मनुष्य का दुःख
मनुष्य के जीवन में इतना दुख है, इतनी पीड़ा, इतना
तनाव कि ऐसा मालूम पड़ता है कि शायद पशु भी
हमसे ज्यादा आनंद में होंगे, ज्यादा शांति में होंगे।
समुद्र और पृथ्वी भी शायद हमसे ज्यादा प्रफुल्लित
हैं। रद्दी से रद्दी जमीन में भी फूल खिलते हैं। गंदे से गंदे
सागर में भी लहरें आती हैं--खुशी की, आनंद की। लेकिन
मनुष्य के जीवन में न फूल खिलते हैं, न आनंद की कोई लहरें
आती हैं।
मनुष्य के जीवन को क्या हो गया है? यह मनुष्य की
इतनी अशांति और दुख की दशा क्यों है? कहीं ऐसा
तो नहीं है कि मनुष्य जो होने को पैदा हुआ है वही
नहीं हो पाता है, जो पाने को पैदा हुआ है वही नहीं
उपलब्ध कर पाता है, इसीलिए मनुष्य इतना दुखी है?
अगर कोई बीज वृक्ष न बन पाए तो दुखी होगा। अगर
कोई सरिता सागर से न मिल पाए तो दुखी होगी।
कहीं ऐसा तो नहीं है कि मनुष्य जो वृक्ष बनने को है
वह नहीं बन पाता है और जिस सागर से मिलने के लिए
मनुष्य की आत्मा बेचैन है, उस सागर से भी नहीं मिल
पाती है, इसीलिए मनुष्य दुख में हो?
धर्म मनुष्य को उस वृक्ष बनाने की कला का नाम है।
धर्म मनुष्य को सागर से मिलाने की कला का नाम
है--जिस सागर से मिल कर तृप्ति मिलती है, शांति
मिलती है, आनंद मिलता है।
लेकिन धर्म के नाम पर जो जाल खड़ा हुआ है वह मनुष्य
को कहीं ले जाता नहीं, और भटका देता है। धर्म के
नाम पर कितने धर्म हैं दुनिया में? तीन सौ धर्म हैं
दुनिया में! और धर्म तीन सौ कैसे हो सकते हैं? धर्म हो
सकता है तो एक ही हो सकता है। सत्य अनेक कैसे हो
सकते हैं? सत्य होगा तो एक ही होगा। लेकिन एक
सत्य के नाम पर जब तीन सौ संप्रदाय खड़े हो जाते हैं,
तो सत्य की खोज करनी भी मुश्किल हो जाती है।
हिंदू हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं, जैन हैं--और धार्मिक
आदमी कहीं भी नहीं है। धार्मिक आदमी नहीं है
इसलिए इतनी बेचैनी है, इतनी अशांति है, इतना दुख है।
धार्मिक आदमी न होने के दो कारण हैं।
एक छोटी सी कहानी से समझाऊं।
पहला तो कारण यह है कि मनुष्य उन चीजों को बचाने
में जीवन गंवा देता है, जिनके बचाने का अंततः कोई
भी मूल्य नहीं। मनुष्य उस दौड़ में सारे जीवन को लगा
देता है, जिस दौड़ में दौड़ने के बाद भी कहीं पहुंचने की
कोई उम्मीद नहीं।
स्वामी राम जापान गए हुए थे। टोकियो के एक बड़े
रास्ते पर हजारों लोगों की भीड़ थी। राम भी उस
भीड़ में खड़े हो गए। एक मकान में आग लग गई थी। कोई
बहुमूल्य मकान जल रहा था। बड़ा महल, चारों तरफ से
लपटें पकड़ गई थीं। सैकड़ों लोग महल के भीतर से सामान
