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कैसे साधें साक्षी ? साक्षी साधना के सहयोगी उपाय !

                            साक्षी की साधना

कैसे साधें साक्षी?
साक्षी साधना के सहयोगी उपाय !

योग चेतना के सात तलों की बात कहता है। शरीर, भाव, विचार, मन, आत्मा, ब्रम्ह और निर्वाण। हमारा जीवन चेतना के प्रथम तीन तल शरीर, भाव और विचार पर ही डोलता रहता है। हम स्थूल शरीर के साथ ही भाव और विचारों में ही जीवन व्यतीत करते हैं। जबकि साक्षी घटता है चौथे मन के तल पर!

हमारा पहला तल है स्थूल शरीर - जिसकी अपनी कोई भाषा नहीं है। यह हमारे चेतन और अचेतन का अनुगमन करते हुए सिर्फ खाना और सोना ही जानता है।

दूसरा तल है भाव का - यह तल जिससे प्रेम करता है उसी से नफरत भी करता है। कभी क्रोध से भर जाता है और कभी करूणा दिखलाता है। कभी कामवासना में दौड़ता है तथा कभी सतत ईर्षा, घृणा और द्वेष से भरा रहता है।

तीसरा तल है विचार का -  जो अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पनाओं में ही उलझा रहता है, वर्तमान में ठहरता ही नहीं है।  कभी-कभी ही जब संकट का क्षण हो, जैसे अभी-अभी ही हमारा एक्सीडेंट होते-होते बचा हो, ऐसे क्षण में अचानक यह तल ठहर जाता है हम वर्तमान में आ जाते हैं। तब इस तल पर कोई विचार नहीं होते हैं, दिल की धड़कनें सुनाई देती है और विचारों की जगह होता है एक सन्नाटा। यही है चौथा मन का तल! साक्षी के घटने का तल।

वर्तमान में ही साक्षी का उदय होता है। तीसरे तल का 'ठहर' जाना, चौथे तल का 'द्वार' है, जो साक्षी के' घटने' का तल है।

शरीर, भाव और विचार, ये तीनों तल हमें अपने में उलझाये रखते हैं। हमारा इन पर कोई नियंत्रण या प्रभाव नहीं है। ये हमें अपने ही हिसाब से संचालित करते रहते हैं।

शरीर को तो हम दमन या प्रयास करके नियंत्रित कर लेते हैं, लेकिन भाव और विचार, इन दोनों तलों पर हम बहुत कमजोर सिद्ध होते हैं।

हम इनके प्रति साक्षी होने जाते हैं, होश साधने या सजग रहने का प्रयास करते हैं तो ये हमें अपने में बहा ले जाते हैं, और हम साक्षी को भूल- भूल जाते हैं। और जब भूल जाते हैं तो संताप पकड़ता है। तरह तरह के संशय उठ खड़े होते हैं, कि 'पता नहीं, होता भी है या नहीं?' हमें लगने लगता है कि 'यह हमारे बस का नहीं है। या 'यह हमसे नहीं होगा। '

तो कैसे रहें इन तीनों तलों के प्रति साक्षी?
कैसे साधें साक्षी?

भाव और विचार, इन दोनों तलों के साथ हम सीधे कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि ये हमारी पकड़ के बाहर हैं। हमारी पकड़ में आता है पहला तल, यानी स्थूल शरीर। तो हमें यात्रा इसी तल से शुरू करनी होगी। हमें इसके साथ कुछ ऐसा करना होगा कि साक्षी साधने में आसानी हो सके।

हमारा अपने शरीर के प्रति जो व्यवहार है, वह ठीक नहीं है।  हम अपने शरीर के प्रति मुर्छित हैं। और हम अपने शरीर के प्रति प्रेमपूर्ण नहीं हैं। हम इसके प्रति असंवेदनशील हैं। यह बार - बार हमें कहता भी है कि 'मैं थका हुआ हूँ, मुझे आराम चाहिए, कि मुझे नींद आ रही है, कि आज जो खाया वह ठीक नहीं था, पहले भी पेट खराब हुआ था यह सब खाकर...।' लेकिन हम इसकी बातों पर बिलकुल 'ध्यान' नहीं देते हैं ! तो फिर यह हमें 'ध्यान' क्यों करने देगा?

