दशहरे के दिन मेरी बेटी की शादी तय हुई थी। सब तैयारियां हो चुकि थी, कॉर्ड बांट दिए गए थे, और लड़के ने तीन दिन पहले दूसरी लड़की से शादी कर ली
ओशो,
दशहरे के दिन मेरी बेटी की शादी तय हुई थी। सब तैयारियां हो चुकि थी, कॉर्ड बांट दिए गए थे, और लड़के ने तीन दिन पहले दूसरी लड़की से शादी कर ली। मैंने तो इस दुर्भाग्य करे ही देखा, मगर मेरी बेटी के लिए इसमें कौन सा रहस्य छिपा है? संन्यास लेने में उसको अपने पिता का बहुत सामना पड़ेगा। हिना के लिए आपका क्या संदेश है?
जया, अच्छा ही हुआ। दुर्भाग्य में सौभाग्य छिपा है, ऐसा नहीं; दुर्भाग्य कहीं है ही नहीं, सौभाग्य ही सौभाग्य है। जो शादी के पहले भाग गया, वह शादी के बाद भागता, वह भागता ही। जो शादी के पहले ही भाग गया, वह शादी के बाद कितनी देर टिकता? और टिकता भी तो उसके टिकने में क्या अर्थ होता?
अच्छा हुआ, एकदम अच्छा हुआ। उत्सव मनाओ। उसको भी निमंत्रण कर लेना उत्सव में, क्योंकि उसके बिना यह सौभाग्य हिना का नहीं हो सकता था। जरा भी दुख न लेना। दुख की बात ही नहीं है। दुख की बातें होती ही नहीं हैं दुनिया में। हम ले लेते हैं दुख, यह दूसरी बात है। यहां जो भी होता है, सब सुख है। जरा देखने की आख चाहिए, जरा पैनी आख चाहिए।
और जया, तेरे पास आख है। और मैंने हिना को भी देखा, उसके पास भी बड़ी संभावना है। शायद संन्यास के बीच जो एक बाधा बन सकती थी वह हट गई। शायद यह संन्यास के लिए अवसर बना। अब हिना को चिंता नहीं करनी चाहिए कि पिताजी को क्या होगा। जब पिताजी को, कॉर्ड बांट दिए, विवाह का इंतजाम कर लिया, ताजमहल होटल बुक कर ली और लड़का भाग गया और कुछ न हुआ, तो हिना के संन्यास से क्या हो जाएगा? यहां कहीं कुछ होता ही नहीं, हम नाहक ही परेशान होते हैं कि कहीं पिता दुखी न हों, कहीं पिता चिंतित न हों! यह तो अच्छा अवसर है, इस अवसर पर पिता भी कुछ कह न सकेंगे। इससे सुंदर अवसर और क्या होगा? हिना के संन्यास की घड़ी आ गई। आती है घड़ी कुछ लोगों के लिए—विवाह की लंबी यातनाएं सहने के बाद। सौभाग्यशाली है, इसको बिना यातना सहे आ गई। और जो किसी दूसरी लड़की के साथ भाग गया, उसके प्रेम का कोई भरोसा था? कोई अर्थ था?
चंदूलाल का आखिरी समय निकट था। उनके मित्र श्री ढ़ब्बू जी उन्हें अंतिम विदा देने आए हुए थे। पता नहीं कब उनका बचपन का साथी सदा के लिए छोड़ कर चला जाए। ढ़ब्बू जी को देख चंदूलाल बोले, भाई ढब्बू तुम अच्छे वक्त पर आए, जरा मेरी पत्नी गुलाबो के नाम एक पत्र लिख दो। लिखना कि तुम्हारा चंदूलाल मृत्यु की इन अंतिम घड़ियों में भी तुम्हारे दिए गए प्रेम को भूला नहीं है। तुम्हारे साथ बिताए वे सुहाने दिन, वे मधुर यादें मैं कभी नहीं भुला सकता। हमारा प्यार अमर है और अमर रहेगा। तुम्हारा चंदूलाल! और इसी पत्र की एक—एक कॉपी शीला, नीला, कमला, विमला और आशा को भी भेज देना।
अच्छा हुआ हिना, नहीं तो न मालूम कितनी शीलाए,कमलाएं, विमलाए और न मालूम किस—किस झंझट में तू पड़ती! जो युवक तुझे छोड़ कर भाग गया है, बड़ा दयालु था। मिलता क्या है, चारों तरफ जरा गौर से तो देखो! क्या मिल गया है लोगों को? हिना, जरा जया से पूछ, उसे क्या मिल गया है विवाह से— अपनी मां से पूछ! सिवाय उपद्रव के और क्या मिला है! जरा अपनी मां की जिंदगी देख। संन्यासिनी है, इसलिए मस्त है सारे उपद्रवों के बीच; नाचती है, गाती है; मगर उपद्रव तो हैं ही मौजूद। तुझे क्या मिल जाता? किसको क्या मिला है?
