Skip to main content

मेरा देश सड़ गया है, मेरे देश की आत्मा सड़ गई है। यह कहते हुए उनकी मृत्यु हुई। डॉ. राममनोहर लोहिया !


सत्ताईसवां प्रवचन
गांधी पर पुनर्विचार

मेरे प्रिय आत्मन्!
डॉ. राममनोहर लोहिया मरणशय्या पर पड़े थे। मृत्यु और जीवन के बीच झूलती उनकी चेतना जब भी होश में आती तो वह बार-बार एक ही बात दोहराते। बेहोशी में, मरते क्षणों में वे बार-बार यह कहते सुने गए। मेरा देश सड़ गया है, मेरे देश की आत्मा सड़ गई है। यह कहते हुए उनकी मृत्यु हुई। पता नहीं उस मरते हुए आदमी की बात आप तक पहुंची है या नहीं पहुंची। लेकिन राममनोहर लोहिया जैसे विचारशील व्यक्ति को यह कहते हुए मरना पड़े कि मेरा देश सड़ गया, मेरे देश की आत्मा सड़ गई है, तो कुछ विचारणीय है।
क्यों सड़ गई है देश की आत्मा? किसी देश की आत्मा सड़ कैसे जाती है? जिस देश में विचार बंद हो जाता है उस देश की आत्मा सड़ जाती है। जीवन का प्रवाह है, विचार का प्रवाह है।
और जीवन का प्रवाह जब रुक जाता है, विचार का प्रवाह जब रुक जाता है, तो जैसे कोई सरिता रुक जाए और डबरा बन जाए, फिर वह सागर तक तो नहीं जाती, डबरा बन कर सड़ती है, गंदी होती है, सूखती है। कीचड़ और दलदल पैदा होता है। इस देश में विचार की सरिता रुक कर डबरा बन गई है। हमने विचार करना बंद कर दिया है। हम तो विचार से भयभीत हो गए हैं, ऐसा प्रतीत होता है। ऐसा लगता है कि विचार से हमारे भीतर कोई डर पैदा हो गया है। हम विश्वास की बात करते हैं, विचार की जरा भी बात नहीं करते।
विचार करने में भय क्या हो सकता है? विचार करने से इतना डरने की, इतना कंपने की बात क्या है? गांधी वर्ष-शताब्दी चलती है। मैंने पिछले दो अक्टूबर को कुछ मित्रों को यह कहा कि यह वर्ष बड़े मौके का है। इस पूरे वर्ष गांधी पर विचार किया जाए तो अच्छा है। क्योंकि गांधी से बड़ा व्यक्ति संभवतः भारत के इतिहास में खोजना मुश्किल है। संन्यासी हुए हैं बहुत बड़े, त्यागी हुए हैं बहुत बड़े, धर्मात्मा हुए हैं बहुत बड़े, लेकिन धार्मिक और आध्यात्मिक व्यक्ति जीवन के बीच खड़े रहे हों, जीवन के संघर्ष में लड़े हों, राजनीति से भाग न गए हों, ऐसे गांधी अकेले आदमी हैं। ऐसे महत्वपूर्ण व्यक्ति पर क्या हम विचार नहीं करेंगे? मेरे मित्रों ने कहा, विचार तो बहुत होगा--सभाएं होंगी, प्रवचन होंगे, पुस्तकें छपेंगी, करोड़ों रुपया खर्च किया जाएगा। मैंने उनसे कहा, उसमें विचार जरा भी नहीं होगा सिवाय प्रशंसा के।
प्रशंसा विचार नहीं है। न ही निंदा विचार है, न प्रशंसा विचार है। मित्र और भक्त प्रशंसा करते हैं, शत्रु और दुश्मन निंदा करते हैं; लेकिन न शत्रु विचार करते हैं, न मित्र विचार करते हैं। विचार निंदा और प्रशंसा से भिन्न बात है। विचार है तटस्थ आलोचना, विचार है सृजनात्मक आलोचना, विचार है क्रिएटिव क्रिटीसिज्म। निंदा का तो कोई सवाल ही नहीं है। प्रशंसा चलेगी वर्ष भर तक। प्रशंसा से क्या हित होगा? हमारा या गांधी का, किसका? गांधी की कितनी ही हम प्रशंसा करें, उन्हें और बड़ा नहीं बना सकते हैं। गांधी की हम कितनी ही निंदा करें, उन्हें हम छोटा नहीं बना सकते हैं। गांधी की निंदा से हम बड़े नहीं हो जाएंगे और न गांधी की प्रशंसा से हमारी आत्मा को कोई लाभ होने वाला है।
