अख़बारों की सुर्ख़ियों से लेकर भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में एक मसला काफी ज्यादा बहस का मुद्दा बना रहा है। यह मुद्दा एनआरसी (NRC) का है। एनआरसी, जिसके असम राज्य के सम्बन्ध को हम मुख्य तौर पर देख रहे हैं, नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजन्स के नाम से जाना जाता है। असं एक मात्रा ऐसा राज्य है, जहाँ ऐसा कोई रजिस्टर अस्तित्व में है। हम इस लेख के माध्यम से यह प्रयास करेंगे कि आपको इस पूरे मुद्दे के बारे में जानकारी दी जा सके। असम में पलायन की शुरुआत असम सरकार के द्वारा अक्टूबर, 2012 में विदेश मामलों से जुड़ा एक श्वेत पत्र प्रकाशित किया गया था। इसके अनुसार जब ब्रिटिश हुकूमत ने 1826 के दौरान, आज के असम राज्य वाले इलाके को अपने प्रभाव में लिया तो वहां तमाम प्रकार की नौकरियां उत्पन्न हुई। जिन नौकरियों में पढ़े लिखे लोगों को काम दिया जाना था, वहां बंगालियों को नौकरी दी गयी। हालाँकि इसके साथ ही, वहां पर तमाम प्रकार की छोटी-मोटी नौकरियां भी उत्पन्न हुई। इसी दौरान असम में चाय की खेती की शुरुआत भी हुई, जिसके लिए बड़े स्तर पर मजदूरों की आवश्यकता हुई जो बेहद कम पारिश्रमिक पर कार्य करें, और इसलिए तमाम मजदूरों को आज के बिहार, ओडिशा, छोटा नागपुर, उत्तर प्रदेश आदि इलाकों से लाकर वहां बसाया गया। चूँकि असम में खेती का भरपूर माहौल बन रहा था, इसलिए ब्रिटिश हुकूमत ने वहां रहने के लिए लोगों को परमिट देना शुरू किया, इसके साथ ही उन्हें 2-3 सालों के लिए लगान/कर से भी मुक्ति दे दी गयी। इसी कारणवश, बड़ी संख्या में लोग पूर्व बंगाल (आज के बांग्लादेश) से पलायन करते हुए असम में आकर रहने लगे। श्वेत पत्र का कहना है कि आजादी के दौरान भी, बड़ी संख्या में लोग पलायन करके असम में आये और बस गए (जिनमे से ज्यादातर मुस्लिम थे)। अवैध प्रवासियों की लगातार आमद से संबंधित मामले की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए, भारत सरकार ने अप्रवासियों (असम से निष्कासन) अधिनियम, 1950 तैयार किया। यह अधिनियम जो 1 मार्च 1950 से लागू हुआ, अवैध प्रवासियों के निष्कासन के लिए अस्तित्व में लाया गया। असम राज्य में अवैध प्रवासियों की पहचान करने के लिए, 1951 की जनगणना के आयोजन के दौरान असम में पहली बार नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) तैयार किया गया था। हालांकि, अवैध प्रवासियों के खिलाफ यह उपाय कुछ ख़ास सफल नहीं हुआ, क्यूंकि अक्टूबर 1952 के बाद से पासपोर्ट और वीजा के नियम भारत और पाकिस्तान के बीच लागू हुए (और पलायन करके भारत आने वाले लोग अक्टूबर 1952 से पहले बड़ी संख्या में आ चुके थे)। पाकिस्तान के निवासियों को 'विदेशी' कहने से जुड़ा कानून भी 1957 में संशोधित किया गया, जिससे इससे पहले पलायन करके आने वाले लोगों की पहचान के बावजूद उन्हें विदेशी कहने में दिक्कत आती। 