही जीवन में डाला है।
वही दिखाई पड़ता है बाहर, जो हम बाहर अपने भीतर से फैलाते हैं।
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