लेकिन गांधी पर अगर विचार हो तो इस देश की आत्मा को गति मिल सकती है। लेकिन विचार करने को राजी नहीं है। मैंने कुछ बातें कहीं कि उन मुद्दों पर गांधी पर विचार होना चाहिए तो बंबई के पत्रकारों ने उन्हें इस तरह गलत और विकृत करके छापा कि जब मैं महीने बाद बंबई पहुंचा तो मैं तो हैरान रह गया।
मुझे उन पत्रों को देख कर एक बात याद आई। वेटिकन का पोप अमेरिका गया था। न्यूयार्क के हवाई अड्डे पर उतरने के पहले उसके मित्रों ने उससे कहा, और तो सब ठीक है, पत्रकारों से सावधान रहना। अगर वे कुछ पूछें तो बहुत सोच-समझ कर उत्तर देना। वेटिकन के पोप ने कहा, सोच-समझ कर उत्तर देने का क्या मतलब! तो उनके साथियों ने कहा, जहां तक बने, हां और न में उत्तर मत देना। जहां तक बन सके प्रश्न से बचने की कोशिश करना--जैसा कि राजनीतिज्ञ हमेशा करते हैं, राजनीतिज्ञ सभी हां और न में उत्तर नहीं देते। क्योंकि हां और न में पीछे कमिटमेंट होता है, झंझट हो सकती है। राजनीतिज्ञ ऐसा उत्तर देता है कि जब जैसी जरूरत पड़ जाए वैसा उससे अर्थ निकाला जा सके। वह गोल-मोल उत्तर देता है।
तो वेटिकन के पोप के मित्रों ने कहा कि आप गोल-मोल उत्तर देना। ऐसा कुछ उत्तर देना कि जो भी मतलब पीछे चाहे निकाला जा सके। या अगर कुछ समझ न पड़े तो बचने की कोशिश करना। जैसे ही हवाई अड्डे पर पोप उतरा, पत्रकारों ने उसे घेर लिया। और उन पत्रकारों ने पहला प्रश्न जो पूछा पोप से, वह यह पूछा कि वुड यू लाइक टू विजिट ए न्यूडिस्ट क्लब इन न्यूयार्क? क्या आप कोई नंगे लोगों का क्लब देखना पसंद करेंगे, जब तक आप न्यूयार्क में हैं?
वेटिकन का पोप समझा कि आई झंझट। अगर मैं हां कहूं तो वे कहेंगे वेटिकन का पोप अमेरिका की नंगी औरतें और नंगे लोगों को देखने आया हुआ है। अगर मैं कहूं कि नहीं मैं नहीं देखना चाहता, तो कहेंगे, वेटिकन के पोप इतने डरते हैं नंगी औरत और नंगे आदमी को देखने से, तो जरूर कोई मामला होना चाहिए। तो वेटिकन के पोप ने कहा कि कुछ ठीक सीधा-सीधा उत्तर देना उचित नहीं है, घबड़ाहट में उसने दूसरा ही प्रश्न पूछ लिया। उसने यह पूछा कि इज़ देयर ऐनी न्यूडिस्ट क्लब इन न्यूयार्क? कोई नंगे लोगों का क्लब है न्यूयार्क में? ताकि सीधा कुछ कहना न पड़े। फिर बात टल गई। वह बड़ा खुश हुआ। लेकिन दूसरे दिन अखबारों के मुखपृष्ठ पर बड़े-बड़े अक्षरों में क्या छपा था? छपा था कि महामहिम, परम पूज्य पोप ने हवाई अड्डे पर उतरते ही जो पहला प्रश्न पत्रकारों से पूछा वह यह है कि "इज़ देयर ऐनी न्यूडिस्ट क्लब इन न्यूयार्क?' आते ही अड्डे पर पहली बात वे महापुरुष यही पूछने लगे कि नंगे लोगों का कोई क्लब है न्यूयार्क में?
