चौथा प्रश्न : हम दुख से तो सदा बचना चाहते हैं, पर जीवन की शैली निषेधात्मक क्यों कर बन जाती है?
बचना चाहते हो, तो जीवन की शैली निषेधात्मक बन ही जाएगी। वह बचने में ही तो निषेध है। भागना चाहते हो। किसी भी चीज को आमने—सामने साक्षात्कार नहीं करना चाहते।
दुख है तो भागोगे कहां? और दुख है तो परिस्थिति के कारण अगर होता, तो भाग भी जाते। दुख तो तुम्हारे ही कारण है। यही तो सभी ज्ञानियों का विश्लेषण है।
दुख परिस्थिति के कारण नहीं है। परिस्थिति बदली जा सकती है। पूना में दुख है, भाग जाओ कलकत्ता। शायद दो—चार दिन पाओ कि परिस्थिति के बदलने से दुख नहीं है। लेकिन जैसे ही व्यवस्थित हो जाओगे, पाओगे कि फिर दुख पैदा हो गया। क्योंकि तुम तो अपने साथ ही पहुंच जाओगे। तुम अपने को पीछे कहां छोड़ जाओगे।
तुम अपने दुख की सारी व्यवस्था अपने साथ लिए जा रहे हो। अगर यहां तुम्हारी लोगों से कलह हो जाती थी, क्रोध हो जाता था, कलकत्ते में नहीं होगा? फिर होगा। हिमालय पर जाओगे, क्या
होगा? वहां भी वही होगा। अगर तुम यहां उदास होते थे, दुखी होते थे, तो हिमालय पर बैठकर दुखी और उदास होओगे।
तुम्हारा होना तुम्हारे दुख का कारण है। भागो मत। पलायनवादी मत बनो। भगोड़ों से सारी पृथ्वी भरी है, पूरा मनुष्य जाति का इतिहास भरा है। उनसे कुछ बदला नहीं। उनसे जीवन में निषेध की शैली आई। उनसे लोगों ने यही सीखा कि जहां भी घबड़ाहट, परेशानी मालूम पड़े, वहां से भाग जाओ। भागकर जाओगे कहा? जो तुमने यहां पैदा किया था, वही तुम नई जगह फिर पैदा कर लोगे, थोड़ी देर लगेगी।
लोग मरघट ले जाते हैं किसी की अर्थी को, तो रास्ते में कंधा बदल लेते हैं। एक कंधे पर से अर्थी दूसरे कंधे पर रख ली, थोड़ी देर को राहत मिलती है। थका हुआ कंधा सुस्ता लेता है। सुस्ताया कंधा थोड़ा ताकतवर होता है। पर थोड़ी देर बाद फिर वही हालत आ जाती है।
कंधे मत बदलों। कंधे बदलने से कोई सार नहीं है। इसलिए मैं कहता हूं संसार को छोड्कर मत भागो। क्योंकि एक बार छोड्कर भागना तुम्हारी जीवन—शैली बन गई, तो तुम भागते ही रहोगे और पहुंचोगे कहीं भी नहीं। क्योंकि रोग तुम्हारे भीतर है, रोग तुम हो। औषधि वहीं करनी है, चिकित्सा वहीं करनी है, समाधान वहीं खोजना है, बाहर नहीं।
दुख से क्यों भागते हो? अगर दुख है, तो तुमने बुलाया होगा; बिना बुलाए संसार में कुछ आता नहीं। अगर दुख है, तो तुमने इसे संवारा होगा; अनजाने सही, बेहोशी में सही। तुमने शायद सुख ही चाहा होगा। तुम शायद सुख की आकांक्षा से ही कुछ किए थे। लेकिन दुख आया है। उससे साफ है कि तुम दुख के लिए निमंत्रण दिए थे।
तुमने बीज बोए। तुम आम की प्रतीक्षा करते थे, आम नहीं लगे, नीम के कड़वे फल लग गए। तो क्या तुम यह कहोगे कि आम के बीजों में नीम के फल लग गए? यह तो होता नहीं। होने की संभावना यही है कि जिन्हें तुमने आम के बीज समझा था, वे नीम के बीज थे। बीज बोने में भूल हो गई।