विवाह उनके लिए है जिनके पास बुद्धि की प्रखरता नहीं है। जैसे जिस छुरी में धार न हो, उसको पत्थर पर घिसना पड़ता है धार देने के लिए। जिस बुद्धि में धार नहीं होती उसको विवाह के पत्थर पर घिस कर धार देना पड़ता है। मगर कई तो ऐसे बुद्ध हैं कि विवाहों में घिस—घिस कर भी उन पर धार नहीं आती। पत्थरों में धार आ जाती है घिसते—घिसते, लेकिन उनमें धार नहीं आती!
ढ़ब्बू जी एक बस में यात्रा कर रहे थे। बस में बड़ी भीड़ थी, बहुत भीड़ थी। अत: उन्हें बैठने के लिए जगह नहीं मिली थी। बस खड़े—खड़े ही यात्रा कर रहे थे। उनके आगे ही एक सुंदर, आकर्षक और कोमलागी युवती खड़ी हुई थी। अभी— अभी घर से पत्नी से पिट कर आए थे। मगर लोग सीखते कहां! बस की भीड़ के कारण ढ़ब्बू बार—बार उस नवयौवना से टकरा रहे थे, जान—बूझ कर, और उन्हें कुछ आनंद भी आ रहा था उस महिला के संस्पर्श में।
अंत में जब उस युवती ने देखा कि यह व्यक्ति तो उसे जान—बूझ कर धक्के मार रहा है, तो उसे बड़ा क्रोध आया वह क्रोधित होकर बोली, इस तरह महिलाओं को धक्के मारते हुए शर्म नहीं आती? तुम इनसान हो या जानवर?
इस पर ढ़ब्बू जी बोले जी, मैं इंसान और जानवर दोनों ही हूं। युवती तो बड़ी चौंकी, उसने आश्चर्य भरे स्वर में पूछा,इनसान हो यह तो समझ में आता है, मगर जानवर कैसे?
ढ़ब्बू जी मुस्कुराते हुए बोले. तू मेरी जान, मैं तेरा वर!
अभी घर से पिट कर आ रहे हैं! लेकिन कुछ लोगों में बुद्धि आती ही नहीं। अच्छा हुआ हिना, संन्यास का मार्ग प्रशस्त हुआ। और ज्यादा देर मत कर संन्यास लेने में, अन्यथा पिताजी तेरे कोई दूसरा जानवर खोजेंगे। एक जानवर भाग गया, पिताजी इतने से तेरे हताश नहीं हो जाएंगे, वे कोई दूसरा खोजेंगे। तू तो समझ कि झंझट मिटी। हो गया विवाह और हो गई बात खत्म।
विवाह ही करना हो तो परमात्मा से करो। जुड़ना ही है तो उससे जुडो। फेरे ही लेने हैं तो उसके साथ, गांठ ही बांधनी है तो उससे! यहां पागलों से गांठ बांध कर भी क्या होगा? इन पागलों के साथ और मुसीबत होगी।
खुश हो! लेकिन बहुत खुश भी न हो जाना, क्योंकि कभी—कभी खुशी भी बरदाश्त करना मुश्किल हो जाता है।
नसरुद्दीन ने तीसरी शादी की। नई दुल्हन के हाथ का बना खाना जब पहले दिन खाया तो सारा मुंह, जीभ, ओंठ, गाल—गला और यहां तक कि दांत भी कड़वे हो उठे। किसी तरह उस सब्जी के कौर को वह निगल गया, सोचा कोई बात नहीं। दूसरा कौर दाल का लिया तो मुंह भनभना गया, मिर्च ही मिर्च थी, दाल का तो नामोनिशान नहीं। पेट में जलन होने लगी और आंखो में आंसू आने लगे। वह अपनी इस नई बीवी को नाराज करना नहीं चाहता था, इसलिए बोला, खाना तो बहुत अदभुत बना है डार्लिंग।
नई दुल्हन ने पूछा फिर आंखों में ये आंसू कैसे?
