धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत दिए जाने का प्रावधान है।

 आईपीसी की धारा 2 के अनुसार जमानती अपराध वह है, जो पहली अनुसूची में जमानती अपराध के रूप में दिखाया हो। दूसरा गैर-जमानती। जो अपराध जमानती है, उसमें आरोपी की जमानत स्वीकार करना पुलिस अधिकारी एवं न्यायालय का कर्तव्य है। किसी व्यक्ति को जान-बूझकर साधारण चोट पहुंचाना, उसे अवरोधित करना अथवा किसी स्त्री की लज्जा भंग करना, मानहानि करना आदि जमानती अपराध कहे जाते हैं। गैर-जमानती अपराध की परिभाषा आईपीसी में नहीं है, लेकिन गंभीर प्रकार के अपराधों को गैर-जमानती बनाया है। ऐसे अपराधों में जमानत स्वीकार करना या न करना न्यायाधीश के विवेक पर होता है। आरोपी अधिकार के तौर पर इसमें जमानत नहीं मांग सकता। इसमें जमानत का आवेदन देना होता है, तब न्यायालय देखता है कि अपराध की गंभीरता कितनी है, दूसरा यह कि जमानत मिलने पर कहीं वह सबूतों के साथ छेड़छाड़ तो नहीं करेगा। एक स्थिति में यदि पुलिस समय पर आरोप-पत्र दाखिल न करे, तब भी आरोपी को जमानत दी जा सकती है, चाहे मामला गंभीर क्यों न हो। जिन अपराधों में दस साल की सजा है, यदि उसमें 90 दिन में आरोप-पत्र पेश नहीं किया तो जमानत देने का प्रावधान है। 

- फैक्ट : धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत दिए जाने का प्रावधान है। यह जमानत पुलिस जांच होने तक रहती है। विधि आयोग ने इसे दंड प्रक्रिया संहिता में शामिल करने की सिफारिश की थी।

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