तुम चेष्टा तो करते हो सुख की, लेकिन मिलता दुख है। तुम ठीक से नहीं समझ पा रहे कि तुम नीम के बीज बो रहे हो, आकांक्षा आम की कर रहे हो। और रोज यही करते हो, फिर भी नहीं जागते। भागो मत। दुख है, तो तुम्हारे कारण। दुख है, तो तुमने बुलाया था, इसलिए आया है। दुख है, तो तुमने वर्षों तक इसकी प्रतीक्षा की थी, अब उसका आगमन हुआ है, अब भागते कहां हो! अब इस अतिथि का स्वागत करो। अब इस अतिथि को ठहराओ, इससे परिचित हो जाओ। इससे इतने परिचित हो जाओ कि दुबारा भूल —चूक से निमंत्रण न दिया जा सके। इसका नाम—पता, इसका जीवन —ढंग, इसकी स्थिति सब समझ लो, ताकि दुबारा तुम फिर से इनको पत्र न लिख दो। नहीं तो तुम फिर वही भूल करोगे।
भागने वाला बार—बार वही भूल करता है। तुम अब जागकर दुख को समझ लो।
मेरी जीवन—दृष्टि जागने पर जोर देती है, भागने पर नहीं, समझने पर जोर देती है, पलायन पर नहीं। वह तो कायर का मार्ग है। साहसी, थोड़ा भी साहसी हो, तो जो आ गया जीवन में उसका साक्षात्कार करता है।
दुख है, ठीक है। उसे देखो, क्यों है? कैसे आया? कैसे तुमने बुलाया? और अब तुम आगे बुलाने से कैसे बच सकते हो? नहीं तो तुम फिर—फिर वही भूल करोगे।
आदमी का बड़ा अदभुत लक्षण यह है कि वह अनुभव से सीखता ही नहीं। वही—वही तो घटनाएं तुम रोज करते हो। कल भी क्रोध किया, परसों भी क्रोध किया, जीवनभर क्रोध किया, आज भी क्रोध किया, कल भी क्रोध करोगे। तुम कुछ नया कर रहे हो? अगर तुम अपनी जीवनचर्या लिखो, तो तुम पाओगे, तुम्हारी जीवनचर्या वही की वही है, पुनरुक्ति होती है रोज। तुम गाड़ी के चाक हो, घूमते चले जाते हो, वही के वही; कोई फर्क नहीं पड़ता।
अब रुकी और समझो। दुख है। निश्चित, बहुत दुख है। क्योंकि तुमने अब तक दुख के बीज बोए। अब तुम फसल काट रहे हो। इसको तुम किसी और का उत्तरदायित्व मत समझो। नहीं तो फिर चूक जाओगे। पूरा उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लो कि मैंने जो किया, मैं भोग रहा हूं। यही तो सारा कर्म का सिद्धात है। जो बोया वह काटेगा। जो बोएगा, वही काटेगा। जो करेगा, वही भरेगा। बिलकुल साफ है।
समझो। दुख द्वार आया है, इस अवसर को ऐसे ही मत खो दो। यह समझने का बड़ा सुखद अवसर है। इसे ठीक से पहचान लो, ताकि दुबारा ये बीज तुम न बोओ।
और मैं नहीं कहता कि तुम कसम खाओ कि अब दुबारा बीज न बोएंगे, क्योंकि कसम भी नासमझ खाते हैं। समझ लिया, फिर क्या कसम खानी है। अगर तुमने क्रोध को समझ लिया कि दुख है, तो क्या तुम मंदिर में जाकर कसम खाओगे कि अब क्रोध कभी न करूंगा! यह बात ही फिजूल हो गई। तुमने दुख समझ लिया क्रोध को, बात खतम हो गई। अगर समझ लिया, तो तुम दुबारा इसी मार्ग से न गुजरोगे।
