दुःखद निधन विजय चव्हाण !

❤  दुनिया में दो तरह के दुष्ट हैं।
एक तो वे हैं जो दूसरों को सताते हैं।
और एक वे हैं जो स्वयं को सताते हैं।

इन दोनों तरह के दुष्टों में
कोई भी धार्मिक नहीं है।
ये दोनों ही हिंसक हैं।

दूसरे को सताओ
कि स्वयं को सताओ,
सताने में हिंसा है।
और हिंसा विध्वंस है,
सृजन नहीं।

मैं अपने
संन्यासी को एक नया
आयाम दे रहा हूं—
एक स्वस्थ आयाम।
न तो दूसरे को सताओ,
न स्वयं को सताओ—सताना पाप है।
चाहे तुम दूसरे की देह को सताओ,
तो भी तुम परमात्मा को सता रहे हो।

और चाहे तुम अपनी देह को सताओ,
तो भी तुम परमात्मा को सता रहे हो।
क्योंकि सभी देहों में वही व्याप्त है।
क्या तुम सोचते हो...

बड़े आश्चर्य की बात है!
ये तुम्हारे महात्मागण कहते हैं,
सब जगह परमात्मा व्याप्त है—
सिर्फ इनको छोड़ कर!
तो जब ये भूखे मरते हैं,
किसको भूखा मार रहे हैं?

और जब ये रात भर जागते हैं
तो किसको जगाए रखे हैं?
और जब ये कांटों की
सेज पर सोते हैं तो किसको
कांटों की सेज पर सुलाते हैं?
परमात्मा को ही!
क्या इनके भीतर छोड़ कर
और सब जगह परमात्मा है?

और इस तरह की प्रक्रियाओं
का क्या प्रयोजन है?
दुनिया में वैसे ही दुख बहुत है,

और दुख न बढ़ाओ।
ऐसे ही दुनिया कांटों की सेज है,
और क्या कांटे तलाशते हो!
ऐसे ही दुनिया में चिता पर चढ़े हो,
और क्या चिता खोजते हो!

लेकिन अतीत का संन्यास दुखवादी था,
हालांकि तुम उसे त्यागवादी कहते थे।
त्याग अच्छा शब्द है दुखवाद के लिए,
बस और कुछ भी नहीं।

भोगी दूसरे को सताता है,
त्यागी खुद को सताता है।
मगर सताने का गणित एक है।

दोनों से सावधान!
न तो दूसरे को सताना,
न अपने को सताना।
सताना ही नहीं!

सब जगह परमात्मा है।
बन सके तो सुख की तरंगें फैलाना!
बन सके तो मधुर कोई गीत गाना!
बन सके तो रसपूर्ण कोई नृत्य पैदा करना!

संन्यासी सृजनात्मक होना चाहिए—कवि हो,
चित्रकार हो, मूर्तिकार हो, नर्तक हो।
या जो भी करे, उसे इस ढंग से करे,
ऐसी तल्लीनता से करे कि उसका
छोटा—छोटा कृत्य भी ध्यान हो जाए...........💃

❣ _*ओशो*_  ❣

🍁 *काहे होत अधीर--(प्रवचन--12)*  🍁

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