पत्रकारों से मैंने गांधी के संबंध में जो बातें कहीं, बंबई लौट कर मुझको पता चला कि वेटिकन के पोप को जैसा अनुभव हुआ होगा। वह कैसा अनुभव हुआ होगा, मेरी बातों को इतना ही बिगाड़ कर, तोड़-मरोड़ कर प्रसंग के बाहर उपस्थित किया। उसका जोर से प्रचार किया। मैं हैरान हुआ कि इसके पीछे क्या कारण हो सकता है? अभी जब गुजरात गया तो पता चला। मोरारजी देसाई, ढेबर भाई, काका कालेलकर, स्वामी आनंद जैसे प्रतिष्ठित लोगों ने भी मेरे विरोध में वहां भाषण दिए। तब मेरी समझ में आया कि गांधी के संबंध में विचार करने में गांधीवादी को डर है। गांधी को डर नहीं है, क्योंकि गांधी पर विचार अंततः गांधीवाद पर विचार बन जाएगा। गांधीवादी घबड़ाता है, उस पर विचार नहीं किया जाना चाहिए। क्योंकि उसके बीस वर्ष का इतिहास बहुत कालिख से भरा है और अंधेरे से भरा हुआ है। सफेद कपड़ों के भीतर काले आदमी की कहानी है बीस वर्षों की। और अगर गांधी पर विचार शुरू हुआ तो वह विचार रुकेगा नहीं, वह गांधीवादी पर पहुंच जाएगा। तब मुझे समझ में आया कि गांधीवादी पत्र इतने जोर से इस बात को क्यों विरोध में प्रचार किए हैं?
और मैंने कहा क्या था? मैंने यह कहा था कि जो समाज अपने महापुरुष की आलोचना नहीं करता वह समाज शायद डरता है कि उसके महापुरुष बहुत छोटे हैं। आलोचना में पिघल जाएंगे, बह जाएंगे। इतनी घबड़ाहट एक ही बात का सबूत है। अगर हम एक मिट्टी का पुतला पानी में बना कर खड़ा कर दें तो वर्षा से डरेंगे क्योंकि उसके रंग-रोगन के बह जाने का डर है। लेकिन प्रस्तर की, संगमरमर की प्रतिमाएं तो वर्षा में खड़ी रहती हैं। उनका कुछ बहता नहीं। वर्षा आती है तो और उनकी धूल बह जाती है और प्रतिमाएं और स्वच्छ होकर निखर जाती हैं।
मेरी दृष्टि में महापुरुष पर जब भी आलोचना की वर्षा होती है तो महापुरुष और निखर कर प्रकट होता है, लेकिन छोटे लोग जरूर बह जाते हैं। उनके पास ऐसा कुछ नहीं है जो आलोचना की वर्षा में टिक सके। गांधी को तो कोई भय नहीं हो सकता है आलोचना से, लेकिन गांधीवादी को बहुत भय है। गांधीवादी छोटा आदमी है, जो बड़े आदमी की आड़ में बड़े होने की कोशिश में लगा है। उसे डर है। वह अपने ही ढंग से सोचता है। उसे यह भय है कि जैसा छोटा मैं आदमी हूं, गांधी की आलोचना गांधी को कोई नुकसान न पहुंचा दे।
मेरी दृष्टि में गांधी इतने बड़े व्यक्ति हैं कि आलोचना से उनका कोई भी अहित होने का नहीं है। बल्कि, उनकी स्पष्ट आलोचना गांधी के रूप को हमारी आंखों के सामने प्रकट करने मैं ज्यादा सफल हो सकेगी। उनकी कोई प्रशंसा हमारे प्राणों तक उन्हें नहीं पहुंचाएगी, लेकिन उनका सृजनात्मक विचार हमारे प्राणों में उन्हें पुनरुज्जीवित कर सकता है। और मेरी दृष्टि में, कोई महापुरुष ऐसा नहीं होता कि उससे भूलें न होती हों। हां, महापुरुष छोटी भूलें नहीं करते हैं, महापुरुष