एक दफा आदमी दीवार से निकलने की कोशिश किया, सिर टूट गया; अब वह कसम थोड़े ही खाता है मंदिर में जाकर कि अब दुबारा दीवार से निकलने की कोशिश न करूंगा। चाहे दीवार कितना ही प्रलोभन दे और चाहे लोग कितना ही प्रचार करें, मैं तो अब दरवाजे से ही निकलूंगा। नहीं, ऐसा आदमी अपने आप दरवाजे से निकलता है। बात खतम हो गई।
दुख को ठीक से देख लो, वहां दीवार है। दरवाजा अगर तुमने देखा था, तो वह तुम्हारी भांति थी। वहां सिर्फ सिर टकराएगा, पीड़ा होगी, लहू बहेगा। द्वार को खोजो। द्वार पास ही है, दूर नहीं है। क्रोध में द्वार नहीं है, करुणा में द्वार है। हिंसा में द्वार नहीं है, घृणा में द्वार नहीं है। क्योंकि कभी कोई उनके द्वारा सुख नहीं पा सका। प्रेम में द्वार है, दया में द्वार है। उनसे जो गुजरे, वे प्रभु के मंदिर में प्रविष्ट हो गए।
तो दुख को ठीक से पहचान लो। और तब तुम पाओगे कि तुम्हारे जीवन में सुख अपने आप बरसने लगा।
ऐसा समझो कि दुख का तो अर्जन करना पड़ता है, सुख बरसता है। दुख तुम्हारी उपलब्धि है, सुख तुम्हारा स्वभाव। सुख के लिए किसी कारण की कोई जरूरत नहीं, दुख के लिए कारण होते हैं। अगर तुम चिकित्सक के पास जाओ, तो वह तुम्हारी बीमारी के कारण खोज सकता है, तुम्हारे स्वास्थ्य के कारण नहीं खोज सकता। स्वास्थ्य का कोई कारण होता ही नहीं। स्वास्थ्य स्वाभाविक है। जब बीमारी होती है, तब कारण होता है। तो चिकित्सक बीमारी का निदान कर देता है।
चिकित्साशास्त्र के पास स्वास्थ्य की कोई परिभाषा तक नहीं है। इतनी ही परिभाषा है कि जब कोई बीमारी न हो। यह भी कोई परिभाषा हुई? बीमारी से स्वास्थ्य की परिभाषा! कोई बीमारी न हो, तुम स्वस्थ हो।
इसका अर्थ यह हुआ कि स्वास्थ्य तो स्वभाव है, बीमारी पर— भाव है। बीमारी बाहर से आती है, इसलिए कारण खोजे जा सकते हैं। स्वास्थ्य तुम्हारे भीतर ही खिलता है, अकारण है। वह फूल अकारण है।
शांति भी अकारण है, अशांति सकारण है। दुख सकारण है, सुख अकारण है। अगर यह बात तुम्हें ठीक से समझ में आ जाए तो जब भी दुख हो, कारण खोजना; और जब भी सुख हो, तब सुख को भोगना, कारण वहां कोई है ही नहीं।
सुख को भोगो, दुख को समझो, परमात्मा दूर नहीं है फिर। सुख को जीओ, दुख को पहचानो, मोक्ष दूर नहीं है फिर। तुम ठीक रास्ते पर चल रहे हो।
सुख को पहचानते —पहचानते महासुख हो जाएगा। दुख को पहचानते—पहचानते दुख के कारण तिरोहित हो जाएंगे। उस घड़ी को हमने सच्चिदानंद कहा है। तब तुम्हारे जीवन की शैली विधायक होगी।
अभी तुम्हारे जीवन की शैली निषेधात्मक है। भागों, यह न करो, वह न करो। यहां से हटो, बचो। इससे तुम कहीं पहुंचे नहीं हो। न कहीं पहुंच सकते हो।
ओशो
