उस वक्त तक वाट्सअप एप्प नहीं आया था लेकिन एसएमएस इतने सस्ते हो चुके थे कि कोई भी आसानी से त्यौहारों या किसी दिन विशेष पर परिचितों को दस बीस मैसेज भेजकर बधाई दे देता था.
ट्विटर एक ही साल पहले लॉन्च हुआ था, फेसबुक जरूर थोड़ा स्पीड में आने लगा था. ऐसे में अमिताभ बच्चन जैसे बड़े स्टार अपने मन की बात ब्लॉग के जरिए कह रहे थे.
तब वो दौर था जब कोई भी पत्रकार, खासकर जिसकी सुबह की शिफ्ट होती थी, सुबह उठकर बिगबी का ब्लॉग जरूर चेक करता था कि क्या कुछ ऐसा तो नहीं लिख दिया जो खबर बन सके, या फिर कुछ यादें तो शेयर नहीं की हैं जो आधे घंटे का स्पेशल शो बन सके.
उस दिन बच्चन के ब्लॉग के लिंक पर क्लिक किया तो उन्होंने भगत सिंह को लेकर एक पोस्ट लिख रखी थी, ये पोस्ट वेलेंटाइन डे के खिलाफ जाती लग रही थी.
ब्लॉग पर तारीख थी 13 फरवरी 2010 और वक्त था रात के 10 बजकर 23 मिनट. अगले दिन सुबह यानी वेलेंटाइन डे को अचानक पांच-छह बजे आंख खुल गई तो मैंने घर के पीसी पर इंटरनेट ऑन कर लिया. आदत के मुताबिक सबसे पहले अमिताभ बच्चन का ब्लॉग खोला तो बच्चन की वॉल पर ये मैसेज देखाइतिहास का छात्र होने के नाते ये मुझे इतिहास की बड़ी तारीखें याद रहती हैं, ये बात अच्छे से याद थी कि भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी 23 मार्च 1931 को हुई थी.
ऐसे में बच्चन साहब जैसे विद्वान कलाकार से ऐसी गलती क्यों? फिर भी मैंने इंटरनेट पर दोबारा चैक किया. पत्रकार होने के नाते उनका मोबाइल नंबर मेरे पास था, मैंने तुरंत उन्हें मैसेज किया कि अमितजी ये गलत है कि उन्हें फांसी 13 या 14 फरवरी को हुई थी, आप किसी भी सोर्स से चेक कर लीजिए.
शायद वो जगे हुए थे, एक मिनट के अंदर उनका रिप्लाई आया कि थैंक यू, वन ईएफ (एक्सटेंडेंड फैमिली—बच्चन साहब अपने फैंस के लिए ये शब्द इस्तेमाल करते हैं) सेंट मी दिस.
उसके बाद में सिस्टम बंद करके सो गया और दो घंटे बाद जब जगा तो बच्चन साहब का एक और मैसेज इनबॉक्स में पड़ा था कि करैक्टेड.. थैंक्यू.
मैंने फौरन सिस्टम खोला, ब्लॉग चैक किया तो उन्होंने अपने ब्लॉग में ये अपनी उस पोस्ट के ऊपर ये मैसेज चिपकाया हुआ था.
ट्विटर एक ही साल पहले लॉन्च हुआ था, फेसबुक जरूर थोड़ा स्पीड में आने लगा था. ऐसे में अमिताभ बच्चन जैसे बड़े स्टार अपने मन की बात ब्लॉग के जरिए कह रहे थे.
तब वो दौर था जब कोई भी पत्रकार, खासकर जिसकी सुबह की शिफ्ट होती थी, सुबह उठकर बिगबी का ब्लॉग जरूर चेक करता था कि क्या कुछ ऐसा तो नहीं लिख दिया जो खबर बन सके, या फिर कुछ यादें तो शेयर नहीं की हैं जो आधे घंटे का स्पेशल शो बन सके.
उस दिन बच्चन के ब्लॉग के लिंक पर क्लिक किया तो उन्होंने भगत सिंह को लेकर एक पोस्ट लिख रखी थी, ये पोस्ट वेलेंटाइन डे के खिलाफ जाती लग रही थी.
ब्लॉग पर तारीख थी 13 फरवरी 2010 और वक्त था रात के 10 बजकर 23 मिनट. अगले दिन सुबह यानी वेलेंटाइन डे को अचानक पांच-छह बजे आंख खुल गई तो मैंने घर के पीसी पर इंटरनेट ऑन कर लिया. आदत के मुताबिक सबसे पहले अमिताभ बच्चन का ब्लॉग खोला तो बच्चन की वॉल पर ये मैसेज देखाइतिहास का छात्र होने के नाते ये मुझे इतिहास की बड़ी तारीखें याद रहती हैं, ये बात अच्छे से याद थी कि भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी 23 मार्च 1931 को हुई थी.
