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हमें यह पुरानी धारणा छोड़ देनी चाहिए कि "मैं पिता हूं।"

पिता......
हमें यह पुरानी धारणा छोड़ देनी चाहिए कि "मैं पिता हूं।"

हमें यह धारणा पैदा करनी चाहिए: "मैंने सर्वश्रेष्ठ बच्चे का चुनाव किया है।" इसमें पुरुष को गर्व होना चाहिए। इस ढंग से मूल्यों को बदलना चाहिए।

तुम्हें पता नहीं है तुम्हारे जीन्स में क्या छिपा है। तुम नहीं जानते तुम्हारी क्षमता क्या है, तुम किस प्रकार के बच्चे को पैदा करने जा रहे हो। तुम किसी स्त्री से प्रेम करते हो, उसमें कोई हर्ज नहीं है। तुम्हें प्रेम पूरी तरह से उपलब्ध होना चाहिए, वह तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। तुम एक स्त्री से प्रेम करते हो लेकिन जरूरी नहीं है कि हर स्त्री मां बने। यह जरूरी नहीं कि हर पुरुष पिता बने।

तुम बच्चा चाहते हो, और यदि तुम सच में ही बच्चे को चाहते हो तो तुम चाहोगे कि श्रेष्ठ से श्रेष्ठ बच्चा पैदा हो। तो इसमें किसके शुक्राणु हैं और वह किस मां के गर्भ में पला है, इसकी तुम्हें फिक्र नहीं करनी चाहिए। तुम्हारी फिक्र इतनी ही हो कि तुम्हें अधिक से अधिक श्रेष्ठ बच्चा मिले।

जब बच्चा पैदा होगा तो उसकी पहचान होनी चाहिए: मनुष्य। और उस पर भी मेरी कुछ शर्तें हैं।

यदि कोई बच्चा अंधा या अपाहिज पैदा होता है, बहरा या गूंगा पैदा होता है और हम कुछ नहीं कर सकते...केवल इसलिए कि जीवन को नष्ट नहीं करना है, इस बच्चे को तुम्हारी मूढ़तापूर्ण धारणाओं के कारण सत्तर-अस्सी साल तक कष्ट झेलना पड़ेगा। यह व्यर्थ का दुख क्यों पैदा करना? यदि बच्चे के मां-बाप राजी हों तो इस बच्चे को शाश्वत नींद सुला देनी चाहिए। और उसमें कोई कठिनाई नहीं है। सिर्फ शरीर ही अपने मूल तत्वों में विलीन हो जाता है, आत्मा दूसरे गर्भ में उड़ जाएगी। कुछ नष्ट नहीं होता।

यदि तुम वास्तव में बच्चे से प्रेम करते हो, तुम नहीं चाहोगे कि वह सत्तर साल की लंबी जिंदगी दुख में, पीड़ा में, बीमारी में, बुढ़ापे में जिए। तो अगर बच्चा पैदा भी होता है, यदि वह जीवन को सभी इंद्रियों के द्वारा, स्वस्थ होकर भोग नहीं सकता, तो बेहतर होगा कि वह चिरनिद्रा में लीन हो जाए और अन्यत्र बेहतर शरीर में पैदा हो जाए।

धीरे-धीरे विज्ञान को शुक्राणु और अंडाणु का कार्यक्रम समझ आ रहा है। यह विकसित हो रहा है लेकिन यह हमारा सर्वाधिक जोरदार प्रयास होना चाहिए। यदि हम शुक्राणु और अंडाणु के संबंध में सब जानकारी हासिल कर लें तो न केवल जनसंख्या घटेगी बल्कि लोगों की गुणवत्ता सौ गुना बढ़ सकती है। हमें पता नहीं है कितने प्रतिभाशाली लोग व्यर्थ हुए जा रहे हैं। यह संसार सब तरह के प्रतिभाशालियों से भरापूरा हो सकता है। वह हमारा चुनाव हो सकता है। अतीत में वे सिर्फ आकस्मिक या सांयोगिक हुआ करते थे, लेकिन भविष्य में हम उसे सुनिश्चित कर सकते हैं।

हम इस धरती को प्रतिभा संपन्न, मेधावी और स्वस्थ लोगों से आपूरित कर सकते हैं।

मेरा सुझाव है कि आनुवंशिक कार्यक्रम को समझने के लिए विश्व-व्यापी समूह तैयार किए जाएं। आदमी चांद पर पहुंच गया है लेकिन आनुवंशिक कार्यक्रम को समझने के लिए उसने कोई खास प्रयास नहीं किए हैं। कारण सरल हैं, क्योंकि सभी न्यस्त स्वार्थ, सभी धर्म खतरे में हैं। वे जानते हैं कि एक बार जीन्स का कार्यक्रम समझ में आ गया तो फिर पुराना बच नहीं सकता।

इससे भी अधिक जोर इस बात पर होना चाहिए कि हम इस कार्यक्रम को कैसे बदलें। हम स्वास्थ्य, रोग, आयु, रंग, इन सबके बारे में जान रहे हैं। पहले हमें सीखना चाहिए कि इस कार्यक्रम को कैसे बदला जाए। उदाहरण के लिए, एक आदमी का मस्तिष्क नौबल पुरस्कार विजेता का हो लेकिन शरीर रुग्ण हो। यदि उसका शरीर सहयोग नहीं करता तो वह अपने मस्तिष्क का उपयोग नहीं कर सकता-जब तक कि हम उसका कार्यक्रम न बदल दें। एक दफा हम कार्यक्रम बदलने की कला जान लें तो हज़ारों संभावनाएं खुलती है। हम हर पुरुष और स्त्री को सर्वश्रेष्ठ चीजें दे सकते हैं। किसी को नाहक पीड़ा झेलने की जरूरत नहीं है। मतिमंद होना, अपाहिज, अंधा या कुरूप होना-इन सबको बदलना संभव होगा।

अपराधियों से बचा जा सकता है, राजनीतिकों से बचा जा सकता है, पुरोहितों से बचा जा सकता है, हत्यारों और बलात्कारियों से बचा जा सकता है, हिंसक लोगों से बचा जा सकता है। या यदि उनमें कोई विशिष्ट गुण हो तो उनका आनुवंशिक कार्यक्रम बदला जा सकता है। बजाय इसके कि हम लोगों को सिखाएं हिंसा मत करो, चोरी मत करो, अपराध मत करो, हम उनके भीतर की हिंसा ही निकाल ले सकते हैं।
ओशो
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