गीता दर्शन, भाग -8,प्रवचन -209
बचना चाहते हो, तो जीवन की शैली निषेधात्मक बन ही जाएगी। वह बचने में ही तो निषेध है। भागना चाहते हो। किसी भी चीज को आमने—सामने साक्षात्कार नहीं करना चाहते।
दुख है तो भागोगे कहां? और दुख है तो परिस्थिति के कारण अगर होता, तो भाग भी जाते। दुख तो तुम्हारे ही कारण है। यही तो सभी ज्ञानियों का विश्लेषण है।
दुख परिस्थिति के कारण नहीं है। परिस्थिति बदली जा सकती है। पूना में दुख है, भाग जाओ कलकत्ता। शायद दो—चार दिन पाओ कि परिस्थिति के बदलने से दुख नहीं है। लेकिन जैसे ही व्यवस्थित हो जाओगे, पाओगे कि फिर दुख पैदा हो गया। क्योंकि तुम तो अपने साथ ही पहुंच जाओगे। तुम अपने को पीछे कहां छोड़ जाओगे।
तुम अपने दुख की सारी व्यवस्था अपने साथ लिए जा रहे हो। अगर यहां तुम्हारी लोगों से कलह हो जाती थी, क्रोध हो जाता था, कलकत्ते में नहीं होगा? फिर होगा। हिमालय पर जाओगे, क्या
होगा? वहां भी वही होगा। अगर तुम यहां उदास होते थे, दुखी होते थे, तो हिमालय पर बैठकर दुखी और उदास होओगे।
तुम्हारा होना तुम्हारे दुख का कारण है। भागो मत। पलायनवादी मत बनो। भगोड़ों से सारी पृथ्वी भरी है, पूरा मनुष्य जाति का इतिहास भरा है। उनसे कुछ बदला नहीं। उनसे जीवन में निषेध की शैली आई। उनसे लोगों ने यही सीखा कि जहां भी घबड़ाहट, परेशानी मालूम पड़े, वहां से भाग जाओ। भागकर जाओगे कहा? जो तुमने यहां पैदा किया था, वही तुम नई जगह फिर पैदा कर लोगे, थोड़ी देर लगेगी।
लोग मरघट ले जाते हैं किसी की अर्थी को, तो रास्ते में कंधा बदल लेते हैं। एक कंधे पर से अर्थी दूसरे कंधे पर रख ली, थोड़ी देर को राहत मिलती है। थका हुआ कंधा सुस्ता लेता है। सुस्ताया कंधा थोड़ा ताकतवर होता है। पर थोड़ी देर बाद फिर वही हालत आ जाती है।
कंधे मत बदलों। कंधे बदलने से कोई सार नहीं है। इसलिए मैं कहता हूं संसार को छोड्कर मत भागो। क्योंकि एक बार छोड्कर भागना तुम्हारी जीवन—शैली बन गई, तो तुम भागते ही रहोगे और पहुंचोगे कहीं भी नहीं। क्योंकि रोग तुम्हारे भीतर है, रोग तुम हो। औषधि वहीं करनी है, चिकित्सा वहीं करनी है, समाधान वहीं खोजना है, बाहर नहीं।
दुख से क्यों भागते हो? अगर दुख है, तो तुमने बुलाया होगा; बिना बुलाए संसार में कुछ आता नहीं। अगर दुख है, तो तुमने इसे संवारा होगा; अनजाने सही, बेहोशी में सही। तुमने शायद सुख ही चाहा होगा। तुम शायद सुख की आकांक्षा से ही कुछ किए थे। लेकिन दुख आया है। उससे साफ है कि तुम दुख के लिए निमंत्रण दिए थे।
तुमने बीज बोए। तुम आम की प्रतीक्षा करते थे, आम नहीं लगे, नीम के कड़वे फल लग गए। तो क्या तुम यह कहोगे कि आम के बीजों में नीम के फल लग गए? यह तो होता नहीं। होने की संभावना यही है कि जिन्हें तुमने आम के बीज समझा था, वे नीम के बीज थे। बीज बोने में भूल हो गई।