1965 में भारत सरकार ने असम सरकार के साथ सहयोग किया ताकि अवैध नागरिकों की पहचान में सहायता के लिए भारतीय नागरिकों को इस रजिस्टर के आधार पर राष्ट्रीय नागरिकों दर्जा दिया जा सके और राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी किया जा सके। लेकिन 1966 में केंद्र सरकार ने असम सरकार के परामर्श से पहचान पत्र जारी करने के प्रस्ताव को छोड़ दिया, जिससे आगे यह परियोजना अव्यवहारिक हो गई। पाकिस्तान से विभाजन के बाद बांग्लादेश से पलायन यही नहीं, 1972 में जब बांग्लादेश, पाकिस्तान से अलग हुआ तो भी बड़ी संख्या में वहां की आबादी भारत के असम में आकर बसने लगी (पलायन के जरिये) और इस के चलते असम में मुसलमानों की संख्या काफी बढ़ गयी। एक आंकड़े के मुताबिक, वर्ष 1991 में असम में मुसलमानों की संख्या, 8,20,000 थी, जो की स्वाभाविक रूप से 4,24,000 से ज्यादा नहीं हो सकती थी। इस बीच तमाम युवा संगठन, गैर भारतीय नागरिकों को भारत से बाहर भेजे जाने को लेकर मांग कर रहे थे। लेकिन यह बात अपने चरम पर तब पहुंची जब वर्ष 1978 में मंगलदोई (असम) में लोकसभा बाई-इलेक्शन हुए और चूँकि यहाँ बड़ी मात्रा में पलायन करके आये लोग रह रहे थे, इसलिए वहां वोट देने वाले लोगों की संख्या, दो साल पहले की अपेक्षा दोगुनी हो गयी। इसके चलते तमाम संगठनों का विरोध तेज़ हो गया। बांग्लादेश से असम में अवैध प्रवासियों की निरंतर आमद को देखते हुए, 1979 में छात्र नेताओं ने असम के अवैध प्रवासियों को हिरासत में लेने, निर्वस्त्र करने और निर्वासित करने की मांग को लेकर उग्र विरोध प्रदर्शन किया। ऐतिहासिक आंदोलन जिसे असम आंदोलन या असम आंदोलन के रूप में जाना जाता है, ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (एएएसयू) और सभी असम गण संग्राम परिषद (एएजीएसपी) द्वारा शुरू किया गया और यह 6 साल तक चला। अंततः 15 अगस्त 1985 को असम एकॉर्ड पर हस्ताक्षर किये गए। असम एकॉर्ड इस एकॉर्ड में बेहद जरुरी बातें कही गयी, जिसका आज के एनआरसी मामले पर विशेष प्रभाव पड़ा है। कुछ प्रमुख बातें इस प्रकार हैं। 1 - 1 जनवरी 1966 के पहले असम में रह रहे लोग, भारतीय माने जायेंगे 2 - 1 जनवरी 1966 से 25 मार्च 1971 को 10 वर्षों के लिए डिसएनफ्रेंचाइज़ किया जायेगा। इस दौरान असम आने वाले सभी व्यक्तियों का पता, विदेशियों अधिनियम, 1946 और विदेशियों (ट्रिब्यूनल) के आदेशों, 1939 के प्रावधानों के अनुसार लगाया जाएगा। उन्हें मतदाता सूची से हटा दिया जाएगा। ऐसे व्यक्तियों को पंजीकरण अधिनियम, 1939 और विदेशियों के पंजीकरण के नियमों, 1939 के पंजीकरण के प्रावधानों के अनुसार संबंधित जिलों के पंजीकरण अधिकारियों के समक्ष खुद को पंजीकृत करना आवश्यक होगा। ३ - 25 मार्च 1971 को या उसके बाद असम आने वाले लोगों का विदेशी कानून के अनुसार पता लगाया, हटाया और निष्कासित करना जारी रखा जायेगा। इसके बाद 1955 के नागरिकता अधिनियम को संशोधित किया गया, जिससे 1 जनवरी 1966 से पहले बांग्लादेश से आए सभी भारतीय मूल के लोगों को नागरिक समझा जा सके। 