हम इसके साथ ऐसा कुछ कर रहे होते हैं जिसके कारण यह और भी बेहोशी में चला जाता है। यदि हमें साक्षी साधना है तो हमें अपने शरीर की सुनते हुए, इसके साथ अपने व्यवहार में परिवर्तन लाना होगा।

पहला है भोजन - हमारा भोजन सही नहीं है। जितना भोजन हमारे शरीर को चाहिए, उससे अधिक भोजन हम इसे दे देते हैं। हमारी अधिकतम उर्जा भोजन को पचाने में ही खर्च हो जाती है। जितना समय भोजन को पचाने में जाता है, उतना समय हम बेहोशी में व्यतीत करते हैं। अतः साक्षी के लिए हमारे पास उर्जा नहीं बचती, और अधिक भोजन से हमारा शरीर भारी हो जाता है, जिससे बेहोशी और भी बढ़ती चली जाती है।

भोजन के बाद यदि सुस्ती या नींद आती है, तो हमारा भोजन सही नहीं है। एक बार में जितना भोजन लेते हैं, यदि उसे दो से तीन में बार लिया जाये तो इससे बचा जा सकता है। क्योंकि हमारे पेट की एक क्षमता है कि एक बार में वह 'कितना' भोजन पचा पायेगा। जहां तक हो सके तीखा और भारी भोजन न लेकर हल्का भोजन लिया जाये,और शरीर को जितना भोजन चाहिए उतना लिया जाये, तो शरीर हल्का रहेगा और इसके प्रति साक्षी रहना आसान होगा। यानी सम्यक आहार।

दूसरा है श्रम - अधिक भोजन के कारण हमारा शरीर भारी हो जाता है और हम जल्दी थक जाते हैं, जिसके कारण हम श्रम नहीं कर पाते। और जितनी उर्जा हम भोजन द्वारा शरीर में डालते हैं, उतनी खर्च नहीं हो पाती। वह उर्जा हमें बेचैन करती है और साक्षी होने में बाधा डालती है। दूसरे, ज्यादा भोजन से हमारे शरीर में अनावश्यक तत्व इकट्ठा हो जाते हैं, जो हमें ध्यान में बैठने नहीं देते, कहीं खुजली हो रही है, कहीं चींटी काट रही है, कहीं सुन्न और कहीं दर्द हो रहा है।

श्रम द्वारा वे तत्व जो हमें ध्यान में बाधा पहुंचाते हैं, पसीने के रूप में शरीर से बाहर निकल जाते हैं। और जिन छिद्रों से पसीना बाहर निकलता है उन छिद्रों से प्राणवायु शरीर में प्रवेश करती है, जो हमारे साक्षी में सहयोगी है। तभी तो कोई भी खेल खेलने या व्यायाम के बाद हम अच्छा अनुभव करते हैं।

तीसरा है नींद - हमारी नींद खोती जा रही है। श्रम नहीं करने के कारण जो उर्जा हमारे शरीर में बची रहती है, वह उर्जा नींद में बाधा डालती है। नींद के लिए शरीर का विश्राम में होना आवश्यक है, और विश्राम आता है श्रम करने के बाद। और जब हमारे शरीर को नींद आती है, या हमारा सोने का समय होता है, उस समय हम सोने की अपेक्षा दूसरे कार्यों में व्यस्त रहते हैं। आजकल वह समय हमने फेसबुक को दे दिया है। मित्र रात ढाई - तीन बजे पोस्ट डाल रहे होते हैं। जबकि यह समय हमारी गहरी नींद का है। यदि हम नींद पूरी और गहरी लेंगे तो हमारे शरीर में प्राणवायु की मात्रा अधिक होगी, सुबह हम युवा और ताजा अनुभव करेंगे, उनींदा और सुस्त नहीं। हमारा साक्षी साधना और भी आसान हो जाएगा। यदि दिन में साक्षी सध गया, तो रात में भी सधना शुरू हो जायेगा।

यदि हमारे शरीर के प्रति ये तीन कार्य, भोजन, श्रम और नींद ठीक हो जाए, सम्यक हो जाए, तो साक्षी साधना आसान हो जाएगा। और साक्षी के सधते ही हमारा प्रथम तल, स्थूल शरीर पारदर्शी हो जाएगा। हम अपने पहले तल पर पूरी तरह से जाग जायेंगे। और पहले तल पर जागते ही जो गलत है, वह छूट जायेगा। बुरी आदतें 'छोड़ना' नहीं पड़ेंगी, 'छूट' जाएगी।

यदि हम साक्षी साधना तीसरे तल पर विचारों को देखने से शुरू करते हैं तो बहुत मुश्किल आएगी। हम जितना विचारों को देखने लगेंगे वे उतनी ही तेजी से बढ़ते जाएंगे। इसलिए हमें साधना विचारों को देखने की अपेक्षा पहले तल स्थूल शरीर की क्रियाओं के प्रति होशपूर्ण रहने से करनी चाहिए।

यदि हम पहले तल स्थूल शरीर की क्रियाओं के प्रति होशपूर्ण रहते हैं तो भाव हमारी पकड़ में आने लगेंगे। यानि क्रोध के आने से पहले ही हम उसे रोक सकेंगे। जैसे ही हमें क्रोध आता है तो हमारा शरीर गहरी श्वास लेकर मूलाधार पर चोंट करता है जिससे क्रोध के लिए उर्जा उपर उठती है। यदि हम शरीर की क्रियाओं के प्रति होशपूर्ण रहते हैं तो यहां क्रोध के आने से पहले ही हमें पता चल जाएगा, हमारा शरीर गहरी श्वास लेकर क्रोध के लिए उर्जा को उठाने लगेगा। बस। हम शरीर को गहरी श्वास लेने से रोक देंगे, श्वास की लय को ही बदल देंगे ताकी क्रोध के लिए उर्जा उपर न उठ सके और होशपूर्ण रहेंगे तो जो उर्जा क्रोध के लिए उठ रही थी, वह उर्जा हमारे होश को या कहें साक्षी को मिलने लगेगी।