बड़ी भूलें करते हैं अपने अनुपात से। वे जितने बड़े होते हैं, उतने ही बड़े काम करते हैं--चाहे भूल करें और चाहे ठीक करें। महापुरुष छोटी भूलें नहीं करते, छोटे काम ही नहीं करते हैं। और इसलिए महापुरुष की भूल को देख पाना बड़ा कठिन हो जाता है क्योंकि हम उतनी आंख खोलें, विचार करें, तभी हमें दिखाई पड़ सकता है। लेकिन अगर हम न देखें तो हम उन भूलों को बार-बार दोहराए जा सकते हैं।
उन्नीस सौ बीस के बाद गांधी के सामने एक सवाल था। सवाल था कि देश एक कैसे हो, एकता कैसे हो। और गांधी ने देश की एकता के लिए एक नारा दिया--हिंदू-मुस्लिम एकता का, हिंदू-मुस्लिम यूनिटी का। बड़ी भूल हो गई। हिंदुस्तान में ईसाई भी रहते हैं, जैन भी रहते हैं, बौद्ध भी रहते हैं, पारसी भी रहते हैं, आदिवासी भी रहते हैं, सिक्ख भी रहते हैं, लेकिन गांधी ने नारा दिया--हिंदू-मुस्लिम एकता, हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई। गांधी से बुनियादी भूल हो गई। जैसे ही गांधी ने यह कहा, हिंदू-मुस्लिम एकता, वैसे मुसलमान और हिंदू को अतिरिक्त महत्व मिल गया जो खतरनाक सिद्ध हुआ। और मुसलमान को भी यह दिखाई पड़ गया कि मेरी एकता ही असली बात है। अगर मैं एक होने को राजी नहीं तो हिंदुस्तान कुछ भी नहीं कर सकता। अगर गांधी ने कहा होता भारतीय एकता...हिंदू-मुस्लिम एकता बहुत दुर्भाग्यपूर्ण चुनाव था। वह शब्द बहुत खतरनाक था। उसी शब्द के बीज ने पाकिस्तान का रूप लिया। वही शब्द विकसित हुआ और पाकिस्तान तक पहुंच गया। मुसलमान को सेल्फ कांशस कर दिया गांधी ने। हिंदू को भी सेल्फ कांशस कर दिया। गांधी ने दोनों को यह चेतना दे दी कि हमीं सब कुछ हैं, हिंदू-मुसलमान ही भारत है। हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई; मुसलमान और हिंदू को लगा कि हम ही हैं, हमारे ऊपर सब कुछ निर्भर है। और मुसलमान को यह चेतना स्पष्ट यह अनुभव करा गई कि अगर वह साथ खड़ा नहीं होता है तो भारत की एकता नहीं बन सकती है। आखिर इसी समझौते पर हिंदुस्तान की आत्मा विभाजित हुई। हिंदुस्तान दो टुकड़ों में टूटा। शायद हजारों वर्ष लग जाएंगे हिंदुस्तान को अपने शरीर को फिर एक बनाने में--शायद न भी बना पाए।
लेकिन एक छोटी सी भूल--शब्दों का चुनाव। लेकिन गांधी से भूल हुई तो पीछे कारण था। गांधी यद्यपि मानते थे कि सारे धर्म समान हैं, सारे धर्म बराबर मूल्य के हैं, लेकिन फिर भी गांधी के मन से यह भ्रम कभी नहीं मिटा कि मैं हिंदू हूं। वह यह हमेशा कहते रहे कि मैं हिंदू हूं। काश, गांधी इतनी हिम्मत और कर लेते और कह सकते कि मैं सिर्फ मनुष्य हूं; न मैं हिंदू हूं, न मैं मुसलमान हूं, तो हिंदुस्तान का विभाजन कभी भी नहीं हो सकता था। लेकिन गांधी का यह खयाल कि मैं हिंदू हूं, जिन्ना को मुसलमान, और मुसलमान, और मुसलमान बनाता चला गया। पता है आपको, गांधी की मृत्यु पर जिन्ना ने जो ट्रिब्यूट दी, जो संवेदना प्रकट की, उसमें क्या कहा? कहा, गांधी वाज़ ए ग्रेट हिंदू लीडर। गांधी एक बड़े हिंदू नेता थे। लेकिन हिंदू नेता कहना जिन्ना नहीं भूला।
