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समाज कैसे बदलेगा ?


मैं एक इंजीनियर के घर का उदघाटन करने गया था। बड़े इंजीनियर हैं, जर्मनी से शिक्षित हुए हैं, और पंजाब के एक बड़े नगर में उन्होंने एक मकान बनाया है। मेरे लिए रुके थे कि मैं आऊं तो उनके मकान का उदघाटन कर दूं। मैं गया, उनके मकान का फीता काट रहा था, तब मैंने देखा कि मकान के सामने एक हंडी लटकी हुई है! हंडी के ऊपर आदमी के बाल हैं और हंडी पर आदमी का चेहरा बना हुआ है! मैंने पूछा, यह क्या है?
उन्होंने कहा कि मकान को नजर न लग जाए!


मैंने कहा कि इंजीनियर होकर तुम जर्मनी से लौटे! मकान को भी नजर लगती है?


वे कहने लगे कि नहीं, मैं तो नहीं मानता हूं, लेकिन और सब लोग कहते हैं तो मैंने सोचा हर्ज क्या है!
मैंने कहा, हर्ज बहुत बड़ा है। क्योंकि जब जर्मनी से लौटा हुआ इंजीनियर भी मकान को नजर लगने का इंतजाम करता हो बचाने का, तो पास-पड़ोस का ग्रामीण आदमी क्या करेगा? उसे भरोसा मिलेगा कि ठीक है। तुम शिक्षित होकर अशिक्षित मान्यताओं को बल दे रहे हो।


मैं एक डाक्टर के घर में मेहमान था कलकत्ते में। सांझ को निकलता था, मुझे लेकर जा रहे थे, उनकी लड़की को छींक आ गई। उन्होंने कहा, एक मिनट रुक जाएं!


मैंने उनसे कहा, आप डाक्टर हो और भली-भांति जानते हो कि आपकी लड़की की छींक से मेरा कोई भी लेना-देना नहीं है। और आपकी लड़की को छींक आए तो किसी के रुकने की कोई जरूरत नहीं है। और भली-भांति जानते हो कि छींक के आने के कारण क्या हैं।


डाक्टर ने कहा, भली-भांति जानता हूं कि छींक क्यों आती है। लेकिन रुकने में हर्ज क्या है?


वह हमारा जो भीतर गहरे में दबा हुआ मन है, वह समझौता खोज रहा है, कंप्रोमाइज खोज रहा है। अब ये डाक्टर का चेतन मन जानता है कि छींक का क्या अर्थ है, लेकिन इसका अचेतन है,इसका अनकांशस है जो समाज ने इसे दिया था। वह कहता है,रुक भी जाओ, दोनों के बीच समझौता कर लो। जानते हैं कि छींक क्यों आई है, लेकिन फिर भी, न जानने के समय में जो विश्वास बनाया था, वह भी काम कर रहा है; वह भी हटता नहीं है।


विद्यार्थी आंदोलन करेगा, मोर्चे उठाएगा, हड़तालें करेगा, विरोध करेगा, कांच तोड़ेगा, बसें जलाएगा--और परीक्षा के समय वह भी हनुमान जी के मंदिर के पास दिखाई पड़ेगा! परीक्षा के वक्त वह भी हाथ जोड़ कर प्रार्थना करने लगेगा। परीक्षा के समय उसे भी परमात्मा वापस सार्थक मालूम होने लगेगा।


हमारा ऊपर का मन तो शिक्षित हुआ है, उसने थोड़ा-बहुत सोच-विचार शुरू किया है, लेकिन भीतर का गहरा मन अब भी विश्वास में दबा है। उस गहरे मन को बिना बदले हुए यह समाज परिवर्तित नहीं हो सकता है। क्यों? क्योंकि विश्वास के अपने नियम हैं,विचार के अपने नियम हैं। विचार में विद्रोह छिपा है सदा। विचार विद्रोही है। आप विचार करेंगे तो विद्रोही हो ही जाएंगे। अगर विचार किया तो आपको बहुत चीजें गलत दिखाई पड़ने लगेंगी। और जो गलत दिखाई पड़ने लगेगा उसके साथ खड़े रहना असंभव हो जाएगा।


इसलिए दुनिया के सभी शोषक--चाहे वे राजनेता हों और चाहे धर्मगुरु हों--मनुष्य के मन को विचार करने से रोकने का सारा इंतजाम करते हैं; क्योंकि विचार विद्रोह ले आएगा। आज नहीं कल, विचार के पीछे विद्रोह की छाया आने ही वाली है। इसलिए विचार को ही तोड़ दो, ताकि विद्रोह न आ सके। और विचार की जगह विश्वास के बीज बोओ, क्योंकि विश्वास कभी विद्रोह नहीं करता; विश्वास विद्रोह कर ही नहीं सकता। जितना बिलीविंग माइंड है, जितना विश्वास करने वाला चित्त है, उतना अविद्रोही,प्रतिगामी, रिएक्शनरी, पुराने को पकड़ कर रुका रहने वाला मन होता है।


हम अब भी विश्वासी हैं, इसलिए समाज बदलेगा नहीं। समाज के वस्त्र ही बदल पाएंगे, आत्मा नहीं। और आत्मा पुरानी हो और वस्त्र नए हो जाएं तो अत्यंत बेचैनी शुरू हो जाती है, क्योंकि समाज का व्यक्तित्व तब सीजोफ्रेनिक हो जाता है; समाज के व्यक्तित्व के दो हिस्से हो जाते हैं। और जब विपरीत हिस्से एक ही साथ समाज में हो जाते हैं, तब भीतर इनर टेंशन और एक आंतरिक तनाव और विरोध और द्वंद्व और तकलीफ शुरू हो जाती है।

एक एक कदम

ओशो

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