बाहर ला रहे थे। महल का मालिक खड़ा था--खोया,
बेहोश सा। लोग उसे सम्हाले थे। उसकी कुछ समझ में
नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। जीवन भर उसने
जो कमाया था उसमें आग लग गई थी।
फिर लोग बाहर आए तिजोरियां लेकर, बहुमूल्य
सामान लेकर, किताबें लेकर, कीमती दस्तावेज लेकर
और उन लोगों ने कहा कि अब एक बार और भवन के
भीतर जाया जा सकता है, फिर तो लपटें पूरी तरह
पकड़ लेंगी, फिर भीतर जाना असंभव होगा। हमें जो
भी महत्वपूर्ण मालूम पड़ा, हमने बचा लिया है। अब भी
कोई और चीज खास रह गई हो तो आप हमें बता दें, हम
उसे बचा लाएं।
उस मालिक ने कहा, मुझे कुछ भी न दिखाई पड़ रहा है,
न समझ आ रहा है। तुम एक बार और जाकर भीतर देख
लो, जो भी बचाने जैसा लगे बचा लो।
वे लोग भीतर गए। हर बार सामान लेकर वे खुशी-खुशी
बाहर लौटे थे कि इतनी चीजें बचा लीं। लेकिन अंतिम
बार वे छाती पीटते हुए और रोते हुए लौटे। सारी
भीड़ पूछने लगी कि क्यों रो रहे हो? क्या हो गया?
उन लोगों ने रोते हुए कहा कि बड़ी भूल हो गई, भवन के
मालिक का एक ही बेटा था, वह भीतर सोया था,
हम उसे बचाना ही भूल गए। हमने सारा सामान बचा
लिया, लेकिन सामान का असली मालिक मर गया
है, हम उसकी लाश लेकर आए हैं।
स्वामी राम ने अपनी डायरी में उस दिन लिखा कि
आज जो मैंने देखा है वह अधिकतम मनुष्यों के जीवन में
घटित होता है। लोग व्यर्थ की चीजें बचाने में जीवन
गंवा देते हैं और जीवन का असली मालिक मर ही
जाता है, उसे बचा ही नहीं पाते।
(सौजन्य से – ओशो न्यूज लेटर)
मनुष्य के जीवन में इतना दुख है, इतनी पीड़ा, इतना
तनाव कि ऐसा मालूम पड़ता है कि शायद पशु भी
हमसे ज्यादा आनंद में होंगे, ज्यादा शांति में होंगे।
समुद्र और पृथ्वी भी शायद हमसे ज्यादा प्रफुल्लित
हैं। रद्दी से रद्दी जमीन में भी फूल खिलते हैं। गंदे से गंदे
सागर में भी लहरें आती हैं--खुशी की, आनंद की। लेकिन
मनुष्य के जीवन में न फूल खिलते हैं, न आनंद की कोई लहरें
आती हैं।
मनुष्य के जीवन को क्या हो गया है? यह मनुष्य की
इतनी अशांति और दुख की दशा क्यों है? कहीं ऐसा
तो नहीं है कि मनुष्य जो होने को पैदा हुआ है वही
नहीं हो पाता है, जो पाने को पैदा हुआ है वही नहीं
उपलब्ध कर पाता है, इसीलिए मनुष्य इतना दुखी है?
अगर कोई बीज वृक्ष न बन पाए तो दुखी होगा। अगर
कोई सरिता सागर से न मिल पाए तो दुखी होगी।
कहीं ऐसा तो नहीं है कि मनुष्य जो वृक्ष बनने को है
वह नहीं बन पाता है और जिस सागर से मिलने के लिए
मनुष्य की आत्मा बेचैन है, उस सागर से भी नहीं मिल
पाती है, इसीलिए मनुष्य दुख में हो?
