जिसको हम जन्म-दिन कहते हैं
उसके ठीक नौ महीने पहले
असली जन्म हो चुका
जिसे हम जन्म-दिन कहते हैं,
वह तो मां के शरीर से मुक्त होने का दिन है,
वह तो मां के शरीर से मुक्त होने का दिन है,
जन्म का दिन नहीं नौ महीने तक
सेटेलाइट था आपका शरीर ;
मां के शरीर के साथ घूमता था,
उपग्रह था अभी इतना समर्थ न
था कि स्वयं ग्रह हो सके
इसलिए घूमता था ; सेटेलाइट था
अब इस योग्य हो
अब इस योग्य हो
गया कि मां से मुक्त हो जाए,
अब अलग जीवन शुरू करे
लेकिन जन्म तो उसी दिन हो गया,
जिस दिन गर्भ धारण हुआ है
तो लामाओं ने इस पर और
तो लामाओं ने इस पर और
गहरे प्रयोग किए हैं और नौ महीने
की स्मृतियां भी उठाने में सफल हुए हैं
जब मां क्रोध में होती है,
जब मां क्रोध में होती है,
तब भी बच्चे की पेट में स्मृति बनती है
जब मां दुखी होती है,
तब भी बच्चे की स्मृति बनती है
जब मां बीमार होती है,
तब भी बच्चे की स्मृति बनती है
क्योंकि बच्चे की देह मां की
क्योंकि बच्चे की देह मां की
देह के साथ संयुक्त होती है
और मां के मन और देह
पर जो भी पड़ता है,
वह संस्कारित हो जाता है बच्चे में
इसलिए अक्सर तो माताएं
इसलिए अक्सर तो माताएं
जब बाद में बच्चों के लिए रोती हैं
और पीड़ित और परेशान होती हैं,
उनको शायद पता नहीं कि उसमें
कोई पचास प्रतिशत हिस्सा तो उन्हीं का है,
जो उन्होंने जन्म के पहले ही
जो उन्होंने जन्म के पहले ही
बच्चे को संस्कारित कर दिया है
अगर बच्चा क्रोध कर रहा है,
और गालियां बक रहा है,
और दुखी हो रहा है,
और दुष्टता बरत रहा है,
तो मां सोचती है कि यह कहां से,
कैसे ये सब कहां सीख गया! दिखता है,
कहीं दुष्ट-संग में पड़ गया है।
दुष्ट-संग में बहुत बाद में पड़ा होगा;
दुष्ट-संग में बहुत बाद में पड़ा होगा;
दुष्ट-संग में बहुत पहले नौ महीने तक पड़ चुका है
और नौ महीने बहुत संस्कार संस्कारित हो गए हैं……….
|| ओशो ||
गीता दर्शन–(प्रवचन–020)
|| ओशो ||
गीता दर्शन–(प्रवचन–020)
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