1 जनवरी 1966 और 25 मार्च 1971 के बीच आने वाले लोग, राज्य में रहने के 10 साल बाद पंजीकरण और नागरिकता के पात्र थे, जबकि 25 मार्च 1971 के बाद प्रवेश करने वालों को निर्वासित किया जाना था। हालाँकि इसके बाद कोई कार्य हो न सका और न ही ऐसे लोगों को चिन्हित किया गया। यह मामला ठन्डे बास्ते में चला गया। सुप्रीम कोर्ट का दखल और सत्यापन प्रक्रिया 2013 में सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के अनुसार, असम में एनआरसी अपडेट करने की प्रक्रिया शुरू की गई थी। बांग्लादेश और अन्य आस-पास के क्षेत्रों से अवैध प्रवास के मामलों को समाप्त करने के लिए, एनआरसी अपडेशन को नागरिकता अधिनियम, 1955 के तहत किया गया था और असम समझौते में बनाए गए नियम के अंतर्गत इसका क्रियान्वयन होना था। दरअसल असम लोक निर्माण द्वारा दाखिल रिट याचिकाओं के बाद, माननीय उच्चतम न्यायालय के आदेश के इशारे पर यह मुद्दा एक बार फिर प्रकाश में आया। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 2013 में, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति रोहिंटन फली नरीमन की खंडपीठ के नेतृत्व में, केंद्र सरकार और राज्य सरकार को निर्देश दिया कि एनआरसी को अद्यतन क्या जाए, और इसे नागरिकता अधिनियम, 1955 के पालन में लागू किया जाए। अपडेट करने की प्रक्रिया मई 2015 में शुरू हुई और 31 अगस्त 2015 को समाप्त हुई। कुल 3.29 करोड़ लोगों ने 68.31 लाख एप्लीकेशन के माध्यम से आवेदन किया। सत्यापन की प्रक्रिया में घर-घर के क्षेत्र का सत्यापन, दस्तावेजों की प्रामाणिकता का निर्धारण, परिवार के सदस्यों की जांच पड़ताल और मातृत्व के दावों और विवाहित महिलाओं के लिए अलग-अलग सुनवाई के नियम का पालन करना शामिल रहा। NRC अपडेटेड सूची असम में अपडेटेड नागरिक रजिस्टर (NRC) के अंतिम मसौदे ने 2.89 करोड़ नागरिकों को सूचीबद्ध किया। ये समावेश के लिए 3.29 करोड़ आवेदकों में से थे। इस सूची में 40 लाख आवेदकों को शामिल नहीं किया गया। जारी किए गए अंतिम मसौदा एनआरसी से छूटे हुए 40।07 लाख आवेदकों में से 2।48 लाख आवेदकों को डी-वोटर (संदिग्ध मतदाता, जिन्हें नागरिकता साबित करने में विफलता के कारण डिसएनफ्रैंचाइज़ड किया गया है) की सूची में रखा गया है, डी-मतदाताओं और उनके परिवार के मामले विदेशी ट्रिब्यूनल के समक्ष लंबित हैं। जहाँ 40,70,707 लोगों के नाम सूची में नहीं थे, वहीँ इनमें से, 37,59,630 नामों को खारिज कर दिया गया है और जैसा की ऊपर बताया गया है, शेष 2,48,077 को होल्ड पर रखा गया है। इस बीच 6 दिसंबर, 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने कमलाख्या डे पुरकायस्थ बनाम भारत संघ मामले में, यह माना जाता है कि नागरिक जो मूल रूप से असम राज्य के निवासी हैं और जो नहीं हैं, वे नागरिक के राष्ट्रीय रजिस्टर (NRC) में शामिल होने के