माला दीक्षित, नई दिल्ली। भारतीय न्यायपालिका आजकल बहुत ही विचित्र स्थिति से गुजर रही है। हायर ज्युडिशयरी के बीच एक तरह से 'आर्डर वार' चल रहा है। देश की सर्वोच्च अदालत के वरिष्ठतम 7 न्यायाधीशों की पीठ कलकत्ता हाईकोर्ट के सिटिंग जज सीएस कर्नन के खिलाफ अवमानना कार्यवाही में एक के बाद एक आदेश पारित कर रही है और उधर दूसरी ओर जस्टिस कर्नन न्यायिक और प्रशासनिक कामकाज वापस लिये जाने के बावजूद सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीशों के खिलाफ आदेश पारित कर रहे हैं।
दुनिया में बेहतरीन कही जाने वाली भारतीय न्यायपालिका अपने बेलगाम जजों के कारण संक्त्रमण काल से गुजर रही है। हालांकि न्यायपालिका ने इससे निपटने का नया रास्ता खोजा है। यह पहला मौका है जब किसी हाईकोर्ट के सिटिंग जज पर न्यायालय की अवमानना में कार्यवाही चल रही है। लेकिन सवाल उठता है कि ये उपाय कितना कारगर है और क्या ये दीर्घगामी होगा। विशेषज्ञ इसमें संदेह जताते हैं।
जस्टिस कर्नन ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर 20 न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए। समर्थन में सबूत न दे पाने और न्यायपालिका की छवि खराब करने के लिए सुप्रीमकोर्ट ने अभूतपूर्व कदम उठाते हुए उनके खिलाफ स्वत: संज्ञान लेकर अवमानना कार्यवाही शुरू की है। इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ। हाईकोर्ट के सिटिंग जजों के खिलाफ न्यायपालिका जांच की आंतरिक प्रक्ति्रया अपनाती है। इस तरह खुली अदालत में जजों के आचरण पर सुनवाई नहीं होती।
सुप्रीमकोर्ट ने जस्टिस कर्नन के बारे में ये रुख इसलिए अख्तियार किया क्योंकि पानी सिर के ऊपर चढ़ गया था। कर्नन ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखने से पहले भी मद्रास हाईकोर्ट के जज रहते हुए अपने साथी जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार और कई तरह के आरोप लगाये थे। यहां तक कि अपना स्थानांतरण रोकने का आदेश भी स्वयं पारित कर लिया था। कर्नन का मामला ताजा है लेकिन जस्टिस पीडी दिनकरन और जस्टिस सौमित्र सेन के मामले को भी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं। उन दोनों को पद से हटाने की कार्यवाही संसद की चौखट तक पहुंची थी। ये बात और है कि कार्यवाही पूरी होने से पहले ही दोनों ने पद से इस्तीफा दे दिया था। कर्नन भी जून में सेवानिवृत हो रहे हैं।
दिनकरन और सौमित्र सेन के मामले में आंतरिक जांच प्रक्ति्रया अपनाई गई थी लेकिन कर्नन पर अवमानना में कार्यवाही शुरू हुई है। जस्टिस कर्नन पर की गई कार्रवाई पर वरिष्ठ वकील केटीएस तुलसी कहते हैं 'कर्नन साहब का आचरण इतना गलत है कि अगर उन पर कोई कार्रवाई न की जाए तो पूरी न्यायपालिका का मजाक उड़ता है।
हालांकि जैसा वे आचरण कर रहे हैं उससे लगता है कि उनकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है।' तुलसी मानते हैं कि सिटिंग जज पर कार्रवाई करने के लिए सुप्रीमकोर्ट पूरी तरह सक्षम है और अवमानना में सिटिंग जज को भी जेल भेजा जा सकता है। उनका कहना है कि कानून में छूट सिर्फ राष्ट्रपति और राज्यपाल को ही मिली हुई है, जजों कोई छूट नहीं है।
परन्तु सुप्रीमकोर्ट के वकील ज्ञानंत सिंह इससे बहुत सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि ये रास्ता काउंटर प्रोडेक्टिव हो सकता है। अगर न्यायपालिका अपने ही जज को जेल भेजेगी तो उससे उसकी इज्जत नहीं बढ़ेगी बल्कि छवि को धक्का ही लगेगा क्योंकि जज हमेशा जज ही रहेगा। वे जस्टिस कर्नन ही कहलाएंगे। सिटिंग जज पर इस तरह की कार्यवाही पर वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे कहते हैं कि बड़ी दुखद स्थिति है कि एक जज को ऐसे डील करना पड़ रहा है।
न्यायपालिका को भी इसमें अच्छा नहीं लग रहा होगा। लेकिन कानून में हाईकोर्ट जज को न तो निलंबित किया जा सकता है और न ही बर्खास्त। उसे सिर्फ संसद ही पदमुक्त कर सकती है। ज्यादा से ज्यादा उसका कामकाज छीना जा सकता है। वे मानते हैं कि न्यायपालिका ने स्थिति से निपटने का ये एक नया उपाय ढूंढा है, पर ये एडहाक व्यवस्था ज्यादा नहीं चल सकती। जजों का आचरण नियंत्रित करने के लिए एक स्थाई तंत्र की जरूरत है।
जजों पर कार्यवाही की मैजूदा व्यवस्था
न्यायाधीशों पर कदाचार में न्यायपालिका इन हाउस जांच प्रक्ति्रया अपनाती है। जांच में दोषी पाए जाने पर भी न्यायाधीश को न तो बर्खास्त किया जा सकता है और न निलंबित। ज्यादा से ज्यादा उसे स्थानांतरित किया जा सकता है और उसका कामकाज वापस लिया जा सकता है। आरोपी न्यायाधीश को निर्देश मानने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीशों को सिर्फ संसद महाभियोग के जरिये पद से हटा सकती है।
जजों की आचार संहिता
मई 1997 में सुप्रीमकोर्ट ने रिस्टेटमेट आफ वैल्यू आफ ज्युडिशियल लाइफ यानी न्यायिक जीवन में नैतिक मूल्यों का प्रस्ताव पारित किया था। जो कि 1999 में चीफ जस्टिस कान्फ्रेंस में स्वीकृत हुआ। यह 16 सूत्री प्रस्ताव जजों के आचरण की गाइड लाइन है। लेकिन इसके पीछे कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। यूपीए सरकार ने न्यायिक स्तर और जवाबदेही विधेयक 2010 में इसे शामिल करके कानूनन बाध्यकारी बनाने का प्रयास किया था लेकिन लोकसभा का कार्यकाल समाप्त होने से ये विधेयक स्वत: समाप्त हो गया है।
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