नारी को लेकर पुरुष दुविधा में हैं। उन्हें पता नहीं चलता कि इसे देवी कहें या दासी, शक्ति या पैर की जूती? औरत के बगैर काम चल नहीं सकता और इसे बराबरी का दर्जा देना भी मुश्किल है। नारी को लेकर न जाने कितने आंदोलन हुए, उसके लिए रोज कल्याण योजनाएं बन रही हैं पर उसकी दशा में अपेक्षित सुधार नहीं हो रहा है। आज तक पृथ्वी पर कोई पुरुष मुक्ति आंदोलन नहीं चला, न पुरुष कल्याण की योजनाएं बनाई गईं, जबकि सचाई यह है कि यदि पुरुष विकसित और मुक्त होता तो इस देश में नारी इतनी असुरक्षित नहीं होती, लड़कियों की जन्म-दर कम नहीं होती, सुप्रीम कोर्ट को घरेलू हिंसा से स्त्री की रक्षा के लिए नए कानून नहीं बनाने पड़ते और न ही आए दिन बलात्कार के शर्मनाक किस्सों से अखबारों के पन्ने भरे होते। ऋग्वेद में कहीं स्त्री-पुरुष असमानता नहीं मिलती। उलटे दोनों को एक सा सम्मान दिया गया है। ऋग्वेद के दसवें मंडल में स्त्री के लिए जो व्यवस्था बताई गई है, उसमें तत्कालीन समाज की एक झलक मिलती है। पति के मरने के बाद उससे कहा गया है कि इस मृत शरीर को छोड़ो और जीवित लोगों के पास पुत्र-पौत्रों से युक्त अपने घर लौट जाओ। आंखों में घी युक्त काजल डालकर अपने घर में प्रवेश करो। तुम्हारा देवर अब तुम्हारा पति होगा। लेकिन मध्ययुग में जब समाज पर नैतिकता हावी हुई तब पुरुष ने सेक्स को बुरी तरह दबा लिया और जब सेक्स दब गया तो स्त्री कामुकता का प्रतीक हो गई। उसे कुछ लोग नरक का द्वार मानने लगे। ओशो ने मजाकिया अंदाज में कहा है कि स्त्रियों को इस बात का बुरा नहीं मानना चाहिए क्योंकि इससे एक बात तो पक्की है कि औरत नरक के भीतर प्रवेश नहीं कर सकती क्योंकि द्वार हमेशा कमरे के बाहर ही रहता है। उससे गुजरकर लोग अवश्य अंदर जाते हैं। ओशो की दृष्टि यह है कि पुरुष के पास शारीरिक ताकत है, लेकिन दूसरे अर्थ में वह कमजोर है। वह बड़ी पीड़ा नहीं झेल सकता। अब मसल्स का काम तो मशीन करने लगी है, लेकिन पीड़ा झेलने का काम कोई मशीन नहीं कर सकती। एक और महत्त्वपूर्ण बात की ओर ओशो ध्यान आकर्षित करते हैं। पूरी धरती पर 'लेडीज फर्स्ट' का चलन है। एक शिष्टाचार के तहत औरतों को हर जगह आगे कर दिया जाता है। लेकिन ओशो का कहना है कि यह स्त्री का अपमान है, सम्मान नहीं। जैसे अगर एक ट्रेन है, तो उसमें महिलाओं के लिए एक अलग डिब्बा होता है। ऐसा क्यों? औरतें नहीं कहतीं कि हमारे लिए अलग डिब्बा हमारी हीनता का सूचक है, हम अलग डिब्बा बर्दाश्त नहीं करेंगी। इसका मतलब है कि स्त्रियों को स्पेशल प्रोटेक्शन चाहिए। स्पेशल प्रोटेक्शन उनके लिए होता है, जो कमजोर और पिछड़े हुए हैं। स्त्रियों को अलग डिब्बे से इनकार कर देना चाहिए। अगर समाज में स्त्रियों के साथ बदतमीजी की घटनाएं बंद करनी हैं, तो बचपन से प्रत्येक लड़की और लड़के को एक-दूसरे के साथ घुलने-मिलने देना चाहिए। प्रत्येक पुरुष के अचेतन में पड़ी वासना को निकालना होगा। देश में पुरुष इतना कामुक इससे पहले कभी नहीं था। हर लड़के को बचपन में ही ध्यान करने चाहिए। ध्यान के कई प्रयोग हैं जिनके द्वारा अंतर्मन की सफाई होती है। यदि हम सचमुच स्त्री का विकास और सम्मान चाहते हैं तो पहले पुरुष मुक्ति का आंदोलन चलाना आवश्यक है। मुक्त पुरुष के साथ ही मुक्त नारी आनंदपूर्वक और प्रेमपूर्वक रह सकती है। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जा रहा है, अब जरूरी है कि साल में एक दिन पुरुष दिवस हो। उस दिन यह स्मरण रहे कि अब पुरुष को अपनी पाशविकता से मुक्त होना है, अपनी कामुकता से निजात पानी है। कल्पना करें उस दिन की, जब नारी निडर होकर पुरुषों के साथ विचरण करेगी और पुरुष निर्मल चित्त होकर स्त्री के संग विकसित होगा। दोनों ही साथ-साथ ध्यान करेंगे, प्रेम करेंगे और एक नए समाज की नींव रखेंगे। आज जरूरत है नए युग के नए वेद की। निश्चय ही इसकी रचना स्त्रियां करेंगी।
क्या मर्द और क्या औरत, सभी की उत्सुकता इस बात को लेकर होती है कि पहली बार सेक्स कैसे हुआ और इसकी अनुभूति कैसी रही। ...हालांकि इस मामले में महिलाओं को लेकर उत्सुकता ज्यादा होती है क्योंकि उनके साथ 'कौमार्य' जैसी विशेषता जुड़ी होती है। दक्षिण एशिया के देशों में तो इसे बहुत अहमियत दी जाती है। इस मामले में पश्चिम के देश बहुत उदार हैं। वहां न सिर्फ पुरुष बल्कि महिलाओं के लिए भी कौमार्य अधिक मायने नहीं रखता। महिला ने कहा- मैं चाहती थी कि एक बार यह भी करके देख लिया जाए और जब तक मैंने सेक्स नहीं किया था तब तो सब कुछ ठीक था। पहली बार सेक्स करते समय मैं बस इतना ही सोच सकी- 'हे भगवान, कितनी खुशकिस्मती की बात है कि मुझे फिर कभी ऐसा नहीं करना पड़ेगा।' उनका यह भी कहना था कि इसमें कोई भी तकलीफ नहीं हुई, लेकिन इसमें कुछ अच्छा भी नहीं था। पहली बार कुछ ठीक नहीं लगा, लेकिन वर्जीनिया की एक महिला का कहन...
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