तुम चेष्टा तो करते हो सुख की, लेकिन मिलता दुख है। तुम ठीक से नहीं समझ पा रहे कि तुम नीम के बीज बो रहे हो, आकांक्षा आम की कर रहे हो। और रोज यही करते हो, फिर भी नहीं जागते। भागो मत। दुख है, तो तुम्हारे कारण। दुख है, तो तुमने बुलाया था, इसलिए आया है। दुख है, तो तुमने वर्षों तक इसकी प्रतीक्षा की थी, अब उसका आगमन हुआ है, अब भागते कहां हो! अब इस अतिथि का स्वागत करो। अब इस अतिथि को ठहराओ, इससे परिचित हो जाओ। इससे इतने परिचित हो जाओ कि दुबारा भूल —चूक से निमंत्रण न दिया जा सके। इसका नाम—पता, इसका जीवन —ढंग, इसकी स्थिति सब समझ लो, ताकि दुबारा तुम फिर से इनको पत्र न लिख दो। नहीं तो तुम फिर वही भूल करोगे।
भागने वाला बार—बार वही भूल करता है। तुम अब जागकर दुख को समझ लो।
मेरी जीवन—दृष्टि जागने पर जोर देती है, भागने पर नहीं, समझने पर जोर देती है, पलायन पर नहीं। वह तो कायर का मार्ग है। साहसी, थोड़ा भी साहसी हो, तो जो आ गया जीवन में उसका साक्षात्कार करता है।
दुख है, ठीक है। उसे देखो, क्यों है? कैसे आया? कैसे तुमने बुलाया? और अब तुम आगे बुलाने से कैसे बच सकते हो? नहीं तो तुम फिर—फिर वही भूल करोगे।
आदमी का बड़ा अदभुत लक्षण यह है कि वह अनुभव से सीखता ही नहीं। वही—वही तो घटनाएं तुम रोज करते हो। कल भी क्रोध किया, परसों भी क्रोध किया, जीवनभर क्रोध किया, आज भी क्रोध किया, कल भी क्रोध करोगे। तुम कुछ नया कर रहे हो? अगर तुम अपनी जीवनचर्या लिखो, तो तुम पाओगे, तुम्हारी जीवनचर्या वही की वही है, पुनरुक्ति होती है रोज। तुम गाड़ी के चाक हो, घूमते चले जाते हो, वही के वही; कोई फर्क नहीं पड़ता।
अब रुकी और समझो। दुख है। निश्चित, बहुत दुख है। क्योंकि तुमने अब तक दुख के बीज बोए। अब तुम फसल काट रहे हो। इसको तुम किसी और का उत्तरदायित्व मत समझो। नहीं तो फिर चूक जाओगे। पूरा उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लो कि मैंने जो किया, मैं भोग रहा हूं। यही तो सारा कर्म का सिद्धात है। जो बोया वह काटेगा। जो बोएगा, वही काटेगा। जो करेगा, वही भरेगा। बिलकुल साफ है।
समझो। दुख द्वार आया है, इस अवसर को ऐसे ही मत खो दो। यह समझने का बड़ा सुखद अवसर है। इसे ठीक से पहचान लो, ताकि दुबारा ये बीज तुम न बोओ।
और मैं नहीं कहता कि तुम कसम खाओ कि अब दुबारा बीज न बोएंगे, क्योंकि कसम भी नासमझ खाते हैं। समझ लिया, फिर क्या कसम खानी है। अगर तुमने क्रोध को समझ लिया कि दुख है, तो क्या तुम मंदिर में जाकर कसम खाओगे कि अब क्रोध कभी न करूंगा! यह बात ही फिजूल हो गई। तुमने दुख समझ लिया क्रोध को, बात खतम हो गई। अगर समझ लिया, तो तुम दुबारा इसी मार्ग से न गुजरोगे।