गांधी भी मरने के पहले वसीयत किए कि मेरी लाश को न बचाया जाए, क्योंकि लाश को बचाना ईसाइयत का रास्ता है। मैं हिंदू ढंग से संस्कार चाहता हूं। मरने के बाद भी शरीर को हिंदू ढंग का संस्कार चाहते हैं। गांधी के मन से हिंदू का भाव नहीं जा सका। गांधी अदभुत व्यक्ति थे, लेकिन कहीं एक हिंदू की पकड़ एक कोने पर बैठी रह गई और वह कोने की पकड़ सारे हिंदुस्तान के लिए घातक सिद्ध हुई। कोई छोटा-मोटा आदमी, मेरे जैसा कोई व्यक्ति अगर अपने को हिंदू और मुसलमान मानता रहता को कोई नुकसान नहीं हो सकता था। गांधी जैसे व्यक्ति, जो कि सारे मुल्क की आत्मा के प्रतिनिधि थे, उनको यह खयाल होना कि मैं हिंदू हूं, खतरनाक है। बहुत महंगा पड़ गया। लेकिन इसे सोचना जरूरी है ताकि यह भूल आगे बार-बार न दोहराई जाए। यह भूल बार-बार दोहराई जा सकती है।
हिंदुस्तान को ऐसे नेतृत्व की जरूरत है जो न हिंदू हो, न मुसलमान हो, न जैन हो, न ईसाई हो। हिंदुस्तान को एक ऐसे नेतृत्व की जरूरत है जिसका हिंदी से आग्रह न हो, तमिल पर आग्रह न हो, बंगाली पर आग्रह न हो। नहीं तो फिर यह भूल दोहरेगी, यह हिंदुस्तान और दस टुकड़ों में टूट सकता है। जैसे कल हिंदू-मुसलमान ने तोड़ दिया था, आने वाले दस-पच्चीस वर्षों में हिंदी और गैर-हिंदी टूट सकते हैं। लेकिन गांधी की भूल पर विचार कर लेने से यह खयाल में आ सकता है कि यह भूल फिर न दोहरा दी जाए।
गांधी ने कहा, हिंदू-मुसलमान भाई-भाई। फिर हम आजाद हुए, और हमने एक नारा लगाया, हिंदी-चीनी भाई-भाई। हम फिर वही भूल दोहरा रहे हैं। एशिया में बर्मी नहीं रहते? जापानी नहीं रहते? कोरियन नहीं रहते? एशिया में सिलोनी नहीं रहते? एशिया में थाई नहीं रहते? एशिया में सिर्फ हिंदी और चीनी रहते हैं? वही बेवकूफी, जो हिंदू-मुसलमान के साथ हुई थी, वही बेवकूफी हमने फिर दोहराई--हिंदी-चीनी भाई-भाई। चीन समझ गया कि जैसे ये मुसलमान से डरते थे, अब हमसे डरना इन्होंने शुरू कर दिया। यह समझने में देर न थी।
हम जिससे डरते हैं उसी को भाई-भाई कहते हैं। जिससे हम नहीं डरते उसकी हम बात ही नहीं करते। यह हमारे फियर का, हमारे भय का सबूत हो गया है। हम जिससे डरेंगे उसी को कहेंगे, हम आप तो भाई-भाई हैं। लेकिन जिसको हम भाई कहते हैं, वह समझ जाता है कि भाई हम किसको कहते हैं। गलती जो मुसलमान के साथ हुई वही गलती चीन के साथ हुई। एशिया में हमने दो दुश्मन खड़े किए--एक पाकिस्तान और एक चीन; और दोनों को हमने भाई-भाई कहा था। यह भाई-भाई कि फिलासफी में कहीं कोई बुनियादी भूल है। और इस फिलासफी के लिए गांधी जिम्मेवार हैं।
