जो भी सहजता से जीता है, जिसका कोई आदर्श नहीं है, जो अपने स्वभाव से जीता है--किसी धारणा के अनुसार नहीं; जो किसी तरह का आचरण नहीं बनाता, अपने अंतस से जीता है--उसके जीवन में पाखंड नहीं होता। उसके जीवन में कोई पाखंड कभी नहीं होता। जो स्वाभाविक है वही करता है, पाखंड का सवाल ही नहीं। मगर जो लोग दूसरे का अनुकरण करेंगे वे सब पाखंडी हो जाते हैं।
इसलिये दुनिया में इतना पाखंड है, क्योंकि सारे लोग अनुकरण कर रहे हैं--कोई महावीर का, कोई बुद्ध का, कोई कृष्ण का। ये सब पाखंडी हो जाने वाले हैं।
इसलिये मैं अपने संन्यासी से कहता हूं कि मैं तुम्हारा आदर्श नहीं हूं। मेरे ढंग से जीने की चेष्टा मत करना। मैं नहीं चाहता कि मैं तुम्हारे ऊपर आरोपित हो जाऊं, नहीं तो मुश्किल होगी; नहीं तो कठिनाई में पड़ोगे, पाखंडी हो जाओगे। मैं जैसा जी रहा हूं वह मेरे लिये स्वाभाविक है। मैं किसी को आदर्श मानकर नहीं जी रहा हूं।
यही तो इस देश को अड़चन है कि मैं किसी को आदर्श मानकर नहीं जी रहा हूं, मैं अपने ढंग से जी रहा हूं। देश को अड़चन है कि वे पूछते हैं कि रामकृष्ण परमहंस तो ऐसे जीते थे, आप ऐसे क्यों जी रहे हैं? रामकृष्ण परमहंस अपने स्वभाव से जीते थे, मैं अपने स्वभाव से जी रहा हूं। न तो रामकृष्ण परमहंस को मेरे अनुसार जीने की जरूरत है, न मुझे रामकृष्ण परमहंस के अनुसार जीने की जरूरत है।
वे पूछते हैं कि बुद्ध तो ऐसा जीते थे, आप ऐसा क्यों जी रहे हैं? जैसे बुद्ध ने कोई ठेका ले रखा है कि अब दुनिया में सबको वैसे ही जीना पड़ेगा! तब तो जिंदगी बड़ी उदास हो जायेगी, बड़ी पाखंडी हो जायेगी। बुद्ध बड़े प्यारे हैं, मगर उनकी खूबी यही है कि वे पुनरुक्त नहीं किये जा सकते हैं। कोई उनकी कार्बनकापी नहीं हो सकता है और जो भी होगा वह कुरूप होगा। कार्बन-कापियां सदा कुरूप होती हैं। मौलिक बनो।
आदर्श सीखोगे कहां से? आदर्श सदा दूसरे से सीखोगे और जो भी दूसरे से सीखा गया वह पाखंड पैदा करवायेगा। उसे तुम पूरा कर न सकोगे, क्योंकि तुम्हारे अनुकूल न पड़ेगा, तुम वैसे हो नहीं। तुम तो बस "तुम' जैसे हो। तुम्हारे जैसा न कभी कोई हुआ न कभी होगा कोई। तुम्हें तो सिर्फ अपना स्वभाव जीना है। फिर पाखंड नहीं होगा।
तो तुम पूछते हो मैत्रेय, कि सभी ज्ञानियों ने पाखंड का विरोध किया है...। लेकिन अगर ज्ञानियों ने सिर्फ पाखंड का विरोध किया हो तो वे ज्ञानी नहीं हैं। असली ज्ञानी पाखंड का विरोध तो पीछे करेगा, पहले आदर्श का विरोध करेगा। क्योंकि आदर्श कट जाये तो जड़ कट गई पाखंड की। यही सरहपा और तिलोपा कह रहे हैं।