एक दफा आदमी दीवार से निकलने की कोशिश किया, सिर टूट गया; अब वह कसम थोड़े ही खाता है मंदिर में जाकर कि अब दुबारा दीवार से निकलने की कोशिश न करूंगा। चाहे दीवार कितना ही प्रलोभन दे और चाहे लोग कितना ही प्रचार करें, मैं तो अब दरवाजे से ही निकलूंगा। नहीं, ऐसा आदमी अपने आप दरवाजे से निकलता है। बात खतम हो गई।
दुख को ठीक से देख लो, वहां दीवार है। दरवाजा अगर तुमने देखा था, तो वह तुम्हारी भांति थी। वहां सिर्फ सिर टकराएगा, पीड़ा होगी, लहू बहेगा। द्वार को खोजो। द्वार पास ही है, दूर नहीं है। क्रोध में द्वार नहीं है, करुणा में द्वार है। हिंसा में द्वार नहीं है, घृणा में द्वार नहीं है। क्योंकि कभी कोई उनके द्वारा सुख नहीं पा सका। प्रेम में द्वार है, दया में द्वार है। उनसे जो गुजरे, वे प्रभु के मंदिर में प्रविष्ट हो गए।
तो दुख को ठीक से पहचान लो। और तब तुम पाओगे कि तुम्हारे जीवन में सुख अपने आप बरसने लगा।
ऐसा समझो कि दुख का तो अर्जन करना पड़ता है, सुख बरसता है। दुख तुम्हारी उपलब्धि है, सुख तुम्हारा स्वभाव। सुख के लिए किसी कारण की कोई जरूरत नहीं, दुख के लिए कारण होते हैं। अगर तुम चिकित्सक के पास जाओ, तो वह तुम्हारी बीमारी के कारण खोज सकता है, तुम्हारे स्वास्थ्य के कारण नहीं खोज सकता। स्वास्थ्य का कोई कारण होता ही नहीं। स्वास्थ्य स्वाभाविक है। जब बीमारी होती है, तब कारण होता है। तो चिकित्सक बीमारी का निदान कर देता है।
चिकित्साशास्त्र के पास स्वास्थ्य की कोई परिभाषा तक नहीं है। इतनी ही परिभाषा है कि जब कोई बीमारी न हो। यह भी कोई परिभाषा हुई? बीमारी से स्वास्थ्य की परिभाषा! कोई बीमारी न हो, तुम स्वस्थ हो।
इसका अर्थ यह हुआ कि स्वास्थ्य तो स्वभाव है, बीमारी पर— भाव है। बीमारी बाहर से आती है, इसलिए कारण खोजे जा सकते हैं। स्वास्थ्य तुम्हारे भीतर ही खिलता है, अकारण है। वह फूल अकारण है।
शांति भी अकारण है, अशांति सकारण है। दुख सकारण है, सुख अकारण है। अगर यह बात तुम्हें ठीक से समझ में आ जाए तो जब भी दुख हो, कारण खोजना; और जब भी सुख हो, तब सुख को भोगना, कारण वहां कोई है ही नहीं।
सुख को भोगो, दुख को समझो, परमात्मा दूर नहीं है फिर। सुख को जीओ, दुख को पहचानो, मोक्ष दूर नहीं है फिर। तुम ठीक रास्ते पर चल रहे हो।
सुख को पहचानते —पहचानते महासुख हो जाएगा। दुख को पहचानते—पहचानते दुख के कारण तिरोहित हो जाएंगे। उस घड़ी को हमने सच्चिदानंद कहा है। तब तुम्हारे जीवन की शैली विधायक होगी।
अभी तुम्हारे जीवन की शैली निषेधात्मक है। भागों, यह न करो, वह न करो। यहां से हटो, बचो। इससे तुम कहीं पहुंचे नहीं हो। न कहीं पहुंच सकते हो।
ओशो
गीता दर्शन, भाग -8,प्रवचन -209
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