तो मैंने पत्रकारों को कहा था कि हमें सोचना चाहिए। गांधी इतने बड़े व्यक्ति हैं कि उनकी छोटी सी भूल भी बहुत बड़ी भूल सिद्ध हो सकती है। हजारों साल के लिए प्रभावित कर सकती है। हिंदुस्तान को एक नेतृत्व चाहिए अब, जो न हिंदू हो, न मुसलमान हो, न जैन हो, न जो बंगाली हो, न मद्रासी हो, न उत्तरप्रदेशीय हो। हिंदुस्तान को नेतृत्व चाहिए जो हिंदीभाषी न हो, जो तमिलभाषी न हो, जो यह दावा न करता हो कि हिंदी ही, जो यह दावा न करता हो कि अंग्रेजी ही--जो दावा पूरे मुल्क का विचार करके करता हो, किसी एक हिस्से का विचार न करता हो। क्योंकि एक हिस्से के विचार ने हिंदुस्तान के दो टुकड़े करवाए। अब और इस तरह के विचार हिंदुस्तान को सौ टुकड़ों में तोड़ डाल सकते हैं, और हिंदुस्तान करीब-करीब टूट गया है। मुश्किल है इस जोड़ को बिठाना। इस जोड़ को बिठाना बहुत मुश्किल साबित होगा। भाषावार प्रांत तोड़ दिए। पूरे हिंदुस्तान की हमने कोई फिकर न की, एक-एक भाषावार प्रांत की फिकर की। अब महंगा हो गया मामला। अब एक-एक भाषावार प्रांत एक-एक पाकिस्तान सिद्ध हो सकता है।
जो हो गया, वह सवाल नहीं है, आगे फिर यह पुनरुक्ति रोज-रोज होती चली जाएगी। पीछे लौट कर देखना जरूरी है। गांधी के पचास वर्षों की कहानी इस हिंदुस्तान के लिए हजारों वर्ष तक मूल्यवान रहेगी। उस पचास वर्ष में हमें गौर करके देख लेना जरूरी है कि हमने क्या भूलें दोहराईं, हमने कौन सी गलतियां कीं जो कि आगे हमसे न हों। फिर यह भी जानना जरूरी है कि कोई कितना ही बड़ा महापुरुष हो, दुनिया में कोई पूर्ण पुरुष न हुआ हो, न हो सकता है। सच तो यह है कि जो पूर्ण हो जाते हैं वे मोक्ष चले जाते हैं, शायद वे दुनिया में वापस नहीं आते हैं। दुनिया में जो आता है वह अपूर्ण होता है, इसीलिए आता है। अपूर्ण पुरुष--महान से महान व्यक्ति भी अपूर्ण ही होता है। उसकी अपूर्णता पर ध्यान न हो, और हम पूर मनुष्य को स्वीकार कर लें तो हम महंगाइयों में भी पड़ सकते हैं। बहुत महंगा सौदा हो सकता है।
गांधी के कुछ अपने फैक्ट हैं, गांधी के कुछ अपने रुझान थे। सभी महापुरुषों के होते हैं। माक्र्स जितनी देर किताब लिखता है उतनी देर मुंह में सिगरेट पीता रहता है। लेकिन माक्र्स कितना ही बड़ा आदमी हो, उसका सिगरेट पीना बड़ा नहीं हो सकता है। और किसी को माक्र्सवादी होना हो तो चौबीस घंटे सिगरेट पीने की जरूरत नहीं है। लेकिन कम्युनिस्ट सिगरेट पीते हैं, शायद इसी खयाल से पीते हों कि माक्र्स बहुत सिगरेट पीता था। कहते हैं, माक्र्स ने अपनी "कैपिटल' नाम की किताब लिखी तो जितनी सिगरेट पी डालीं, कैपिटल के बिकने पर उतने सिगरेट के दाम भी नहीं आए। लेकिन सिगरेट पीना माक्र्स की अपनी व्यक्तिगत रुझान हो सकती है। इसका कोई अनुकरण करने की जरूरत नहीं है।