ऐसे में बच्चन साहब जैसे विद्वान कलाकार से ऐसी गलती क्यों? फिर भी मैंने इंटरनेट पर दोबारा चैक किया. पत्रकार होने के नाते उनका मोबाइल नंबर मेरे पास था, मैंने तुरंत उन्हें मैसेज किया कि अमितजी ये गलत है कि उन्हें फांसी 13 या 14 फरवरी को हुई थी, आप किसी भी सोर्स से चेक कर लीजिए.
शायद वो जगे हुए थे, एक मिनट के अंदर उनका रिप्लाई आया कि थैंक यू, वन ईएफ (एक्सटेंडेंड फैमिली—बच्चन साहब अपने फैंस के लिए ये शब्द इस्तेमाल करते हैं) सेंट मी दिस.
उसके बाद में सिस्टम बंद करके सो गया और दो घंटे बाद जब जगा तो बच्चन साहब का एक और मैसेज इनबॉक्स में पड़ा था कि करैक्टेड.. थैंक्यू.
मैंने फौरन सिस्टम खोला, ब्लॉग चैक किया तो उन्होंने अपने ब्लॉग में ये अपनी उस पोस्ट के ऊपर ये मैसेज चिपकाया हुआ था.
बच्चन साहब को पता था कि इतनी बड़ी चूक उनके कद के लिए कितनी घातक हो सकती है, इसलिए उन्होंने गलती के लिए सॉरी बोल दिया और उनके जरिए उनके लाखों फैंस तक ये बात पहुंच भी गई.
इस बात को आज सात साल बीत गए, लेकिन फिर भी फेसबुक, ट्विटर से लेकर व्हाट्सएप तक अभी भी ये मैसेज हर वेलेंटाइन पर छा जाता है कि इस दिन भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी हुई थी.
इस साल इसमें एक नया ट्रेंड देखने को मिल रहा है, कि 14 फरवरी को इन तीनों को फांसी की सजा सुनाई गई थी, सो वेलेंटाइन डे की जगह शहादत दिवस मनाएं. वेलेंटाइन का विरोध अपनी जगह लेकिन गलत तथ्य के जरिए उसे करना शायद गलत होगा तो आखिर तथ्य क्या है
भगत सिंह केस से जुड़ी तारीखें जान लीजिए, 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेम्बली में बम फेंका था और वहीं अपनी गिरफ्तारी दे दी थी.
मई की महीने में इन्क्वायरी के बाद जून के पहले हफ्ते में उन पर केस चला. बटुकेश्वर दत्त की तरफ से आसफ अली वकील थे, भगत सिंह ने अपना बात खुद रखी, 12 जून को दोनों को आजीवन कारावास की सजा हुई.
फिर वो हुआ जिसकी वजह से आजाद ने भगत सिंह को असेम्बली में बम फेकने से रोका था, उन्हें डर था कि सांडर्स की हत्या के इल्जाम में भगत सिंह को फांसी भी हो सकती है और यही हुआ.
भगत सिंह की इस सजा पर सांडर्स और हवलदार चानन सिंह की हत्या का ट्रायल चलने तक रोक लगा दी गई और उन्हें दिल्ली से लाहौर की मियां वाली जेल में ट्रासफर कर दिया गया.
मियां वाली जेल में कैदियों के प्रति अमानवीय व्यवहार को लेकर भगत सिंह ने भूख हड़ताल शुरू कर दी, उनका वजन 6.4 किलो तक कम हो गया, असेम्बली में ये मुद्दा उठा, नेहरू और जिन्ना ने भी आवाज उठाई.
भगत सिंह को लाहौर की ही बोर्स्टल जेल भेज दिया गया और सांडर्स की हत्या केस का ट्रायल 10 जुलाई 1929 को शुरू हुआ. हालांकि भगत सिंह ने अपनी भूख हड़ताल 116 दिन के बाद 5 अक्टूबर 1929 को तोड़ी थी.
उनके खिलाफ गवाही देने वाले जय गोपाल पर जब भगत सिंह के साथी प्रेम दत्त वर्मा ने कोर्ट मे चप्पल फेंक दी तो जज ने आदेश दिया कि कोर्ट में सबके हाथों में हथकड़ियां होनी चाहिए.