धर्म मनुष्य को उस वृक्ष बनाने की कला का नाम है।
धर्म मनुष्य को सागर से मिलाने की कला का नाम
है--जिस सागर से मिल कर तृप्ति मिलती है, शांति
मिलती है, आनंद मिलता है।
लेकिन धर्म के नाम पर जो जाल खड़ा हुआ है वह मनुष्य
को कहीं ले जाता नहीं, और भटका देता है। धर्म के
नाम पर कितने धर्म हैं दुनिया में? तीन सौ धर्म हैं
दुनिया में! और धर्म तीन सौ कैसे हो सकते हैं? धर्म हो
सकता है तो एक ही हो सकता है। सत्य अनेक कैसे हो
सकते हैं? सत्य होगा तो एक ही होगा। लेकिन एक
सत्य के नाम पर जब तीन सौ संप्रदाय खड़े हो जाते हैं,
तो सत्य की खोज करनी भी मुश्किल हो जाती है।
हिंदू हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं, जैन हैं--और धार्मिक
आदमी कहीं भी नहीं है। धार्मिक आदमी नहीं है
इसलिए इतनी बेचैनी है, इतनी अशांति है, इतना दुख है।
धार्मिक आदमी न होने के दो कारण हैं।
एक छोटी सी कहानी से समझाऊं।
पहला तो कारण यह है कि मनुष्य उन चीजों को बचाने
में जीवन गंवा देता है, जिनके बचाने का अंततः कोई
भी मूल्य नहीं। मनुष्य उस दौड़ में सारे जीवन को लगा
देता है, जिस दौड़ में दौड़ने के बाद भी कहीं पहुंचने की
कोई उम्मीद नहीं।
स्वामी राम जापान गए हुए थे। टोकियो के एक बड़े
रास्ते पर हजारों लोगों की भीड़ थी। राम भी उस
भीड़ में खड़े हो गए। एक मकान में आग लग गई थी। कोई
बहुमूल्य मकान जल रहा था। बड़ा महल, चारों तरफ से
लपटें पकड़ गई थीं। सैकड़ों लोग महल के भीतर से सामान
बाहर ला रहे थे। महल का मालिक खड़ा था--खोया,
बेहोश सा। लोग उसे सम्हाले थे। उसकी कुछ समझ में
नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। जीवन भर उसने
जो कमाया था उसमें आग लग गई थी।
फिर लोग बाहर आए तिजोरियां लेकर, बहुमूल्य
सामान लेकर, किताबें लेकर, कीमती दस्तावेज लेकर
और उन लोगों ने कहा कि अब एक बार और भवन के
भीतर जाया जा सकता है, फिर तो लपटें पूरी तरह
पकड़ लेंगी, फिर भीतर जाना असंभव होगा। हमें जो
भी महत्वपूर्ण मालूम पड़ा, हमने बचा लिया है। अब भी
कोई और चीज खास रह गई हो तो आप हमें बता दें, हम
उसे बचा लाएं।
उस मालिक ने कहा, मुझे कुछ भी न दिखाई पड़ रहा है,
न समझ आ रहा है। तुम एक बार और जाकर भीतर देख
लो, जो भी बचाने जैसा लगे बचा लो।
वे लोग भीतर गए। हर बार सामान लेकर वे खुशी-खुशी
बाहर लौटे थे कि इतनी चीजें बचा लीं। लेकिन अंतिम
बार वे छाती पीटते हुए और रोते हुए लौटे। सारी
भीड़ पूछने लगी कि क्यों रो रहे हो? क्या हो गया?
उन लोगों ने रोते हुए कहा कि बड़ी भूल हो गई, भवन के
मालिक का एक ही बेटा था, वह भीतर सोया था,
हम उसे बचाना ही भूल गए। हमने सारा सामान बचा
लिया, लेकिन सामान का असली मालिक मर गया
है, हम उसकी लाश लेकर आए हैं।
स्वामी राम ने अपनी डायरी में उस दिन लिखा कि
आज जो मैंने देखा है वह अधिकतम मनुष्यों के जीवन में
घटित होता है। लोग व्यर्थ की चीजें बचाने में जीवन
गंवा देते हैं और जीवन का असली मालिक मर ही
जाता है, उसे बचा ही नहीं पाते।
(सौजन्य से – ओशो न्यूज लेटर)
Comments