इसलिये तुम देखते हो, सरहपा और तिलोपा का नाम ही मिट गया है इस देश से। क्योंकि उन्होंने कोई आदर्श नहीं सिखाया उन्होंने स्वतंत्रता सिखायी है, आदर्श नहीं। उन्होंने अंतस जगाया, आचरण नहीं दिया। उन्होंने तुम्हें चरित्र नहीं दिया, उन्होंने तुम्हें बोध दिया। उन्होंने तुम्हें इतना बोध दिया कि तुम अपने अनुसार जी सको और इतना बल दिया कि चाहे लाख अड़चनें हों, तुम अपने ही अनुसार जीना। टूटना हो तो टूट जाना--मगर झुकना मत, अपने ही ढंग से जीना। मिटना पड़े तो मिट जाना, मगर स्वयं रहकर मिटना। अपनी निजता को किसी कीमत पर खोना मत। कोई सौदा मत करना, कोई समझौता मत करना।
इसलिये तो सरहपा-तिलोपा भूल गये; तुलसीदास याद हैं; तुलसीदास कंठस्थ हैं, क्योंकि आदर्श की बात हो रही है और पाखंड का विरोध हो रहा है। और मजा यह है कि आदर्श से पाखंड पैदा होता है।
जब तक दुनिया में आदर्श हैं तब तक दुनिया में पाखंड रहेगा। अगर चाहते हो दुनिया गैर-पाखंडी हो जाये तो आदर्शों को नमस्कार कर लो, विदा कर दो; फिर तुम देखो कोई पाखंड नहीं। तुमने इतनी छोटी-सी बात, इतनी सीधी-साफ गणित की, विज्ञान की बात भी देखी नहीं कभी। तुम तो थोपे ही जाते हो आदर्श।
हर बाप अपने बच्चों पर आदर्श थोप रहा है, हर समाज अपने बच्चों पर आदर्श थोप रहा है, हर पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी पर आदर्श थोप रही है। और फिर जब आदर्श नहीं माना जाता तो दो ही उपाय हैं: या तो वह व्यक्ति अपराधी हो जाता है या पाखंडी हो जाता है। आदर्श न माने तो पाखंडी, दिखाये सिर्र्फ। और अगर ईमानदार हो तो फिर अपराधी। तुम विकल्प ही नहीं छोड़ते लोगों के लिये, तुमने फांसी लगा दी--या तो अपराधी या पाखंडी।
- ओशो
सहज योग--(प्रवचन--15)
इसलिये दुनिया में इतना पाखंड है, क्योंकि सारे लोग अनुकरण कर रहे हैं--कोई महावीर का, कोई बुद्ध का, कोई कृष्ण का। ये सब पाखंडी हो जाने वाले हैं।
इसलिये मैं अपने संन्यासी से कहता हूं कि मैं तुम्हारा आदर्श नहीं हूं। मेरे ढंग से जीने की चेष्टा मत करना। मैं नहीं चाहता कि मैं तुम्हारे ऊपर आरोपित हो जाऊं, नहीं तो मुश्किल होगी; नहीं तो कठिनाई में पड़ोगे, पाखंडी हो जाओगे। मैं जैसा जी रहा हूं वह मेरे लिये स्वाभाविक है। मैं किसी को आदर्श मानकर नहीं जी रहा हूं।
यही तो इस देश को अड़चन है कि मैं किसी को आदर्श मानकर नहीं जी रहा हूं, मैं अपने ढंग से जी रहा हूं। देश को अड़चन है कि वे पूछते हैं कि रामकृष्ण परमहंस तो ऐसे जीते थे, आप ऐसे क्यों जी रहे हैं? रामकृष्ण परमहंस अपने स्वभाव से जीते थे, मैं अपने स्वभाव से जी रहा हूं। न तो रामकृष्ण परमहंस को मेरे अनुसार जीने की जरूरत है, न मुझे रामकृष्ण परमहंस के अनुसार जीने की जरूरत है।