क्रांतिकारियों ने हथकड़िया पहनने से मना कर दिया तो उन्हें पीटा गया. जज ने कहा कि आरोपियों को बिना कोर्ट में लाए भी केस चलेगा. बाद में ये केस लाहौर षडयंत्र केस भी उस जज से लेकर तीन सीनियर जजों के ट्रिब्यूनल को सौंप दिया गया.
5 मई 1930 से शुरू हुआ ये ट्रायल 30 सितम्बर 1930 को खत्म हुआ. जल्दी इसलिए भी थी क्योंकि ये ट्रिब्यूनल जो वायसराय के अध्यादेश से बना था, इसको ना तो सेंट्रल असेम्बली की मंजूरी मिली थी और ना ब्रिटिश पार्लियामेंट ने ही पास किया था.
इस लिहाज से यह 30 अक्टूबर को ये खत्म हो जाता. 7 अक्टूबर 1930 वो तारीख थी, जिस दिन इस ट्रिब्यूनल ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को सांडर्स और चानन की हत्या का दोषी ठहराते हुए फांसी की सजा का ऐलान किया था.
अजय घोष. जतिन्द्र नाथ सान्याल और देश राज को बरी कर दिया गया. कुंदन लाल को 7 साल का सश्रम कारावास और प्रेम दत्त को पांच साल की सजा मिली.
जबकि बाकी सातों किशोरी लाल, महावीर सिंह, बिजॉय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा, गया प्रसाद, जय देव और कमलनाथ तिवारी को आजीवन कारावास की सजा दी गई। भगत, राजगुरू और सुखदेव को फांसी 23 मार्च 1931 को दी गई.
ऐसे में 14 फरवरी कहां से आई? माना जाता है कि जो भी लोग वेलेंटाइन डे को भारतीय संस्कृति के खिलाफ मानकर इसका विरोध करते हैं, उन्होंने इसका विरोध करने के लिए ये गलत तथ्य फैलाया.
जबकि ऐसे किसी भी समूह या संस्था की ऑफीशियल रिलीज, पोस्ट में इसका जिक्र नहीं मिलता. पिछले कुछ सालों में वेलेंटाइन डे का खुलकर विरोध भी बंद हो गया है.
वैसे भी खजुराहो और राधा-कृष्ण के देश में प्रेम किसी बाहरी बाबा से सीखना ना सीखना आपकी अपना इच्छा है तो विरोध करना या उसका मनाना दोनों लोकतंत्र में जायज हैं.
लेकिन फेसबुक और व्हाट्सऐप पर अब ये विरोध भगत सिंह के शहीदी दिवस को जोड़कर चलने लगा है. तो उन्हें ये सच जान लेना और मान लेना चाहिए कि 14 फरवरी से भगत सिंह की सजा या फांसी का कोई ताल्लुक नहीं है.
इस तारीख को भगत सिंह की जिंदगी में बस एक ही घटना हुई थी. 14 फरवरी 1931 को मदन मोहन मालवीयजी ने फांसी से ठीक 41 दिन पहले एक मर्सी पिटीशन ब्रिटिश भारत के वायसराय लॉर्ड इरविन के दफ्तर में डाली थी, जिसको इरविन ने खारिज कर दिया था.
इस बात को आज सात साल बीत गए, लेकिन फिर भी फेसबुक, ट्विटर से लेकर व्हाट्सएप तक अभी भी ये मैसेज हर वेलेंटाइन पर छा जाता है कि इस दिन भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी हुई थी.
इस साल इसमें एक नया ट्रेंड देखने को मिल रहा है, कि 14 फरवरी को इन तीनों को फांसी की सजा सुनाई गई थी, सो वेलेंटाइन डे की जगह शहादत दिवस मनाएं. वेलेंटाइन का विरोध अपनी जगह लेकिन गलत तथ्य के जरिए उसे करना शायद गलत होगा तो आखिर तथ्य क्या है
भगत सिंह केस से जुड़ी तारीखें जान लीजिए, 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेम्बली में बम फेंका था और वहीं अपनी गिरफ्तारी दे दी थी.
मई की महीने में इन्क्वायरी के बाद जून के पहले हफ्ते में उन पर केस चला. बटुकेश्वर दत्त की तरफ से आसफ अली वकील थे, भगत सिंह ने अपना बात खुद रखी, 12 जून को दोनों को आजीवन कारावास की सजा हुई.
फिर वो हुआ जिसकी वजह से आजाद ने भगत सिंह को असेम्बली में बम फेकने से रोका था, उन्हें डर था कि सांडर्स की हत्या के इल्जाम में भगत सिंह को फांसी भी हो सकती है और यही हुआ.