कुछ न पूछो प्रिये—मुल्ला ने बात सम्हाल ली—ये तो खुशी के आंसू हैं।
अच्छा तो और सब्जी दूं? या थोड़ी दाल और ले लो।
नहीं डार्लिग— नसरुद्दीन ने रूमाल से आंखें पोंछते हुए कहा— मैं दिल का मरीज हूं। इतनी ज्यादा खुशी एक साथ बरदाश्त न कर पाऊंगा!
अच्छा हुआ हिना। लोग आएंगे संवेदना प्रकट करने— हंसना और तू उनसे संवेदना प्रकट करना कि दुखी होओ तुम कि तुम्हारा जानवर न भागा। मेरा भाग गया, इसमें दुख का क्या कारण है?
जरूर लोग आ रहे होंगे। लोग बड़े अजीब हैं, ऐसे मौके नहीं छोड़ते। लोग आएंगे, संवेदना प्रकट
करेंगे कि बेटी, घबड़ा मत, दूसरा वर खोजेंगे, इससे भी अच्छा जानवर खोजेंगे! यह तो कुछ भी न था। वे सोचेंगे कि बहुत बड़ी दुर्घटना घट गई तेरे ऊपर। तू हंसना और उनसे कहना कि कोई चिंता न करें। मैं नहीं छूट पाती शायद...।
तेरे थोड़े लगाव थे उस युवक से, इसलिए तू छूट नहीं पाती उससे। वह युवक खुद ही भाग गया। उसका धन्यवाद कर।
अपनी झगड़ालू बीवी से तंग आकर मुल्ला नसरुद्दीन ने एक दिन कहा तुमसे विवाह करके मुसलमान होते हुए भी मुझे हिंदुओं के धर्मग्रंथों में श्रद्धा उत्पन्न होने लगी है। श्री रामचरितमानस में बाबा तुलसीदास ने सच ही कहा है. ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड्न के अधिकारी।
रामायण की इस चौपाई में मेरी भी पूरी श्रद्धा है— गुलजान बोली— क्योंकि पांच चीजों में से मैं तो सिर्फ नारी ही हूं बाकी चार तो आप हैं।
हिना, हंस और आनंदित हो। जान बची और लाखों पाए, लौट के बुद्ध घर को आए! वह ताजमहल और ताजमहल होटल की रंगीनियां और बाराती और मेहमान और फुलझड़ियां और फटाके— उन सब में तू भटक जाती।
इतना हमें विवाह के लिए आयोजन क्यों करना पड़ता है? इतना शोर—शराबा क्यों मचाना पड़ता है? वह जो विवाह की बेहूदगी है उसको छिपाने के लिए। वह जो विवाह ला रहा है कष्टों का एक लंबा सिलसिला, उसको भुलाने के लिए। दूल्हा को बिठा देते हैं घोड़े पर, जो कभी घोड़े पर नहीं बैठा। उसको कहते हैं— दूल्हा राजा! पहना देते हैं मोरमुकुट। कपड़े पहना देते है सम्राटों जैसे, फूलमालाओं से लाद देते हैं। घोड़े पर बैठ कर अकड़ कर वह सोचता है— अहा, क्या जिंदगी शुरू हो रही है! अरे घोड़े से पूछ कि ऐसे कितने बुद्धओं को पहले भी पार करा चुका है।
इसलिए तुमने देखा कि भारतीय फिल्में, शहनाई बजी, घोड़ा चला, बारात निकली, बैंड—बाजे बजे, पंडित—पुरोहित ने मालाएं पहनाई, और एकदम से दि एण्ड हो जाता है। क्यों एकदम शहनाई बजती है और फिर दि एंड, अंत आ जाता है? उसका कारण है कि उसके बाद की कथा कहने योग्य नहीं है। उसके बाद जो होता है उससे भगवान ही बचाए।
जया, तू तो चिंतित नहीं है, यह मुझे पता है; लेकिन तेरी चिंता बेटी के लिए स्वाभाविक है। तू तो जीवन के अनुभव से सीखी है, परिपक्व हुई है। तुझे तो एक प्रौढ़ता मिली है। वही प्रौढ़ता तो तुझे मेरे पास ले आई है। उसी प्रौढ़ता ने तुझे संन्यास के जगत में प्रवेश दिलवाया।