वे पूछते हैं कि बुद्ध तो ऐसा जीते थे, आप ऐसा क्यों जी रहे हैं? जैसे बुद्ध ने कोई ठेका ले रखा है कि अब दुनिया में सबको वैसे ही जीना पड़ेगा! तब तो जिंदगी बड़ी उदास हो जायेगी, बड़ी पाखंडी हो जायेगी। बुद्ध बड़े प्यारे हैं, मगर उनकी खूबी यही है कि वे पुनरुक्त नहीं किये जा सकते हैं। कोई उनकी कार्बनकापी नहीं हो सकता है और जो भी होगा वह कुरूप होगा। कार्बन-कापियां सदा कुरूप होती हैं। मौलिक बनो।
आदर्श सीखोगे कहां से? आदर्श सदा दूसरे से सीखोगे और जो भी दूसरे से सीखा गया वह पाखंड पैदा करवायेगा। उसे तुम पूरा कर न सकोगे, क्योंकि तुम्हारे अनुकूल न पड़ेगा, तुम वैसे हो नहीं। तुम तो बस "तुम' जैसे हो। तुम्हारे जैसा न कभी कोई हुआ न कभी होगा कोई। तुम्हें तो सिर्फ अपना स्वभाव जीना है। फिर पाखंड नहीं होगा।
तो तुम पूछते हो मैत्रेय, कि सभी ज्ञानियों ने पाखंड का विरोध किया है...। लेकिन अगर ज्ञानियों ने सिर्फ पाखंड का विरोध किया हो तो वे ज्ञानी नहीं हैं। असली ज्ञानी पाखंड का विरोध तो पीछे करेगा, पहले आदर्श का विरोध करेगा। क्योंकि आदर्श कट जाये तो जड़ कट गई पाखंड की। यही सरहपा और तिलोपा कह रहे हैं।
इसलिये तुम देखते हो, सरहपा और तिलोपा का नाम ही मिट गया है इस देश से। क्योंकि उन्होंने कोई आदर्श नहीं सिखाया उन्होंने स्वतंत्रता सिखायी है, आदर्श नहीं। उन्होंने अंतस जगाया, आचरण नहीं दिया। उन्होंने तुम्हें चरित्र नहीं दिया, उन्होंने तुम्हें बोध दिया। उन्होंने तुम्हें इतना बोध दिया कि तुम अपने अनुसार जी सको और इतना बल दिया कि चाहे लाख अड़चनें हों, तुम अपने ही अनुसार जीना। टूटना हो तो टूट जाना--मगर झुकना मत, अपने ही ढंग से जीना। मिटना पड़े तो मिट जाना, मगर स्वयं रहकर मिटना। अपनी निजता को किसी कीमत पर खोना मत। कोई सौदा मत करना, कोई समझौता मत करना।
इसलिये तो सरहपा-तिलोपा भूल गये; तुलसीदास याद हैं; तुलसीदास कंठस्थ हैं, क्योंकि आदर्श की बात हो रही है और पाखंड का विरोध हो रहा है। और मजा यह है कि आदर्श से पाखंड पैदा होता है।
जब तक दुनिया में आदर्श हैं तब तक दुनिया में पाखंड रहेगा। अगर चाहते हो दुनिया गैर-पाखंडी हो जाये तो आदर्शों को नमस्कार कर लो, विदा कर दो; फिर तुम देखो कोई पाखंड नहीं। तुमने इतनी छोटी-सी बात, इतनी सीधी-साफ गणित की, विज्ञान की बात भी देखी नहीं कभी। तुम तो थोपे ही जाते हो आदर्श।
हर बाप अपने बच्चों पर आदर्श थोप रहा है, हर समाज अपने बच्चों पर आदर्श थोप रहा है, हर पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी पर आदर्श थोप रही है। और फिर जब आदर्श नहीं माना जाता तो दो ही उपाय हैं: या तो वह व्यक्ति अपराधी हो जाता है या पाखंडी हो जाता है। आदर्श न माने तो पाखंडी, दिखाये सिर्र्फ। और अगर ईमानदार हो तो फिर अपराधी। तुम विकल्प ही नहीं छोड़ते लोगों के लिये, तुमने फांसी लगा दी--या तो अपराधी या पाखंडी।
- ओशो
सहज योग--(प्रवचन--15)
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