तुम क्या सांस लोगे? सांस लेना तुम्हारे हाथ में होता, तो तुम मरोगे ही नहीं कभी फिर, तुम सांस लेते ही चले जाओगे। मौत दरवाजे पर आकर खड़ी रहेगी, यमदूत बैठे रहेंगे और तुम श्वास लेते रहोगे।
प्रसाद का अर्थ है,तुम्हारे कारण नहीं, प्रभु के कारण। भेंट है, उसकी तरफ से है। तुम्हारे लिए सौगात है।
एक पक्षी तुम्हारे कमरे में घुस आता है। जिस द्वार से आया है, वह खुला है--इसीलिए भीतर आ सका है; द्वार बंद होता तो भीतर न आ सकता। और फिर खिड़की से टकराता है, बंद खिड़की के कांच से टकराता है। चोंचें मारता है, पर फड़फड़ाता है। जितना फड़फड़ाता है, जीतना घबड़ाता है, उतना बेचैन हुआ जाता है। और खिड़की बंद है, और टकराता है। लहूलुहान भी हो सकता है। पंख भी तोड़ ले सकता है। कभी तुमने बैठकर सोचा, यह पक्षी कैसा मूढ़ है। अभी दरवाजे से आया है और दरवाजा खुला है, अभी उसी दरवाजे से वापस भी जा सकता है, मगर बंद खिड़की से टकरा रहा है। प्रकरणात्च्च। वहां खोजना प्रकरण। वहां तुम्हें शांडिल्य का सूत्र याद करना चाहिए। ऐसा ही आदमी है।
तुम इस जगत में आए हो, तुम अपने को जगत में लाए नहीं हो, आए हो--वहीं प्रसाद का सूत्र है। तुमने अपने को निर्मित नहीं किया है। यह जीवन तुम्हारा कर्तृत्व नहीं है, तुम्हारा कृत्य नहीं है, यह दान है, यह परमात्मा का प्रसाद है। यह द्वार खुला है, जहां से तुम आए। तुमसे किस ने पूछा था जन्म से पहले कि महाराज, आप होना चाहते हैं? न किसी ने पूछा, न किसी ने तांछा। अचानक एक दिन तुमने पाया कि आखें खुली हैं, श्वास चली है, जीवन की भेंट उतरी है। अचानक एक क्षण तुमने अपने को जीवित पाया। सारे जगत को रसविमुग्ध पाया। इसे तुमने चुपचाप स्वीकार कर लिया। तुमने कभी इस पर सोचा भी नहीं कि मुझसे किसी ने पूछा नहीं, मैंने निर्णय किया नहीं, यह जीवन सौगात है, प्रसाद है।
यहीं से दरवाजा खुला, जहां से तुम आए। और अब तुम प्रयास की बंद खिड़की पर सिर मार रहे हो, पंख तोड़े डाल रहे हो। जहां से आए हो, जैसे आए हो, उसी में सूत्र खोजो। और ऐसा नहीं है कि तुम जब आए थे, तब प्रसाद मिला था, रोज प्रसाद मिल रहा है। यह श्वास तुम्हारे भीतर आती-जाती है, लेकिन तुम कहते हो--मैं श्वास ले रहा हूं। अहमन्यता की भी सीमा होती है! विक्षिप्त बातें मत कहो। तुम क्या सांस लोगे? सांस लेना तुम्हारे हाथ में होता, तो तुम मरोगे ही नहीं कभी फिर, तुम सांस लेते ही चले जाओगे। मौत दरवाजे पर आकर खड़ी रहेगी, यमदूत बैठे रहेंगे और तुम श्वास लेते रहोगे।
श्वास तुम्हारे हाथ में नहीं है। तुमने एक भी श्वास नहीं ली है कभी। श्वास तुम्हें ले रही है। तुम श्वास को लेते हो? यह तुम्हारा कृत्य है? तो आधी घड़ी को बंद कर दो--क्योंकि जो कृत्य है, वह बंद भी किया जा सकता है--तो आधी घड़ी श्वास मत लो, देखें! क्षण भी नहीं बीतेंगे और तुम पाओगे कि बेचैनी इतनी भयंकर हुई जा रही है! श्वास भीतर आना चाहती है, द्वार पर दस्तक दे रही है और तुम न आने दोगे, तो भी आएगी। और एक दिन तुम लाना चाहोगे और नहीं आना है, तो नहीं आएगी।
न रोक सकते हो श्वास तुम, न ले सकते हो श्वास तुम। श्वास चल रही है। अपने से चल रही है। इसलिए तो रात नींद में भी चलती है, नहीं तो नींद में तुम्हें याद रखना पड़े बार-बार आंख खोल-खोलकर देखना पड़े कि श्वास ले रहा हूं कि नहीं ले रहा हूं? कहीं नींद में भूल न जाऊं श्वास लेना, नहीं तो मारे गए। फिर तो कोई सो भी न सकेगा निश्चिंत। पति सोएगा तो पत्नी जागकर देखेगी और पत्नी सोएगी तो पति जागकर देखता रहेगा कि कहीं सांस लेना न भूल जाए। फिर भी रोज भूल-चूकें होंगी, रोज दुर्घटनाएं होंगी, कि आज फलां मर गए, आज ढिकां मर गए, रात सांस लेना भूल गए। नींद में याद भी कौन रखेगा? लेकिन नींद में भी श्वास चलती है। जब तुम प्रगाढ़ निद्रा में डूबे हो, जब तुम्हें अपना भी पता नहीं, कि तुम हो या नहीं, स्वप्न भी नहीं चलता तुम्हारे चित्त पर, सब खो गया, अहंकार है ही नहीं--गहरी निद्रा में कहां अहंकार।