गांधी के बहुत से व्यक्तिगत रुझान थे जो गांधीवादी फिलासफी का हिस्सा बन गया है। जैसे, गांधी को हाथ से काती गई चीजों से बड़ा प्रेम था। इसमें कोई हर्जा नहीं है। किसी आदमी के हो सकता है। किसी आदमी को हाथ से काती गई चीज पसंद हो सकती है, इसमें कोई भी हर्जा नहीं है। लेकिन आने वाली दुनिया में चरखे और तकली को बहुत मूल्य देना आत्मघाती है, स्युसाइडल है। मुल्क मर जाएगा। दुनिया विकसित हो रही है विराट से विराट टेक्नालाजी की तरफ, तकनीक की तरफ। और हम जो बातें कर रहे हैं वह पांच हजार साल पिछले जमाने की बातें हैं। पांच हजार साल पहले तकली और चरखा ईजाद हुए होंगे। तब वे सबसे बड़े यंत्र थे, अब वे सबसे बड़े यंत्र नहीं हैं। और एक आदमी अगर अपने लिए साल भर का कपड़ा भी बनाना चाहे तो कम से कम दिन में तीन-चार घंटे चरखा कातना पड़ेगा। तब कहीं अपने लायक पूरा कपड़ा एक आदमी तैयार कर सकता है।
एक आदमी की जिंदगी का रोज चार घंटे का हिस्सा उसके कपड़े पर खर्च करवा देना निहायत अन्याय है। क्योंकि हमें शायद पता नहीं, अगर एक आदमी को साठ साल जीना है तो बीस साल तो सोने में गुजर जाते हैं। रोज आठ घंटे आदमी सो जाता है। बीस साल तो नींद में चले जाते हैं। खाने में, कमाने में और बीस साल चले जाते हैं। बीस साल बचते हैं आदमी के पास मुश्किल से। उसमें कुछ बचपन का हिस्सा निकल जाता है, कुछ बुढ़ापे का हिस्सा निकल जाता है। अगर हम एक आदमी के पास देखें तो मुश्किल से जीने के लिए जिसको हम कहें--ठीक से जीने के लिए पूर्ण सुविधा का समय, पूरे जीवन में साठ साल के, पांच साल से ज्यादा नहीं होता है एक आदमी के पास। इस पांच साल के लिए उससे कहो कि चप्पल भी तुम अपनी बनाओ, कपड़ा भी तुम अपना बनाओ, खाना भी तुम अपना बनाओ, गेहूं भी अपना पैदा कर लो, स्वावलंबी हो जाओ--आदमी की हत्या करने के सुझाव देना है।
मुझे यह स्वीकार्य नहीं मालूम होता। मेरी समझ यह है कि आज तक जगत में संस्कृति, धर्म, काव्य, चित्र, म्यूजिक, संगीत जो भी पैदा हुआ है वह उन लोगों से पैदा हुआ है जो लेजर में थे, जो विश्राम में थे। जिसका चौबीस घंटे काम में व्यतीत हो जाता है, उससे न संगीत पैदा होता है, न काव्य पैदा होता है, न संस्कृति पैदा होती है, न धर्म पैदा होता है। अब तक जगत में जो भी श्रेष्ठतम विकास हुआ है मनुष्य-संस्कृति का, वह विश्राम के क्षणों में हुआ है। वे ही कौमें और वे ही युग संस्कृति को जन्म देते हैं जो विश्राम में होते हैं। जैसे--एथेंस ने सुकरात को, प्लेटो को, अरस्तू को जन्म दिया, क्योंकि एथेंस बहुत संपन्न था और सारा काम गुलाम कर रहे थे। ऊपर का वर्ग कोई भी काम नहीं कर रहा था। इसलिए अरस्तू पैदा हुआ, सुकरात पैदा हुआ, प्लेटो पैदा हुआ। हिंदुस्तान ने बुद्ध महावीर जैसे लोग पैदा किए, कृष्ण और राम जैसे, ये सब लेजरली क्लास के लोग थे। ये सब अभिजात्य वर्ग के लोग थे जिनके ऊपर कोई काम नहीं था।.  कृ. म. श.