और दूसरों का संन्यास इतना कठिन नहीं है जितना जया का है, क्योंकि जया के पति संन्यास के दुश्मन हैं। दुश्मन हैं, इसका मतलब ही है कि कभी न कभी संन्यासी होंगे। दुश्मन हैं, इसका मतलब मुझसे नाता जुड़ गया है। सोचते हैं मेरी, विचार करते हैं मेरी। गालियां देते हैं मुझे। चलो गाली के बहाने ही, लेकिन मेरा नाम तो लेते हैं। उस नाम में खतरा है। ऐसे सोचते रहे, सोचते रहे, तो वह नाम घर कर जाएगा। होंगे संन्यासी एक दिन। मगर जया को जितना कष्ट दिया जा सकता है... एक बार तो घर से ही निकाल दिया तो कोई महीने, पंद्रह दिन जया आश्रम में रही। बिना कुछ लिए—दिए घर से बाहर फेंक दिया, कि अगर संन्यासी रहना है तो इस घर में नहीं रह सकती।
तो जया जानती है कष्ट, लेकिन जया उसके लिए भी राजी थी। तो तू सोच सकती है हिना कि पति को छोड़ने को राजी थी तेरी मां, बच्चों को छोड़ने को राजी थी तेरी मां, जिनसे उसका बहुत प्रेम है— तुझे छोड़ने को राजी थी, और तेरे लिए उसका बहुत लगाव है— लेकिन संन्यास छोड़ने को राजी नहीं थी। तो जो जिंदगी ने नहीं दिया है वह संन्यास ने दिया होगा।
अच्छा हुआ। तू संन्यासी बन। और जब जया को तेरे पिता नहीं हरा पाए तो तुझे क्या हराके! थोड़े परेशान होंगे, शायद न भी हों, शायद तेरा संन्यास उनके जीवन में भी रूपांतरण का कारण बन जाए। निमित्त क्या बन जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। कौन सी छोटी सी बात निमित्त बन जाएगी! एक तिनका, कहते हैं, ऊंट को बिठा देता है। मनों बोझ था और ऊंट नहीं बैठा, और एक तिनका और ऊंट बैठ गया। बस उतने ही तिनके की कमी थी। हो सकता है, तेरा संन्यास उनके जीवन में भी एक नया द्वार खोल दे। इसलिए भयभीत न हो।
और ध्यान रखना कि मेरा संन्यास प्रेम के विरोध में नहीं हैं। मेरा संन्यास जीवन के विरोध में नहीं हैं। संन्यास के बाद भी तेरे जीवन में अभी प्रेम उठे तो प्रेम को जीना, कोई मनाही नहीं है। संन्यासी हो गई तो कभी तू प्रेम को न जी सकेगी, ऐसा नहीं; संन्यासी होने का अर्थ ही है कि अब हम पूरे प्रेम को जीएंगे, समग्रता से जीएंगें। लेकिन विवाह की भाषा में सोचो ही मत। अगर प्रेम की छाया की तरह विवाह घट जाए तो एक बात है, लेकिन यह आशा छोड़ दो कि विवाह के पीछे प्रेम चलेगा। विवाह के पीछे प्रेम नहीं चलता। विवाह से प्रेम का क्या संबंध है? प्रेम के पीछे विवाह चल सकता है। लेकिन इससे उलटा नहीं होता। और हम इससे उलटा ही करने में लगे हैं। हम पहले विवाह करते है, हम सोचते हैं कि विवाह होगा, फिर प्रेम होगा। बस हमने गाड़ी के पीछे बैल जोत दिए! अब न गाड़ी चलेगी, न बैल चलेंगे। बैल नहीं चल सकते गाड़ी की वजह से, क्योंकि गाड़ी आगे जुती है। और गाड़ी कैसे चले, क्योंकि उसके आगे बैल नहीं है। अब एक कलह शुरू हुई। बैल गाड़ी के आगे होने चाहिए, तो गाड़ी चल सकती है।
