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प्रेम को तो वैसे ही साधना होगा जैसे कोई योग को साधता है

प्रेम तप है

जिसको प्रेम को ऊपर ले जाना है, उसे प्रेम को तो वैसे ही साधना होगा जैसे कोई योग को साधता है। क्योंकि दोनों ऊपर जा रहे हैं; तब साधना शुरू हो जाती है। प्रेम तप है; जैसे कोई तप को साधता है वैसे ही प्रेम की तपश्चर्या है। और तप इतना बड़ा तप नहीं है, क्योंकि तुम अकेले होते हो। प्रेम और भी बड़ा तप है, क्योंकि एक दूसरा व्यक्ति भी साथ होता है। तुम्हें अकेले ही ऊपर नहीं जाना है; एक दूसरे व्यक्ति को भी हाथ का सहारा देना है, ऊपर ले जाना है। कई बार दूसरा बोझिल मालूम पड़ेगा। कई बार दूसरा ऊपर जाने को आतुर न होगा, इनकार करेगा। कई बार दूसरा नीचे उतर जाने की आकांक्षा करेगा। लेकिन अगर हृदय में प्रेम है तो तुम दूसरे को भी सहारा दोगे, सम्हालोगे; उसे नीचे न गिरने दोगे। तुम्हारा हाथ करुणा न खोएगा; तुम्हारा प्रेम जल्दी ही क्रोध में न बदलेगा। कई बार तुम्हें धीमे भी चलना पड़ेगा, क्योंकि दूसरा साथ चल रहा है। तुम दौड़ न सकोगे। इसलिए मैं कहता हूं, तप इतना बड़ा तप नहीं है; क्योंकि तप में तो तुम अकेले हो, जब चाहो दौड़ सकते हो। प्रेम और भी बड़ा तप है।

लेकिन प्रेम के द्वार पर तो तुम ऐसे पहुंच जाते हो जैसे तुम तैयार ही हो। यहीं भूल हो जाती है। दुनिया में हर आदमी को यह खयाल है कि प्रेम करने के योग्य तो वह है ही। यहीं भूल हो जाती है। और सब तो तुम सीखते हो, छोटी-छोटी चीजों को सीखने में बड़े जीवन का समय गंवाते हो। प्रेम को तुमने कभी सीखा? प्रेम को कभी तुमने सोचा? प्रेम को कभी तुमने ध्यान दिया? प्रेम क्या है? तुम ऐसा मान कर बैठे हो कि जैसे प्रेम को तुम जानते ही हो। तुम्हारी ऐसी मान्यता तुम्हें नीचे उतार देगी, तुम्हें नरक की तरफ ले जाएगी।

प्रेम सबसे बड़ी कला है। उससे बड़ा कोई ज्ञान नहीं है। सब ज्ञान उससे छोटे हैं। क्योंकि और सब ज्ञान से तो तुम जान सकते हो बाहर-बाहर से; प्रेम में ही तुम अंतर्गृह में प्रवेश करते हो। और परमात्मा अगर कहीं छिपा है तो परिधि पर नहीं, केंद्र में छिपा है।

और एक बार जब तुम एक व्यक्ति के अंतर्गृह में प्रवेश कर जाते हो तो तुम्हारे हाथ में कला आ जाती है; वही कला सारे अस्तित्व के अंतर्गृह में प्रवेश करने के काम आती है। तुमने अगर एक को प्रेम करना सीख लिया तो तुम उस एक के द्वारा प्रेम करने की कला सीख गए। वही तुम्हें एक दिन परमात्मा तक पहुंचा देगी।.....osho

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