लिए बराबरी पर हैं। कोर्ट ने यह भी साफ़ किया था कि संविधान और नागरिकता कानून (प्रावधान 6A सहित) ही इस लिस्ट में शामिल होने के असली टेस्ट हैं। अदालत ने दिया नागरिकता सिद्ध करने का एक और मौका सुप्रीम कोर्ट ने 28 अगस्त, 2018 को कहा था कि वह आवश्यकता पड़ने पर अंतिम ड्राफ्ट NRC में शामिल नामों में से कम से कम 10 प्रतिशत के सैंपल री-वेरिफिकेशन के आदेश की आवश्यकता पर विचार करेगा। न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति रोहिंटन फली नरीमन की पीठ ने अंतिम ड्राफ्ट एनआरसी से बाहर किए गए आबादी के प्रतिशत के जिलेवार आंकड़ों में से निकले गए नामों को देखने के बाद ऐसा कहा। इससे पहले, सुप्रीम कोर्ट पीठ ने असम एनआरसी समन्वयक प्रतीक हजेला को एनआरसी मसौदे से बाहर रखे गए लोगों के जिलेवार प्रतिशत डेटा प्रस्तुत करने के लिए कहा था। इस मुद्दे के "परिमाण" को ध्यान में रखते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने 19 सितम्बर, 2018 को उन लाखों लोगों को एक और अवसर प्रदान किया, जिनके नाम एनआरसी की लिस्ट में दर्ज नहीं हैं कि वो इस लिस्ट में शामिल हो सकें। अदालत ने 10 दस्तावेजों को सूचीबद्ध करते हुए कहा कि उन दस्तावेजों के बल पर नागरिकता के दावे और आपत्तियां दर्ज कराई जा सकती हैं। केंद्र, असम सरकार और इस मामले में अन्य पक्षों को सुनने के बाद, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति रोहिंटन फली नरीमन की पीठ ने तब कहा, "हम इस विचार के हैं कि इस चरण में 30 जुलाई 2018 को प्रकाशित एनआरसी के अंतिम मसौदा के संबंध में दावे और आपत्तियों की प्राप्ति के लिए प्रक्रिया को शुरू किया जाए।" मौजूदा परिदृश्य पीठ को हाल ही में सूचित किया गया कि 31 दिसंबर, 2018 को दावों और आपत्तियों को दायर करने की प्रक्रिया समाप्त हो गई है और लगभग 36.2 लाख दावे और लगभग 2 लाख आपत्तियां दर्ज की गई हैं। इसके अलावा, सुनवाई के लिए नोटिस जारी किए गए हैं !
क्या मर्द और क्या औरत, सभी की उत्सुकता इस बात को लेकर होती है कि पहली बार सेक्स कैसे हुआ और इसकी अनुभूति कैसी रही। ...हालांकि इस मामले में महिलाओं को लेकर उत्सुकता ज्यादा होती है क्योंकि उनके साथ 'कौमार्य' जैसी विशेषता जुड़ी होती है। दक्षिण एशिया के देशों में तो इसे बहुत अहमियत दी जाती है। इस मामले में पश्चिम के देश बहुत उदार हैं। वहां न सिर्फ पुरुष बल्कि महिलाओं के लिए भी कौमार्य अधिक मायने नहीं रखता। महिला ने कहा- मैं चाहती थी कि एक बार यह भी करके देख लिया जाए और जब तक मैंने सेक्स नहीं किया था तब तो सब कुछ ठीक था। पहली बार सेक्स करते समय मैं बस इतना ही सोच सकी- 'हे भगवान, कितनी खुशकिस्मती की बात है कि मुझे फिर कभी ऐसा नहीं करना पड़ेगा।' उनका यह भी कहना था कि इसमें कोई भी तकलीफ नहीं हुई, लेकिन इसमें कुछ अच्छा भी नहीं था। पहली बार कुछ ठीक नहीं लगा, लेकिन वर्जीनिया की एक महिला का कहन...
Comments