प्रेम सूत्र है। अगर उसके पीछे विवाह आ जाए तो ठीक, अनिवार्य भी नहीं है। प्रेम बिना विवाह के भी जीआ जा सकता है। सच तो यह है, विवाह कुछ न कुछ प्रेम में अड़चनें डाल देता है, क्योंकि विवाह के साथ आती हैं — अपेक्षाएं। विवाह के साथ आता है— आग्रह। विवाह के साथ आता है— एक—दूसरे पर दावेदारी का रुख। विवाह के साथ आती है— राजनीति, कि कौन मालिक, कौन प्रमुख? पुरुष समझता है कि वह खास है, स्त्री में क्या रखा है! स्त्री तो नरक का द्वार है! और पुरुष समझता है कि वह बलशाली है, इसलिए स्त्री को दबाने की हर चेष्टा करता है, मालकियत जमाने की पूरी कोशिश करता है।
उसी मालकियत जमाने में प्रेम मर जाता है। प्रेम तो फूल जैसी नाजुक चीज है, इस पर जोर से मुट्ठी बाधोगे, मर जाएगा।
और स्त्री भी पीछे नहीं है कुछ पुरुष से। वे उसकी अलग तरकीबें हैं। उसके अपने सूक्ष्म रास्ते हैं पुरुष को झुकाने के। पुरुष के रास्ते थोड़े फूहड़ हैं, थोड़े स्थूल हैं, साफ दिखाई पड़ते हैं। स्त्री के रास्ते सूक्ष्म हैं, स्थूल नहीं हैं, दिखाई भी नहीं पड़ते। और इसीलिए अंततः स्त्रियां जीत जाती हैं और पुरुष हार जाते हैं। देर लगती है स्त्री को जीतने में, लेकिन वह जीत जाती है। जीत जाती है इसलिए कि उसके सूक्ष्म रास्तों के सामने पुरुष धीरे— धीरे हारा हो जाता है, उसकी समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूं, क्या न करूं!
पुरुष को गुस्सा आए तो स्त्री को मारता है, स्त्री को गुस्सा आए तो वह खुद का सिर दीवाल से पीट लेती है। अब जब स्त्री दीवाल से सिर पीट ले तो पुरुष को पछतावा होता है कि यह मैंने झंझट क्यों खड़ी की! नाहक उसको इतना कष्ट दिया! पुरुष को गुस्सा आए तो स्त्री को रोने को मजबूर कर दे, स्त्री को गुस्सा आए तो खुद रो लेती है। ये सूक्ष्म प्रकार हैं कब्जा करने के। धीरे— धीरे यह संघर्ष दोनों को नष्ट करता है। दोनों जिंदगी भर इसी कोशिश में लगे रहते हैं।
जिंदगी और बड़े कामों के लिए है। कुछ और गीत गाने हैं या नहीं? कुछ और संगीत छेड़ना है या नहीं? कोई और महोत्सव खोजना है या नहीं? या बस इसी कलह में गुजार देना है? एक स्त्री और एक पुरुष लड़ते—लड़ते जिंदगी गुजार देते हैं। नब्बे प्रतिशत जीवन उनका इसी कलह में बीतता है। और परिणाम क्या है? हाथ में क्या लगता है? कभी मुश्किल से ही कोई जोड़ा दिखाई पड़ता है जो इस मूढ़ता से बचता हो। बहुत मुश्किल से।
मैं हजारों घरों में ठहरा हूं हजारों परिवारों का मुझे अनुभव है। कभी हजार में एक जोड़ा ऐसा दिखाई पड़ता है, जिसमें प्रेम है; नहीं तो बस कलह है, संघर्ष है, उपद्रव है।