भगत सिंह की इस सजा पर सांडर्स और हवलदार चानन सिंह की हत्या का ट्रायल चलने तक रोक लगा दी गई और उन्हें दिल्ली से लाहौर की मियां वाली जेल में ट्रासफर कर दिया गया.
मियां वाली जेल में कैदियों के प्रति अमानवीय व्यवहार को लेकर भगत सिंह ने भूख हड़ताल शुरू कर दी, उनका वजन 6.4 किलो तक कम हो गया, असेम्बली में ये मुद्दा उठा, नेहरू और जिन्ना ने भी आवाज उठाई.
भगत सिंह को लाहौर की ही बोर्स्टल जेल भेज दिया गया और सांडर्स की हत्या केस का ट्रायल 10 जुलाई 1929 को शुरू हुआ. हालांकि भगत सिंह ने अपनी भूख हड़ताल 116 दिन के बाद 5 अक्टूबर 1929 को तोड़ी थी.
उनके खिलाफ गवाही देने वाले जय गोपाल पर जब भगत सिंह के साथी प्रेम दत्त वर्मा ने कोर्ट मे चप्पल फेंक दी तो जज ने आदेश दिया कि कोर्ट में सबके हाथों में हथकड़ियां होनी चाहिए.
क्रांतिकारियों ने हथकड़िया पहनने से मना कर दिया तो उन्हें पीटा गया. जज ने कहा कि आरोपियों को बिना कोर्ट में लाए भी केस चलेगा. बाद में ये केस लाहौर षडयंत्र केस भी उस जज से लेकर तीन सीनियर जजों के ट्रिब्यूनल को सौंप दिया गया.
5 मई 1930 से शुरू हुआ ये ट्रायल 30 सितम्बर 1930 को खत्म हुआ. जल्दी इसलिए भी थी क्योंकि ये ट्रिब्यूनल जो वायसराय के अध्यादेश से बना था, इसको ना तो सेंट्रल असेम्बली की मंजूरी मिली थी और ना ब्रिटिश पार्लियामेंट ने ही पास किया था.
इस लिहाज से यह 30 अक्टूबर को ये खत्म हो जाता. 7 अक्टूबर 1930 वो तारीख थी, जिस दिन इस ट्रिब्यूनल ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को सांडर्स और चानन की हत्या का दोषी ठहराते हुए फांसी की सजा का ऐलान किया था.
अजय घोष. जतिन्द्र नाथ सान्याल और देश राज को बरी कर दिया गया. कुंदन लाल को 7 साल का सश्रम कारावास और प्रेम दत्त को पांच साल की सजा मिली.
जबकि बाकी सातों किशोरी लाल, महावीर सिंह, बिजॉय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा, गया प्रसाद, जय देव और कमलनाथ तिवारी को आजीवन कारावास की सजा दी गई। भगत, राजगुरू और सुखदेव को फांसी 23 मार्च 1931 को दी गई.
ऐसे में 14 फरवरी कहां से आई? माना जाता है कि जो भी लोग वेलेंटाइन डे को भारतीय संस्कृति के खिलाफ मानकर इसका विरोध करते हैं, उन्होंने इसका विरोध करने के लिए ये गलत तथ्य फैलाया.
जबकि ऐसे किसी भी समूह या संस्था की ऑफीशियल रिलीज, पोस्ट में इसका जिक्र नहीं मिलता. पिछले कुछ सालों में वेलेंटाइन डे का खुलकर विरोध भी बंद हो गया है.
वैसे भी खजुराहो और राधा-कृष्ण के देश में प्रेम किसी बाहरी बाबा से सीखना ना सीखना आपकी अपना इच्छा है तो विरोध करना या उसका मनाना दोनों लोकतंत्र में जायज हैं.
लेकिन फेसबुक और व्हाट्सऐप पर अब ये विरोध भगत सिंह के शहीदी दिवस को जोड़कर चलने लगा है. तो उन्हें ये सच जान लेना और मान लेना चाहिए कि 14 फरवरी से भगत सिंह की सजा या फांसी का कोई ताल्लुक नहीं है.
इस तारीख को भगत सिंह की जिंदगी में बस एक ही घटना हुई थी. 14 फरवरी 1931 को मदन मोहन मालवीयजी ने फांसी से ठीक 41 दिन पहले एक मर्सी पिटीशन ब्रिटिश भारत के वायसराय लॉर्ड इरविन के दफ्तर में डाली थी, जिसको इरविन ने खारिज कर दिया था.
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