प्रथम तल पर साक्षी होते ही, दूसरा भाव का तल हमें स्पष्ट हो जायेगा। उसका पूरा - पूरा अहसास होना शुरू हो जायेगा। पहले हम भावों के साथ बहते थे, क्रोध, प्रेम, घृणा इत्यादि भाव हमें अपने साथ बहा ले जाते थे। लेकिन अब हम स्वयं को भावों का साक्षी होते पायेंगे, और जैसे ही साक्षी होंगे, भाव विलीन होने लगेंगे। यहां एक बात और घटेगी, पहले भाव अपने से उठते थे और अब हम भावों को उठाने में सक्षम हो जायेंगे, यानी भाव अब अभिनय होगा। और जब हम भावों को उठाने में सक्षम होंगे तो जो उर्जा भव के लिए उठाएंगे, उस ऊर्जा का हम साक्षी में उपयोग कर लेंगे! अत: हमरा साक्षी और प्रगाढ़ होने लगेगा।

जब स्थूल शरीर की क्रियाओं के प्रति होशपूर्ण रहने से दूसरे भाव वाले तल पर भाव हमारी पकड़ में आ जाएंगे तो फिर हम तीसरे तल पर विचारों को पकड़ने में समर्थ होंगे।

दूसरे भाव के तल पर साक्षी के जागते ही तीसरा विचारों वाला तल हमारे सामने स्पष्ट होना शुरू हो जाता है। पहली बार यहां पर हमें विचार 'दिखलाई' पड़ने शुरू होते हैं।

अभी हम विचारों के साथ स्वयं को 'एक' अनुभव करते हैं। अभी हम अपने 'विचारों' के लिए बहस शुरू कर देते हैं। जो हमें परिवार, समाज और शिक्षा से मिला था, या हमने पढ़ सुनकर मान लिया था। क्योंकि वह हमें ठीक लगा, बिना इसकी जानकारी के कि वह सही है या गलत!

पहले तल स्थूल शरीर और दूसरे तल भाव के लयबद्ध होते ही, या दोनों तलों पर साक्षी के जागते ही, हमें विचार दिखलाई पड़ने शुरू हो जायेंगे। और जैसे ही विचार दिखलाई पड़ने शुरू होंगे, हमें स्पष्ट महसूस होगा कि विचार हमसे अलग हैं, और जैसे ही विचार हमें हमसे अलग महसूस होंगे वैसे ही पहली बार हमें साक्षी का पूरा-पूरा बोध होगा। और हम साक्षी में स्थापित हो जायेंगे। 'यह' जो विचारों को 'देख' रहा है, 'यही' साक्षी है। अब तक साक्षी विचारों में खोया हुआ था  विचारों से एक हो गया था। शरीर की क्रियाओं और भावों के प्रति जागते ही विचार 'दिखलाई' पड़ने लगेंगे और हमें साक्षी का पूरा बोध हो जाएगा।

  ... और जैसे- जैसे विचार दिखलाई पड़ेंगे, वैसे - वैसे
ही वे लड़खड़ाने लगेंगे। क्योंकि जो उर्जा विचारों को मिल रही थी, जिस उर्जा पर वे 'जी' रहे थे, वही उर्जा अब साक्षी की ओर प्रवाहित होनी शुरू हो जायेगी। यानी देखने वाले को मिलने लगेगी। अतः विचार 'गिरने' लगेंगे और साक्षी 'उठने' लगेगा। और धीरे-धीरे दो विचारों के बीच अंतराल आने लगेगा, यानी एक विचार अभी गया है और दूसरा अभी आया नहीं है, अर्थात दो विचारों के बीच की दूरी स्पष्ट दिखाई पड़ने लगेगी। धीरे-धीरे यह दूरी और बढ़ने लगेगी और चौथे मन के तल पर हमारा प्रवेश हो जायेगा। यानी ध्यान में प्रवेश हो जाएगा, अर्थात निर्विचार चेतना में प्रवेश हो जाएगा।

पुनश्च : ध्यान प्रयोग समय मांगते हैं। अतः धैर्य और संकल्प बहुत जरूरी है, क्योंकि सारा जीवन हम बाहर ही देखते आए हैं, अब भीतर देखने की आदत बनने में थोड़ा समय लगेगा। तथा भोजन, श्रम और नींद, यह तीनों यदि सम्यक हैं तो ही साक्षी में प्रवेश हो सकेगा। क्योंकि भोजन श्रम और नींद इन तीनों की सम्यकता हमारे शरीर को उस तल पर ले आती है जिस तल पर हम क्रिया, भव और विचारों को देखने में समर्थ हो जाते हैं।
स्वामी ध्यान उत्सव

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