संन्यास प्रेम—विरोधी नहीं है। इसलिए हिना, संन्यासी बन। और फिर तेरे जीवन में प्रेम उठे... और प्रेम उठ ही तब सकता है जब ध्यान गहरा हो। नहीं तो जिसे तुम प्रेम कहते हो वह सिवाय कामवासना के और कुछ भी नहीं। वह तो सिर्फ एक जैविक जबरदस्ती है। तुम्हारे भीतर प्रकृति का दबाव है, तुम्हारी मालकियत नहीं है। वह कोई प्रेम है? सिर्फ वासना की पूर्ति है। प्रेम कैसे हो सकता है? और जहां वासना की पूर्ति है वहां कलह होगी ही, क्योंकि जिससे हम वासना की पूर्ति करते हैं उस पर हम निर्भर हो जाते हैं।
और इस दुनिया में कोई भी किसी पर निर्भर नहीं होना चाहता। जिस पर हम निर्भर होते हैं, उसे हम कभी क्षमा नहीं कर पाते। क्योंकि जिस पर हम निर्भर होते हैं उसके हम गुलाम हो गए। पति पत्नी से बदला लेता है इस गुलामी का। पत्नी पति से बदला लेती है इस गुलामी का। जहां वासना है वहां बदला होगा। और जहां वासना है वहां पश्चात्ताप भी होगा, क्योंकि वासना हीन तल की बात है। जीवन का सबसे निम्नतम जो तल है वही वासना का है।
तो जब पुरुष किसी स्त्री. की वासना में पड़ता है तो उसे ऐसा लगता है इसी दुष्ट ने मुझे इस हीन तल पर उतार दिया! तो जब उसे पश्चाताप होता है, उसकी सारी जिम्मेवारी वह स्त्री पर थोपता है। इसीलिए तो तुम्हारे ऋषि—मुनि लिख गए कि स्त्री नरक का द्वार है।
स्त्री नरक का द्वार नहीं है, न पुरुष नरक का द्वार है। कोई दूसरा तुम्हारे लिए नरक का द्वार है ही नहीं; तुम ही अपने लिए नरक का द्वार बन सकते हो या स्वर्ग का द्वार बन सकते हो।
और जब स्त्री देखती है कि पति के कारण उसे वासना में उतरना पड़ता है.. और स्त्रियां ज्यादा देखती हैं, क्योंकि स्त्री की वासना निष्क्रिय वासना है, पुरुष की वासना सक्रिय वासना है। इसलिए तो पुरुष बलात्कार कर सकता है, स्त्री बलात्कार नहीं कर सकती। उसकी वासना निष्क्रिय वासना है। चूंकि उसकी वासना निष्क्रिय है, इसलिए पुरुष जब तक उसको उकसाए न, भड़काए न, तब तक उसकी
वासना सोई रहती है। तो स्वभावत: स्त्री को ज्यादा लगता है कि इस पुरुष के कारण ही मुझे वासना में उतरना पड़ता है।
मुझे कितनी स्त्रियों ने नहीं कहा है कि हम कब छूटेंगे इस क्षुद्रता से! इस देह की दौड़ कब बंद होगी, क्योंकि पति को तो तृप्ति ही नहीं है! और पति की मांग मिटती ही नहीं है! और पति के कारण हमें बार—बार इस गर्त में उतरना पड़ता है। कब छुटकारा होगा?
स्त्री को कठिनाई ज्यादा होती है और पश्चात्ताप भी ज्यादा होता है। इसलिए कोई स्त्री अपने पति को आदर नहीं कर सकती। किसी ऐरे—गैरे—नत्थू—खैरे को आदर कर सकती है। आ जाएं कोई मुनि महाराज गांव में, उनको आदर कर सकती है। कोई महात्मा, कोई बाबा, कोई भी, किसी को भी आदर कर सकती है, मगर अपने पति को नहीं कर सकती। हांलाकि कहती है औपचारिक रूप से कि पति परमात्मा है,मगर वे कहने की बातें हैं। जानती तो यह है कि यह पति के कारण ही मैं बार—बार नीचे उतारी जा रही हूं। अगर यह पति से छुटकारा हो जाता, अगर यह पति की वासना मिट जाती, तो मैं भी ऊपर उड़ सकती, मेरे भी पंख लग सकते!
