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बर्ट्रेड रसल ने कहीं एक छोटा-सा लेख लिखा है। उस लेख का शीर्षक मुझे पसंद आया।

ओशो ने एक बार कहा था...
बर्ट्रेड रसल ने कहीं एक छोटा-सा लेख लिखा है। उस लेख का शीर्षक मुझे पसंद आया। वह है, ‘द हार्म, दैट गुड मैन डू’— नुकसान, जो अच्छे आदमी पहुंचाते हैं। अच्छे आदमी सबसे बड़ा नुकसान यह पहुंचाते हैं कि बुरे आदमी के लिए जगह खाली कर देते हैं। इससे बड़ा नुकसान अच्छा आदमी और कोई पहुंचा भी नहीं सकता। हिंदुस्तान में सब अच्छे आदमी भगोड़े रहे हैं। ‘एस्केपिस्ट’, यानी भागने वाले रहे हैं।

हिंदुस्तान ने उनको ही आदर दिया है, जो भाग जाएं। हिंदुस्तान उनको आदर नहीं देता, जो जीवन की सघनता में खड़े हैं, जो संघर्ष करें, जीवन को बदलने की कोशिश करें। खुद गांधी जैसे भले आदमी ने सोचा कि अब क्रांग्रेस का काम पूरा हो गया है, अब कांग्रेस को विदा हो जाना चाहिए। फिर भी गांधीजी के पीछे अच्छे लोगों की जो जमात थी, विनोबा और लोगों की, सब दूर हट गए। वह पुरानी भारतीय धारा फिर उनके मन को पकड़ गई कि अच्छे आदमी को राजनीति में नहीं होना चाहिए।

गांधीजी ने जीवन भर बड़ी हिम्मत से, बड़ी कुशलता से भारत की आजादी का संघर्ष किया। उसे सफलता तक पहुंचाया। लेकिन जैसे ही सत्ता हाथ में आई, गांधीजी हट गए। वह भारत का पुराना अच्छा आदमी फिर मजबूत हो गया। गांधी ने अपने हाथ में सत्ता नहीं ली, यह भारत के इतिहास का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है जिसका हमें हजारों साल तक नुकसान भुगतना पड़ेगा। गांधी सत्ता में आते ही हट गए। सत्ता दूसरे लोगों के हाथ में गई। जिनके हाथ में सत्ता गई, वे गांधी जैसे लोग नहीं थे।

इसे पढ़कर याद आया हमारे टीचर कहा करते थे, 'भावनाओं को साहसी पुरुषों के ह्रदय में होना चाहिए वरना वे संवेंद्नाए बन कर ही रह जाती हैं।' वक्त बदल गया है। हम उतनी ही ईमानदारी रखते हैं जितनी  अफोर्ड की जा सके। हम समझदार लोग हैं, पढ़ाई लिखाई को टूल की तरह इस्तेमाल करते हैं। पढ़-लिख  कर अपनी चालाकिया पैनी करते हैं।

अन्ना के पिछले आन्दोलन की परिणीति से इसके आलोचक बेहद प्रसन्न हैं, पर कहीं न कहीं वे यह भी नहीं भूले कि ऐसे जनांदोलन की 'सडन डेथ' लोकतंत्र को और अधिक जवाबदेही और पारदर्शी बनाने की प्रक्रिया को न केवल 'हॉल्ट' करती है, बल्कि सत्ता ओर वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था के इसी अहंकारी, अक्षम स्वरूप को इसी तरह बनाए रखने की जमीन तैयार करती है। अलबत्ता इस आन्दोलन के समानांतर कुछ प्रश्न पैदा करती है कि आने वाले समय में इस देश में किसी भी सुधार की गुंजाइश या ऐसे जनांदोलन तभी सफल होंगे जब वे अलग-अलग वाद / विचारधारा के अपने-अपने पालों में कैद बुद्धिजीवियों द्वारा कुछ तय मानकों को पूरा करेंगे? फलां फलां लोगों के विरोध में खड़े होंगे? या सुपर रिन की सफेदी से भी सफेद नैतिकता वाला कोई सर्वमान्य लीडर ऐसे किसी आन्दोलन की अगुआई करेगा?

जिस तरह से देश के कानून मंत्री, दूसरे मंत्री विपक्ष के अध्यक्ष बिहेव कर रहे हैं, सोच रहा था इस देश को चलाने वाले लोग कैसे हैं? विपक्ष कैसा है? उनकी सोच कैसी है? उस देश में जिसके पढ़े-लिखे लोगों से अमेरिका तक को डर लगता है कि इस देश का ब्रेन वहां के लोगों की नौकरी खा जाएगा और यहां इतने पढ़े-लिखे काबिल लोगों को कौन लोग गवर्न कर रहे हैं। कुछ याद आता है...

'आज़ादी हिंदुस्तान को मिल रही है कांग्रेस को नहीं! मंत्रीमंडल के गठन में सबसे काबिल लोगों को जगह मिलनी चाहिए,चाहे वे किसी भी पार्टी के हों'- गांधी ने कभी कांग्रेस के नेताओं को कहा था।

(इसलिए 15 अगस्त 1947 को स्वंतत्रता समारोह में तीन ऐसे अतिथि थे जो जन्मजात कांग्रेस विरोधी रहे थे, पर बेहद उच्च कोटि के विद्वान और अलग-अलग मामलों के जानकार थे। के आर के शन्मुख शेट्टी, डॉ आंबेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी। आज़ाद हिन्दुस्तान का पहला मंत्री मंडल राजनैतिक चरित्र का नहीं, बल्कि राष्ट्रिय चरित्र का था।)

