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शायद कपड़े ही पहचाने जाते हैं। गालिब वापस लौट आया !

                                   ओशो.

गालिब को एक दफा, बहादुरशाह ने बुलाया है। निमंत्रण दिया है, भोजन के लिए आ जाओ। कवि है, गरीब आदमी है। फटे-पुराने पहनकर चलने लगा। मित्रों ने कहा, यह पहनकर मत जाओ। राजा के दरवाजे पर ये कपड़े नहीं पहचाने जाते। गालिब ने कहा, मुझे बुलाया है कि मेरे कपड़ों को? नासमझ रहा होगा। दुनिया में कपड़े ही बुलाए जाते हैं, पहचाने जाते हैं। आदमी--आदमी को बुलाने को वक्त कहां, आया अभी तक? समय कहां आया वह? गालिब नहीं माना। कुछ लोग जिद्दी होते हैं, नहीं मानते। मित्रों ने बहुत कहा, हम उधार कपड़े ले आते हैं। गालिब ने कहा, उधार कपड़े--क्या उचित होगा? उससे तो फटे-पुराने अपने ही बेहतर--कम से कम अपने तो है। कोई यह तो नहीं कह सकता कि उधार हैं। उन्होंने कहा, पागल हुए हो, कौन पहचानता है कि उधार है कि अपना है। इस दुनिया में सब उधार चल रहा है। उधार ज्ञान से आदमी ज्ञानी हो जाता है। तुम उधार कपड़ों की फिकर करते हो? गालिब नहीं माना। गालिब ने कहा, नहीं, जो अपना है वही ठीक है। गरीब भी, भी अपना ही तो है। फिर कपड़े की क्या फिकर! मैं हूं। मैं तो वही रहूंगा। कपड़े कोई भी हों। मित्रों ने कहा, यह सब तुम नासमझी की बातें कर रहे हो। आदमी कपड़े से बदल जाते हैं। कपड़े जैसे हैं वैसा आदमी हो जाता है। नहीं माना गालिब, चला गया। दरवाजे पर जाकर जब भीतर जाने लगा द्वार पर खड़े द्वारपाल ने एक धक्का दिया और कहा, कहां भीतर जा रहे हो? यह कोई धर्मशाला है? कहां घुस रहे हो? गालिब ने कहा, मुझे बुलाया गया है। सम्राट मेरे मित्र हैं। उन्होंने निमंत्रण भेजा है। उस सिपाही ने कहा, हद हो गयी। हर किसी भिखमंगे को सम्राट से दोस्ती का खाल हो जाता है। रास्ते पर चलो,अन्यथा उठाकर बंद करवा दूंगा। गालिब को तब मित्र याद आए कि गलती हो गयी। शायद कपड़े ही पहचाने जाते हैं। गालिब वापस लौट आया। मित्रों से कहा, क्षमा मांगता हूं, भूल हो गई। कपड़े ले आओ। मित्र तो उधार कपड़े ले आए।

जूते उधार हैं, पगड़ी उधार है, कोट उधार है, सब उधार है। उधार आदमी बड़ा जंचता है। गालिब खूब जंचने लगे। सड़क पर हर दुकानदार झुक-झुककर नमस्कार करने लगा। आदमी की यह जात, या आदमियत अब तक उधार ही को नमस्कार करती रही है। यही गालिब थोड़ी देर पहले इसी रास्ते से निकला था। किसी ने नमस्कार नहीं किया था। रास्ता वही है,लोग वही है, गालिब वही है, कपड़े बदल गए, सब बदल गया। गालिब तो हैरान हो गया। यह सत्य कभी न जाना था कि कपड़ों में इतना सत्य है। द्वारपाल के पास पहुंचा है। द्वारपाल ने झुककर नमस्कार किया, और कहा कि कहां पहुंचाऊं? कैसे आए महाराज? गालिब ने गौर से उसे देखा लेकिन द्वारपाल नहीं पहचानता। आंख है, आंखों में कौन झांकता है?
कपड़ों में देखने से फुर्सत मिले कि कोई आंखों में झांके। आदमी कौन देखता है? कपड़ों से आंख हटे तो कोई आदमी को देखे और जिनके भीतर आदमी कभी नहीं होता वे चौबीस घंटे कपड़ों की फिकर में होते हैं। कोई गेरुवा कपड़े रंगे हुए खड़ा है। आदमी भीतर बिलकुल नहीं है। कोई और तरह के कपड़े रंगे हुए खड़ा है। आदमी भीतर बिलकुल नहीं है। कोई गहने पहने खड़ा है। कोई स्त्री सजी-धजी खड़ी है। आदमी भीतर बिलकुल नहीं है। जब तक यह साज-बाज बहुत जोर से चलेगा ऊपर, तो जानना कि भीतर कोई कमी है, जिसे ऊपर से दिखाया जा रहा है। लेकिन यही दुनिया है, यही पहचाना जाता है। गालिब भीतर पहुंचा दिए गए। सम्राट ने कहा, बड़ी देर से राह देखता हूं। गालिब करे भोजन पर बिठाया। उठाकर भोजन गालिब अपनी पगड़ी को कहने लगा, कि ले पगड़ी खा--ले कोट खा। सम्राट ने कहा, क्या करते हैं आप? आपके खाने की बड़ी अजीब आदत मालूम होती है। गालिब ने कहा, अजीब आदत नहीं महाराज। मैं तो पहले आया था, अब नहीं आया हूं। अब नहीं आया हूं। अब कपड़े ही आए हैं। मैं तो आकर जा भी चुका। और अब कभी न आऊंगा। क्योंकि जहां पकड़े पहचाने जाते हैं वहां अपनी क्या जरूरत है? अब तो कपड़े ही आए हैं। अब तो कपड़ों को भोजन करा दूं और वापस लौट जाऊं।

यह हम जिस जिंदगी की दौड़ के दौड़ समझ रहे हैं, खोज को खोज समझ रहे हैं, यात्रा समझ रहे हैं। यह कपड़ों से ज्यादा हैं क्या? हम क्या खोज रहे हैं? इस सबको खोजकर भी क्या हम उसे पा लेंगे जो हम हैं? और फिर आप पूछते हैं, क्यों खोजें ईश्वर को? ईश्वर की खोज का मतलब क्या है? ईश्वर की खोज का मतलब है, उसकी खोज, जो है। और संसार की खोज का मतलब है, उसकी खोज--जो नहीं है। संसार की खोज का मतलब है--असत्य की खोज। प्रभु के मंदिर की खोज का अर्थ है सत्य की खोज। और असत्य का केंद्र है अहंकार। संसार का केंद्र है अहंकार। और प्रभु को जो खोजने जाता है। वह अपने को खोता है। धीरे-धीरे खोता है,

मैंने कल कहा, विश्वास खोदो। आज कहा, विचार भी खो दो। कल कुछ और खोने को कहूंगा। परसों कुछ और। एक घड़ी ऐसी आती है कि जो भी नानएसेंशियल है, जो भी ऊपर से जड़ा है, जो भी वस्त्र है, वे सब खो दो। रह जाने दो उसे, जो नहीं खोया जा सकता। और जिस दिन सिर्फ वही बच जाता है जिसे खोना असंभव है उसी दिन क्रांति घटित हो जाती है। प्रभु मंदिर का द्वार खुल जाता है।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना उसके लिए मैं बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं।

मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
दिनांक ९ जून, १९६९ रात्रि
      -  ओशो
प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-03

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