*मित्रता* के संबंध नाभि के संबंध हैं,
तीन तरह के संबंध मनुष्य
के जीवन में होते हैं।
*बुद्धि के संबंध*,
जो बहुत गहरे नहीं हो सकते।
गुरु और शिष्य में ऐसी बुद्धि के संबंध होते हैं।
*प्रेम के संबंध*,
जो बुद्धि से ज्यादा गहरे होते हैं।
हृदय के संबंध, मां—बेटे में, भाई— भाई में,
पति—पत्नी में इसी तरह के संबंध होते हैं,
जो हृदय से उठते हैं।
और इनसे भी गहरे संबंध होते हैं,
जो नाभि से उठते हैं
*नाभि से जो संबंध उठते हैं,*
उन्हीं को मैं मित्रता कहता हूं।
वे प्रेम से भी ज्यादा गहरे होते हैं।
प्रेम टूट सकता है,
मित्रता कभी भी नहीं टूटती है।
जिसे हम प्रेम करते हैं,
उसे कल हम घृणा भी कर सकते हैं।
लेकिन जो मित्र है,
वह कभी भी शत्रु नहीं हो सकता है।
और हो जाए,
तो जानना चाहिए कि मित्रता नहीं थी।
*मित्रता के संबंध नाभि के संबंध हैं*,
जो और भी अपरिचित गहरे लोक से संबंधित हैं। इसीलिए बुद्ध ने नहीं कहा लोगों से
कि तुम एक—दूसरे को प्रेम करो।
*बुद्ध ने कहा मैत्री।*
यह अकारण नहीं था।
बुद्ध ने कहा कि तुम्हारे
जीवन में मैत्री होनी चाहिए।
किसी ने बुद्ध को पूछा भी कि
आप प्रेम क्यों नहीं कहते?
बुद्ध ने कहा मैत्री प्रेम से बहुत गहरी बात है।
प्रेम टूट भी सकता है।
मैत्री कभी टूटती नहीं।
और प्रेम बांधता है, मैत्री मुक्त करती है।
प्रेम किसी को बांध सकता है
अपने से,
पजेस कर सकता है,
मालिक बन सकता है,
लेकिन मित्रता किसी की मालिक नहीं
बनती, किसी को रोकती नहीं,
बांधती नहीं,
मुक्त करती है।
और प्रेम इसलिए भी बंधन वाला हो जाता है
कि प्रेमियों का आग्रह होता है
कि हमारे अतिरिक्त और प्रेम किसी से भी नहीं।
*लेकिन मित्रता का कोई आग्रह नहीं होता।*
एक आदमी के हजारों मित्र हो सकते हैं,
लाखों मित्र हो सकते हैं,
क्योंकि मित्रता बड़ी व्यापक,
गहरी अनुभूति है।
जीवन की सबसे गहरी केंद्रीयता
से वह उत्पन्न होती है।
इसलिए मित्रता अंततः
परमात्मा की तरफ ले
जाने वाला सबसे बड़ा
मार्ग बन जाती है।
जो सबका मित्र है,
वह आज नहीं कल परमात्मा
के निकट पहुंच जाएगा,
क्योंकि सबके नाभि—केंद्रों से
उसके संबंध स्थापित हो रहे हैं
और एक न एक दिन वह विश्व
की नाभि—केंद्र से भी
संबंधित हो जाने को है
ओशो
तीन तरह के संबंध मनुष्य
के जीवन में होते हैं।
*बुद्धि के संबंध*,
जो बहुत गहरे नहीं हो सकते।
गुरु और शिष्य में ऐसी बुद्धि के संबंध होते हैं।
*प्रेम के संबंध*,
जो बुद्धि से ज्यादा गहरे होते हैं।
हृदय के संबंध, मां—बेटे में, भाई— भाई में,
पति—पत्नी में इसी तरह के संबंध होते हैं,
जो हृदय से उठते हैं।
और इनसे भी गहरे संबंध होते हैं,
जो नाभि से उठते हैं
*नाभि से जो संबंध उठते हैं,*
उन्हीं को मैं मित्रता कहता हूं।
वे प्रेम से भी ज्यादा गहरे होते हैं।
प्रेम टूट सकता है,
मित्रता कभी भी नहीं टूटती है।
जिसे हम प्रेम करते हैं,
उसे कल हम घृणा भी कर सकते हैं।
लेकिन जो मित्र है,
वह कभी भी शत्रु नहीं हो सकता है।
और हो जाए,
तो जानना चाहिए कि मित्रता नहीं थी।
*मित्रता के संबंध नाभि के संबंध हैं*,
जो और भी अपरिचित गहरे लोक से संबंधित हैं। इसीलिए बुद्ध ने नहीं कहा लोगों से
कि तुम एक—दूसरे को प्रेम करो।
*बुद्ध ने कहा मैत्री।*
यह अकारण नहीं था।
बुद्ध ने कहा कि तुम्हारे
जीवन में मैत्री होनी चाहिए।
किसी ने बुद्ध को पूछा भी कि
आप प्रेम क्यों नहीं कहते?
बुद्ध ने कहा मैत्री प्रेम से बहुत गहरी बात है।
प्रेम टूट भी सकता है।
मैत्री कभी टूटती नहीं।
और प्रेम बांधता है, मैत्री मुक्त करती है।
प्रेम किसी को बांध सकता है
अपने से,
पजेस कर सकता है,
मालिक बन सकता है,
लेकिन मित्रता किसी की मालिक नहीं
बनती, किसी को रोकती नहीं,
बांधती नहीं,
मुक्त करती है।
और प्रेम इसलिए भी बंधन वाला हो जाता है
कि प्रेमियों का आग्रह होता है
कि हमारे अतिरिक्त और प्रेम किसी से भी नहीं।
*लेकिन मित्रता का कोई आग्रह नहीं होता।*
एक आदमी के हजारों मित्र हो सकते हैं,
लाखों मित्र हो सकते हैं,
क्योंकि मित्रता बड़ी व्यापक,
गहरी अनुभूति है।
जीवन की सबसे गहरी केंद्रीयता
से वह उत्पन्न होती है।
इसलिए मित्रता अंततः
परमात्मा की तरफ ले
जाने वाला सबसे बड़ा
मार्ग बन जाती है।
जो सबका मित्र है,
वह आज नहीं कल परमात्मा
के निकट पहुंच जाएगा,
क्योंकि सबके नाभि—केंद्रों से
उसके संबंध स्थापित हो रहे हैं
और एक न एक दिन वह विश्व
की नाभि—केंद्र से भी
संबंधित हो जाने को है
ओशो
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