भारत गांधी के बाद रामचंद्र गुहा की किताब से .
इस देश में "निष्क्रिय ईमानदारो' की पूरी फ़ौज है उसमें मैं भी शामिल हूं, पर निष्क्रिय ईमानदारी ने सक्रिय बईमानी से ज्यादा इस देश का अहित किया है। देखता हूं, कई पढ़े-लिखे इस देश के अखबारों में छपने वाले, किताब लिखने वाले, केजरीवाल पर जब ये सवाल उठाते है तो हैरान होता हूं के इस वक़्त ऐसे सवाल क्यों? देश भक्ति सिर्फ बॉर्डर पर बन्दूक लेकर खड़े होने में नहीं है। देशभक्ति या अच्छे इंसान का मतलब अपने पूर्वाग्रहों, जात /वाद /धर्म से, अपने भीतर के स्वार्थ से 'आज़ाद' होना भी है। देशभक्ति का एक मतलब 'मैं ओर मेरे परिवार' से बाहर इस देश और समाज को कुछ सकरात्मक वापस देना भी है। लोग कहते हैं केजरीवाल राजनीती कर रहे हैं, तो करने दीजिए। पहले तो हम शोर मचाते है कि अच्छे लोग पॉलिटिक्स में नहीं हैं, फिर जब अच्छे लोग आते हैं तब हमें परेशानी होती है! आखिर वे राजनीती में भी तो वाजिब सवालों को केंद्र में ला रहे हैं। क्या गांधी राजनीती नहीं करते थे? ये इस देश का सबसे बुरा दौर है जब आम आदमी के पास चुनने के लिए विकल्प नहीं है। अच्छे चरित्र राजनीती से विलुप्त हो चुके हैं। इक्के-दुक्के लोग हैं जिनकी आवाजें सामूहिक स्वर नहीं बन पाती और समाज सेल्फ सेंटर्ड सोसायटी में तब्दील हो रहा है। लालू, मुलायम, मायावती, करूणानिधि, मनीष तिवारी, बेनीप्रसाद वर्मा, गडकरी, सिब्बल, राजा भैय्या, अतीक अहमद, सलमान खुर्शीद, चौटाला, येदुरप्पा, वीरभद्र सिंह, शरद पवार, बाल ठाकरे... दिल पर हाथ रखिए और बताइए आप इनमें से एक को भी ईमानदार और ऐसा बुद्धिमान व्यक्ति मानते हैं, जो इस देश की पॉलिसी बनाने वाले लोगों के समूह में जगह बनाने के लिए योग्य है? कोई भी राजनैतिक पार्टी आरटीआई ऐक्ट में पार्टी के फंड को नहीं लाना चाहता ऐसा क्यों?

यदि गौर से देखें तो पिछली बार का जन आन्दोलन अपना काम कर चुका था। जन दबाव के कारण तमाम अड्चनों के बावजूद लोकपाल लोकसभा के पटल पर बहस के लिए आ गया था। लोकसभा में भी लोकपाल बिल पास नहीं हो पाया था। अपने स्वार्थ के कारण सब कजुट हो गए थे, तो फिर?? क्या आपको नहीं लगता राजनीति से बाहर रहकर इस देश में आप अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकते? एक जगह आसपास सटे पांच गांव थे, उन सब में साहूकारों का अलग-अलग समूह था। आहिस्ता आहिस्ता सारे किसानों की जमीनें उनके कब्जे में आ गईं। कोई भी आदमी उन साहूकारों की चोरी पकड़ता तो साहूकार बड़े तरीके से अलग-अलग चीज़े उठा कर उस पर प्रश्न उठा देते। मसलन, पकड़ने वाला हिन्दू होता तो मुसलमान उसे सपोर्ट नहीं करते, मुसलमान होता तो हिन्दू उसे सपोर्ट नहीं करते, पंडित होता तो राजपूत ऐतराज करते, गुजर होता तो बनिए। वे गांव कभी साहूकारों से आज़ाद नहीं हो पाए। हम वही कर रहे हैं। अजीब बात है न हम चोर को पकड़ने वाले का कैरक्टर सर्टिफिकेट मांग रहे हैं?

अरविन्द केजरीवाल महत्वपूर्ण नहीं है। हो सकता है कल वे भी इस सिस्टम का एक हिस्सा बन जाए पर आज महत्वपूर्ण वे विचार हैं जिन्हें लेकर वह चल रहे हैं। यानी राजनीति में उन आवश्यक अनुपस्थित प्रश्नों को केंद्र में लाना जो किसी लोकतंत्र की रीढ़ हैं। मैं कहता हूं वह राजनैतिक तौर पर असफल हो जाएं तो भी कोई बात नहीं, पर अगर वह राजनैतिक पार्टियों में उम्मीदवार के चयन को लेकर योग्यता, गैर अपराधीकरण और शिक्षा को प्राथमिकता पर लाते हैं, बजाय जात / पैसे /धर्म के और राजनैतिक पार्टियों को जनदबाव के कारण ही सही और जवाबदेही व पारदर्शी बना देते हैं तो वह लगभग अपना काम पूरा कर देते हैं।

खेमका और केजरीवाल जैसे लोगों को साहस दीजिए। वेंटिलेटर पर पड़े बरसों से इस देश को वही ओक्सीजन की छोटी सी सप्लाई कर रहे हैं। वरना उन्हें सार्वजनिक चौराहों पर फांसी दे दीजिए। याद रखिए, यदि लेखों कविताओं से क्रान्ति आनी होती तो भात्वासी पूरे विश्व में सोने जैसे चरित्र वाले होते।

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