और कौन पता है विराट को? वही पाता है विराट को जिसे यह सत्य दिखायी पड़ता है कि मेरे किए क्या हो सकता है? मैं हूं कहां? मैं नहीं हूं, ऐसी प्रतीति जिसकी सघन हो जाती है, वहां प्रसाद बरसता है।
ओशो
एक पक्षी तुम्हारे कमरे में घुस आता है। जिस द्वार से आया है, वह खुला है--इसीलिए भीतर आ सका है; द्वार बंद होता तो भीतर न आ सकता। और फिर खिड़की से टकराता है, बंद खिड़की के कांच से टकराता है। चोंचें मारता है, पर फड़फड़ाता है। जितना फड़फड़ाता है, जीतना घबड़ाता है, उतना बेचैन हुआ जाता है। और खिड़की बंद है, और टकराता है। लहूलुहान भी हो सकता है। पंख भी तोड़ ले सकता है। कभी तुमने बैठकर सोचा, यह पक्षी कैसा मूढ़ है। अभी दरवाजे से आया है और दरवाजा खुला है, अभी उसी दरवाजे से वापस भी जा सकता है, मगर बंद खिड़की से टकरा रहा है। प्रकरणात्च्च। वहां खोजना प्रकरण। वहां तुम्हें शांडिल्य का सूत्र याद करना चाहिए। ऐसा ही आदमी है।
तुम इस जगत में आए हो, तुम अपने को जगत में लाए नहीं हो, आए हो--वहीं प्रसाद का सूत्र है। तुमने अपने को निर्मित नहीं किया है। यह जीवन तुम्हारा कर्तृत्व नहीं है, तुम्हारा कृत्य नहीं है, यह दान है, यह परमात्मा का प्रसाद है। यह द्वार खुला है, जहां से तुम आए। तुमसे किस ने पूछा था जन्म से पहले कि महाराज, आप होना चाहते हैं? न किसी ने पूछा, न किसी ने तांछा। अचानक एक दिन तुमने पाया कि आखें खुली हैं, श्वास चली है, जीवन की भेंट उतरी है। अचानक एक क्षण तुमने अपने को जीवित पाया। सारे जगत को रसविमुग्ध पाया। इसे तुमने चुपचाप स्वीकार कर लिया। तुमने कभी इस पर सोचा भी नहीं कि मुझसे किसी ने पूछा नहीं, मैंने निर्णय किया नहीं, यह जीवन सौगात है, प्रसाद है।
यहीं से दरवाजा खुला, जहां से तुम आए। और अब तुम प्रयास की बंद खिड़की पर सिर मार रहे हो, पंख तोड़े डाल रहे हो। जहां से आए हो, जैसे आए हो, उसी में सूत्र खोजो। और ऐसा नहीं है कि तुम जब आए थे, तब प्रसाद मिला था, रोज प्रसाद मिल रहा है। यह श्वास तुम्हारे भीतर आती-जाती है, लेकिन तुम कहते हो--मैं श्वास ले रहा हूं। अहमन्यता की भी सीमा होती है! विक्षिप्त बातें मत कहो। तुम क्या सांस लोगे? सांस लेना तुम्हारे हाथ में होता, तो तुम मरोगे ही नहीं कभी फिर, तुम सांस लेते ही चले जाओगे। मौत दरवाजे पर आकर खड़ी रहेगी, यमदूत बैठे रहेंगे और तुम श्वास लेते रहोगे।
श्वास तुम्हारे हाथ में नहीं है। तुमने एक भी श्वास नहीं ली है कभी। श्वास तुम्हें ले रही है। तुम श्वास को लेते हो? यह तुम्हारा कृत्य है? तो आधी घड़ी को बंद कर दो--क्योंकि जो कृत्य है, वह बंद भी किया जा सकता है--तो आधी घड़ी श्वास मत लो, देखें! क्षण भी नहीं बीतेंगे और तुम पाओगे कि बेचैनी इतनी भयंकर हुई जा रही है! श्वास भीतर आना चाहती है, द्वार पर दस्तक दे रही है और तुम न आने दोगे, तो भी आएगी। और एक दिन तुम लाना चाहोगे और नहीं आना है, तो नहीं आएगी।
न रोक सकते हो श्वास तुम, न ले सकते हो श्वास तुम। श्वास चल रही है। अपने से चल रही है। इसलिए तो रात नींद में भी चलती है, नहीं तो नींद में तुम्हें याद रखना पड़े बार-बार आंख खोल-खोलकर देखना पड़े कि श्वास ले रहा हूं कि नहीं ले रहा हूं? कहीं नींद में भूल न जाऊं श्वास लेना, नहीं तो मारे गए। फिर तो कोई सो भी न सकेगा निश्चिंत। पति सोएगा तो पत्नी जागकर देखेगी और पत्नी सोएगी तो पति जागकर देखता रहेगा कि कहीं सांस लेना न भूल जाए। फिर भी रोज भूल-चूकें होंगी, रोज दुर्घटनाएं होंगी, कि आज फलां मर गए, आज ढिकां मर गए, रात सांस लेना भूल गए। नींद में याद भी कौन रखेगा? लेकिन नींद में भी श्वास चलती है। जब तुम प्रगाढ़ निद्रा में डूबे हो, जब तुम्हें अपना भी पता नहीं, कि तुम हो या नहीं, स्वप्न भी नहीं चलता तुम्हारे चित्त पर, सब खो गया, अहंकार है ही नहीं--गहरी निद्रा में कहां अहंकार।
और कौन पता है विराट को? वही पाता है विराट को जिसे यह सत्य दिखायी पड़ता है कि मेरे किए क्या हो सकता है? मैं हूं कहां? मैं नहीं हूं, ऐसी प्रतीति जिसकी सघन हो जाती है, वहां प्रसाद बरसता है।
ओशो
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