स्त्री बहुत पछताती है। और पछताएगी तो जिम्मेवार पति को ठहराएगी। इसलिए फिर अनजाना क्रोध भड़केगा, चौबीस घंटे परेशानी रहेगी। और यह सब अचेतन होगा। यह चेतन में हो तो तुम समझ भी जाओ। यह अचेतन तल पर हो रहा है। इसलिए इसकी साफ—साफ तुम्हें पकड़ भी नहीं आती; धुंधला— धुंधला सा समझ में आता है, स्पष्ट कभी नहीं हो पाता कि यह खेल क्या है, यह गणित क्या है!
और जब स्त्री बचना चाहती है पति से, इसकी वासना से, तो स्वभावत: पति की वासना सक्रिय है, वह आस—पास की स्त्रियों में उत्सुक होने लगता है। फिर एक दूसरा उपद्रव शुरू होता है। फिर ईर्ष्या का और जलन का और वैमनस्य का उपद्रव शुरू होता है। फिर पत्नी अगर पति की वासना में सहयोगी भी होती है तो सिर्फ इसलिए कि कहीं वह किसी और स्त्री में उत्सुक न हो जाए।
मगर यह कोई प्रेम है? यह तो व्यवसाय हुआ,वेश्यागिरी हुई। यह तो यह ग्राहक कहीं किसी और दुकान पर न चला जाए, इस ग्राहक को बचाने का उपाय हुआ। और जहां प्रेम नहीं है वहां यह ग्राहक कितने दिन टिकेगा? यह ग्राहक अगर केवल शरीर के कारण टिका है तो शरीर से जल्दी ऊब जाएगा, क्योंकि एक ही शरीर बार—बार, एक ही ढंग, एक ही रंग, एक ही रूप— कौन नहीं ऊब जाता! तुम भी रोज एक ही भोजन करोगे तो ऊब जाओगे और एक ही कपड़ा पहनोगे तो परेशान हो जाओगे। थोड़ी बदलाहट चाहिए। एक ही फिल्म को रोज—रोज देखने जाओ तो ऊब जाओगे। चाहे मुफ्त ही क्यों न दिखाई जा रही हो तो भी घबड़ा जाओगे। वही फिल्म रोज—रोज देखना, वही स्त्री रोज—रोज!
पुरुष की वासना सक्रिय है, इसलिए वह जल्दी ऊब जाता है। वह इधर—उधर तलाश करने लगता है। और जब वह तलाश करता है तो उसकी स्त्री ईर्ष्या से जलती है। और वह ईर्ष्या का बदला लेगी, वह हजार तरह से पुरुष को कष्ट देगी। और जितना ही ईर्ष्या से जलेगी वह स्त्री और पुरुष को कष्ट देगी, उतना ही धक्का दे रही है कि वह किसी और दूसरी स्त्री के चक्कर में पड़ जाए। यह एक बड़ा उपद्रव का जाल है। और इस सब जाल के पीछे एक बात है कि हमारा प्रेम सच्चा प्रेम नहीं है। हमारा सच्चा प्रेम तो तभी हो सकता है जब प्रेम ध्यान से आविर्भूत हो।
मैं पहले ध्यान सिखाना चाहता हूं फिर ध्यान के पीछे आना चाहिए प्रेम। आता है, निश्चित आता है। और तब एक और ही लोक का प्रेम आता है, एक और ही जगत का प्रेम आता है। एक ऐसा प्रेम आता है, जो परमात्मा की गंध जैसा है! उस प्रेम में न पीड़ा है, न दंश है, न कांटे हैं, न जहर है। उस प्रेम में कोई राजनीति नहीं है, ईष्या नहीं, जलन नहीं। उस प्रेम में कोई पछतावा नहीं, दूसरे पर दावेदारी और मालकियत नहीं है।
हिना, बन सन्यासिन! सीख ध्यान और फिर उठने दे प्रेम को।
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