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अभियुक्त को उसकी दया याचिका खारिज होने से पहले ही काल-कोठरी या एकांतवास में रखना स्पष्ट रूप से अवैध है ! सुप्रीम कोर्ट !

दया याचिका खारिज होने से पहले ही मौत की सज़ा पाए अभियुक्त को काल कोठरी में रखना है स्पष्ट रूप से अवैध-सुप्रीम कोर्ट सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि फांसी की सज़ा पाए एक अभियुक्त को उसकी दया याचिका खारिज होने से पहले ही काल-कोठरी या एकांतवास में रखना स्पष्ट रूप से अवैध है। धर्मपाल को एक हत्या के मामले में फांसी की सज़ा दी गई थी। जिसे वर्ष 1999 में सुप्रीम कोर्ट ने भी सही ठहराया था। उसने वर्ष 1999 में क्षमा याचना की मांग करते हुए याचिका दायर की,परंतु वर्ष 2013 में राष्ट्रपति ने उसकी इस क्षमा या दया याचिका को खारिज कर दिया। बाद में पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने उसकी तरफ से दायर रिट पैटिशन को स्वीकार करते हुए उसकी फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया क्योंकि परिस्थितियों में बदलाव आ गया था। उसे एक दुष्कर्म के मामले में बरी कर दिया गया था। जिसने उसकी अपील पर निर्णय लेने में महत्वपूर्ण भूूमिका निभाई,वहीं उसकी दया याचिका पर भी राष्ट्रपति द्वारा लिए जाने वाले निर्णय में होने वाली देरी आदि अन्य आधार बने। जब तक दया याचिका रद्द नहीं हो जाती है तब तक यह नहीं कहा जा सकता है कि अभियुक्त ''फांसी की सजा''काट रहा है। इन सब सुनवाई के दौरान केंद्र ने माना कि धर्मपाल लगभग 18 साल एकांतवास में रहा और अभी तक कुल 25 साल की सज़ा काट चुका है। सुनील बत्तरा मामले में दिए गए फैसले का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि जब सेशन कोर्ट किसी अभियुक्त को फांसी की सजा देती है तो उसकी पुष्टि हाईकोर्ट द्वारा की जाती है। इतना ही नहीं अगर हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सज़ा के खिलाफ अपील दायर की जाती है और वह अपील लंबित है तो भी यह नहीं कहा जा सकता है कि अभियुक्त ''फांसी की सजा'' काट रहा है। ऐसा सिर्फ उसकी दया याचिका को राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा खारिज करने के बाद ही कहा जा सकता है। इस मामले में जस्टिस एन.वी रमाना,जस्टिस मोहन.एम शांतनागौड़र व जस्टिस एस.अब्दुल नजीर की पीठ ने कहा कि,मुख्य सुर्खियां ताजा खबरें स्तंभ साक्षात्कार विदेशी/अंतरराष्ट्रीय आरटीआई दया याचिका खारिज होने से पहले ही मौत की सज़ा पाए अभियुक्त को काल कोठरी में रखना है स्पष्ट रूप से अवैध- कोर्ट ने कहा है कि फांसी की सज़ा पाए एक अभियुक्त को उसकी दया याचिका खारिज होने से पहले ही काल-कोठरी या एकांतवास में रखना स्पष्ट रूप से अवैध है। धर्मपाल को एक हत्या के मामले में फांसी की सज़ा दी गई थी। जिसे वर्ष 1999 में सुप्रीम कोर्ट ने भी सही ठहराया था। उसने वर्ष 1999 में क्षमा याचना की मांग करते हुए याचिका दायर की,परंतु वर्ष 2013 में राष्ट्रपति ने उसकी इस क्षमा या दया याचिका को खारिज कर दिया। बाद में पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने उसकी तरफ से दायर रिट पैटिशन को स्वीकार करते हुए उसकी फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया क्योंकि परिस्थितियों में बदलाव आ गया था। उसे एक दुष्कर्म के मामले में बरी कर दिया गया था। जिसने उसकी अपील पर निर्णय लेने में महत्वपूर्ण भूूमिका निभाई,वहीं उसकी दया याचिका पर भी राष्ट्रपति द्वारा लिए जाने वाले निर्णय में होने वाली देरी आदि अन्य आधार बने। जब तक दया याचिका रद्द नहीं हो जाती है तब तक यह नहीं कहा जा सकता है कि अभियुक्त ''फांसी की सजा''काट रहा है। इन सब सुनवाई के दौरान केंद्र ने माना कि धर्मपाल लगभग 18 साल एकांतवास में रहा और अभी तक कुल 25 साल की सज़ा काट चुका है। सुनील बत्तरा मामले में दिए गए फैसले का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि जब सेशन कोर्ट किसी अभियुक्त को फांसी की सजा देती है तो उसकी पुष्टि हाईकोर्ट द्वारा की जाती है। इतना ही नहीं अगर हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सज़ा के खिलाफ अपील दायर की जाती है और वह अपील लंबित है तो भी यह नहीं कहा जा सकता है कि अभियुक्त ''फांसी की सजा'' काट रहा है। ऐसा सिर्फ उसकी दया याचिका को राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा खारिज करने के बाद ही कहा जा सकता है। इस मामले में जस्टिस एन.वी रमाना,जस्टिस मोहन.एम शांतनागौड़र व जस्टिस एस.अब्दुल नजीर की पीठ ने कहा कि- ''जब तक राष्ट्रपति ने उसकी दया याचिका पर अपना फैसला नहीं दिया,उसे अलग-अलग जेल में एकांतवास में रखा गया। परंतु दया याचिका खारिज होने से पहले किसी को एकांतवास में रखना अवैध है। ऐसा करना उसे अलग से व अतिरिक्त सजा देने जैसा है,जो कि कानून में मान्य नहीं है। ऐसे में उसकी दया याचिका खारिज होने से पहले उसे एकांतवास में रखना,जबकि इस संबंध में यह कोर्ट कई फैसले दे चुकी है,दुर्भाग्यपूर्ण है और स्पष्ट तौर पर अवैध है। इस मामले में प्रतिवादी इतने साल तक एकांतवास में रह चुका है जबकि ऐसा तक हुआ,जब उसकी दया याचिका खारिज भी नहीं हुई थी। ऐसे में यह एक उपयुक्त मामला बनता है कि उसकी फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया जाए। हाईकोर्ट का फैसला एकदम सही है।''

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