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ध्यान में कैसे प्रवेश करे ?

ध्यान में कैसे प्रवेश करे?
परंपरा से ध्यान और साधना को एक श्रम, एक प्रयत्न, एक इफर्ट, एक अभ्यास समझा गया है। हम भी उन्हीं बातों को सब सुनते रहे हैं। तो जब हम ध्यान के लिए बैठते हैं तो हमारे मन में एक प्रयास, एक इफर्ट की भावना होती है कि हम ध्यान कर रहे हैं, हम ध्यान करें, ठीक से करें। इस तरह के भाव तनाव पैदा करते हैं, टेंशन पैदा करते हैं। और इस तरह के भावों के कारण ध्यान होना असंभव हो जाता है, क्योंकि ध्यान के लिए चाहिए तनाव से शून्य चित्त जिसमें कोई तनाव न हो। लेकिन जब भी आप कुछ करने के खयाल से भरते हैं तो तनाव पैदा हो जाता है। साधना को, ध्यान को हम बड़ा गुरुतर, बड़ा गंभीर कार्य समझते हैं। उससे भी तनाव पैदा हो जाता है।
नहीं; तो मैं निवेदन करूंगा, ध्यान को उस भांति लें जैसे कोई खेल को लेता है। ध्यान को बहुत गंभीरता से, बहुत कठोरता से, बहुत प्रयास से न लें। ऐसे लें जैसे अपनी मौज में बैठे हैं, सरलता से, शांति से, बिना तनाव के। कोई बहुत बड़ा काम नहीं कर रहे हैं।
धार्मिकों ने ऐसा भाव फैला रखा है कि कोई आंख बंद करके बैठा है तो बहुत भारी काम कर रहा है। इससे अहंकार की तृप्ति होती है कि मैं बहुत भारी काम कर रहा हूं, देखो आधे घंटे तक रीढ़ को सीधा किए हुए बैठा हूं। कोई उलटा खड़ा हो जाता है सिर के बल तो वह कहता है, मैं बहुत बड़ा काम कर रहा हूं, देखो मैं शीर्षासन कर रहा हूं।
सर्कस नहीं है धर्म कोई कि आप बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। सर्कसी चित्त नहीं होना चाहिए। कुछ खास काम नहीं कर रहे हैं, मौज में बैठे हैं, शांति से बैठे हैं, आनंद से बैठे हैं, हलके-फुलके होकर बैठे हैं। कोई बहुत सीरियसली नहीं, बहुत हलके मन से, बहुत सरलता से--जैसे छोटे-छोटे बच्चे खेलते रहते हैं वैसे।
तो साधना को, ध्यान को अति गंभीरता के भार से नहीं लेंगे, बहुत मौज से बैठ जाएंगे। तो तनाव नहीं आएगा, नहीं तो तनाव आ जाता है। कुछ कर नहीं रहे हैं, थोड़ी देर को कुछ भी नहीं कर रहे हैं, न करने की स्थिति में बैठे हुए हैं। फिर आवाजें सुनाई पड़ेंगी, तो उन आवाजों को अप्रतिरोध से, नॉन-रेसिस्टेंस से सुनना है। कोई विरोध नहीं करना है उनका कि यह कौआ क्यों बोल रहा है? यह बच्चा क्यों रोने लगा? यह कोई आदमी क्यों खांसा? नहीं, कुछ भी नहीं। जो हो रहा है, अपने भीतर से निकल जाने देना। आएगा, गूंजेगा, निकल जाएगा। मौन से, शांति से उसे देखते रहना है।
हजारों वर्ष से यह भी सिखाया गया है कि ध्यान में कुछ सुनाई नहीं पड़ना चाहिए, तभी ध्यान है। कुछ पता नहीं चलना चाहिए आस-पास का, तभी ध्यान है।
वे सब एकाग्रताएं हैं, मूर्च्छाएं हैं; मूर्च्छित हो जाएंगे तो कुछ भी पता नहीं चलेगा। लेकिन जब जाग्रत होंगे तो और ज्यादा पता चलेगा। मूर्च्छित हो जाएंगे तो कुछ भी पता नहीं चलेगा। कुछ भी होता रहे, मकान में आग लग जाए, या कोई कुछ भी उपद्रव हो जाए, कोई बम गिरा दे, तो पता नहीं चलेगा, मूर्च्छित होंगे तो, सोए होंगे तो। लेकिन जब भीतर पूरी तरह जागे होंगे तो एक सूई भी गिरेगी तो उसकी आवाज भी पता चलेगी। जितना चित्त शांत होगा, जितना चित्त जाग्रत होगा, उतना ही सेंसिटिव हो जाएगा, उतना ही संवेदनशील हो जाएगा। सब सुनाई पड़ेगा, एक पत्ता भी हिलेगा तो उसकी खड़क सुनाई पड़ेगी, हवा चलेगी तो पता चलेगा।
तो यह मन में खयाल न रखें कि अरे यह सब पता चल रहा है! यह पता चलना चाहिए। और जितने आप जागरूक होंगे, उतनी ही छोटी-छोटी ध्वनियां--अभी कोई छोटे झींगुर बोल रहे होंगे, अभी पता नहीं चल रहे, लेकिन जब शांत बैठेंगे तो वे भी पता चलेंगे। धीरे-धीरे चारों तरफ ध्वनियों का एक संगीत गूंजने लगेगा। उस संगीत में खो नहीं जाना है, उस संगीत में डूब नहीं जाना है। उस संगीत के प्रति जागे रहना है, होश से भरे रहना है। अगर डूब गए तो वह तन्मयता हो गई, वह एक तरह की भक्ति हो गई, वह एक तरह का सम्मोहन हो गया। लेकिन अगर नहीं डूबे, जागे रहे, अवेयर रहे, तो वह ध्यान हुआ।

अब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे।
शरीर को बिलकुल शांति से शिथिल छोड़ दें, कोई तनाव शरीर पर न रखें।
ओशो
रोम रोम रस पीजिए (साधना शिविर), प्रवचन - ६

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