किसी भी काम से ऊब जाना हमारा बुनियादी गुण है। हम किसी चीज को पाने के प्रयत्न में नहीं ऊबते, बल्कि पाकर ऊब जाते हैं। शायद मनुष्य के बुनियादी गुणों में ऊब जाना भी है। पशुओं में कोई ऊबता नहीं। आपने किसी भैंस को, किसी कुत्ते को, किसी गधे को ऊबते नहीं देखा होगा। अगर हम आदमी और जानवरों को अलग करने वाले गुणों की खोज करें, तो शायद ऊब एक बुनियादी गुण है।
आदमी बड़ी जल्दी ऊब जाता है।
चीज मिल जाए, उससे ऊब जाता है। हां, जब तक न मिले, तब तक बड़ी सजगता दिखलाता है, बड़ी लगन दिखलाता है। लेकिन मिलते ही ऊब जाता है। संसार में तो ऊबना बाद में आता है, क्योंकि प्रयत्न में तो ऊब नहीं आती। इसलिए संसार में लोग गति करते चले जाते हैं। परमात्मा में प्रयत्न में ही ऊब आती है। प्राप्ति तो बाद में आएगी, प्रयत्न पहले ही उबा देगा, तो आप रुक जाएंगे।
ध्यान तो बहुत सरल है, लेकिन कितने दिन कर सकोगे? मैं लोगों से कहता हूं कि सिर्फ तीन महीने सतत कर लो। मुश्किल से ही कभी कोई मिलता है, जो तीन महीने भी सतत कर पाता है। बाकी तो पहले ही ऊब जाते हैं। हम रोज अखबार पढ़कर नहीं ऊबते। रोज रेडियो सुनकर नहीं ऊबते। रोज फिल्म देखकर नहीं ऊबते। रोज वे ही बातें करके नहीं ऊबते। ध्यान करके क्यों ऊब जाते हैं? आखिर ध्यान में ऐसी क्या कठिनाई है!
कठिनाई एक ही है कि संसार की यात्रा पर प्रयत्न नहीं उबाता, प्राप्ति उबाती है। और परमात्मा की यात्रा पर प्रयत्न उबाता है, प्राप्ति कभी नहीं उबाती। जो पा लेता है, वह तो फिर कभी नहीं ऊबता। बुद्ध ज्ञान मिलने के बाद चालीस साल जिंदा थे। चालीस साल किसी आदमी ने एक बार भी उन्हें ऊबते हुए नहीं देखा। संसार का राज्य मिल जाता, तो ऊब जाते। महावीर भी चालीस साल जिंदा रहे ज्ञान के बाद, फिर किसी आदमी ने कभी उनके चेहरे पर ऊब की शिकन नहीं देखी। चालीस साल जिंदा थे। चालीस साल निरंतर उसी ज्ञान में रमे रहे, कभी ऊबे नहीं। कभी चाहा नहीं कि अब कुछ और मिल जाए। परमात्मा की यात्रा पर प्राप्ति के बाद कोई ऊब नहीं है, लेकिन प्राप्ति तक पहुंचने के रास्ते पर अथक ऊब है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, बिना ऊबे श्रम करना कर्तव्य है।
ओशो
आदमी बड़ी जल्दी ऊब जाता है।
चीज मिल जाए, उससे ऊब जाता है। हां, जब तक न मिले, तब तक बड़ी सजगता दिखलाता है, बड़ी लगन दिखलाता है। लेकिन मिलते ही ऊब जाता है। संसार में तो ऊबना बाद में आता है, क्योंकि प्रयत्न में तो ऊब नहीं आती। इसलिए संसार में लोग गति करते चले जाते हैं। परमात्मा में प्रयत्न में ही ऊब आती है। प्राप्ति तो बाद में आएगी, प्रयत्न पहले ही उबा देगा, तो आप रुक जाएंगे।
ध्यान तो बहुत सरल है, लेकिन कितने दिन कर सकोगे? मैं लोगों से कहता हूं कि सिर्फ तीन महीने सतत कर लो। मुश्किल से ही कभी कोई मिलता है, जो तीन महीने भी सतत कर पाता है। बाकी तो पहले ही ऊब जाते हैं। हम रोज अखबार पढ़कर नहीं ऊबते। रोज रेडियो सुनकर नहीं ऊबते। रोज फिल्म देखकर नहीं ऊबते। रोज वे ही बातें करके नहीं ऊबते। ध्यान करके क्यों ऊब जाते हैं? आखिर ध्यान में ऐसी क्या कठिनाई है!
कठिनाई एक ही है कि संसार की यात्रा पर प्रयत्न नहीं उबाता, प्राप्ति उबाती है। और परमात्मा की यात्रा पर प्रयत्न उबाता है, प्राप्ति कभी नहीं उबाती। जो पा लेता है, वह तो फिर कभी नहीं ऊबता। बुद्ध ज्ञान मिलने के बाद चालीस साल जिंदा थे। चालीस साल किसी आदमी ने एक बार भी उन्हें ऊबते हुए नहीं देखा। संसार का राज्य मिल जाता, तो ऊब जाते। महावीर भी चालीस साल जिंदा रहे ज्ञान के बाद, फिर किसी आदमी ने कभी उनके चेहरे पर ऊब की शिकन नहीं देखी। चालीस साल जिंदा थे। चालीस साल निरंतर उसी ज्ञान में रमे रहे, कभी ऊबे नहीं। कभी चाहा नहीं कि अब कुछ और मिल जाए। परमात्मा की यात्रा पर प्राप्ति के बाद कोई ऊब नहीं है, लेकिन प्राप्ति तक पहुंचने के रास्ते पर अथक ऊब है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, बिना ऊबे श्रम करना कर्तव्य है।
ओशो
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