Comments

Popular posts from this blog

पहले सेक्स की कहानी, महिलाओं की जुबानी.

क्या मर्द और क्या औरत, सभी की उत्सुकता इस बात को लेकर होती है कि पहली बार सेक्स कैसे हुआ और इसकी अनुभूति कैसी रही। ...हालांकि इस मामले में महिलाओं को लेकर उत्सुकता ज्यादा होती है क्योंकि उनके साथ 'कौमार्य' जैसी विशेषता जुड़ी होती है। दक्षिण एशिया के देशों में तो इसे बहुत अहमियत दी जाती है। इस मामले में पश्चिम के देश बहुत उदार हैं। वहां न सिर्फ पुरुष बल्कि महिलाओं के लिए भी कौमार्य अधिक मायने नहीं रखता।                                                        महिला ने कहा- मैं चाहती थी कि एक बार यह भी करके देख लिया जाए और जब तक मैंने सेक्स नहीं किया था तब तो सब कुछ ठीक था। पहली बार सेक्स करते समय मैं बस इतना ही सोच सकी- 'हे भगवान, कितनी खु‍शकिस्मती की बात है कि मुझे फिर कभी ऐसा नहीं करना पड़ेगा।' उनका यह भी कहना था कि इसमें कोई भी तकलीफ नहीं हुई, लेकिन इसमें कुछ अच्छा भी नहीं था। पहली बार कुछ ठीक नहीं लगा, लेकिन वर्जीनिया की एक महिला का कहन...

Torrent Power Thane Diva Helpline & Customer Care 24x7 No : 02522677099 / 02522286099 !!

Torrent Power Thane Diva Helpline & Customer Care 24x7 No : 02522677099 / 02522286099 बिजली के समस्या के लिये आप Customer Care 24x7 No : 02522677099 / 02522286099 पर अपनी बिजली से सबंधित शिकायत कर सकते है। या Torrent Power ऑफिस जाकर भी अपनी शिकायत दर्ज करा सकते है। या उनके ईमेल id पर भी शिकायत कर सकते हो। To,                            Ass.Manager Torrent Power Ltd चद्ररगन रेसिटेंसी,नियर कल्पतरु जेवर्ल्स,शॉप नंबर-234, दिवा ईस्ट । consumerforum@torrentpower.com connect.ahd@torrentpower.com

Veer Sawarkar BMC Hospital Time Table !! वीर सावरकर सरकारी मुलुंड हॉस्पिटल डॉक्टर का टाइम टेबल !!

       !! Swatantrya veer V.D.Sawarkar !! !! BMC Hospital Veer Savarkar Hospital !! Mahatma Phule Road Hanuman Chowk, Mulund East, Hanuman Chowk, Mulund West, Mumbai, Maharashtra 400081 Open now:    Open 24 hours mcgm.gov.in 022 2163 6225