आज सुबह एक छोटी सी कहानी से आज की चर्चा मैं शुरू करूं। एक राजमहल के द्वार पर बड़ी भीड़ थी। सारा गांव ही, सारी राजधानी ही द्वार पर इकट्ठी हो गई थी। सुबह-सुबह भीड़ का आगमन शुरू हुआ था और अब तो संध्या आने को थी, लेकिन जो आकर खड़ा हो गया था वह खड़ा था, कोई भी हटा नहीं था। दिन भर से भूखे-प्यासे लोग तपती धूप में उस द्वार के सामने खड़े थे। कोई अघटनीय वहां घट गया था। कुछ ऐसी बात हो गई थी जो विश्वास योग्य ही नहीं मालूम होती थी। सुबह-सुबह एक भिक्षु ने आकर उस द्वार को खटखटाया था और अपना भिक्षापात्र आगे बढ़ा दिया था। राजा उठा ही था, उसने अपने नौकरों को कहा होगा कि जाओ और भिक्षापात्र भर दो। लेकिन उस भिक्षु ने कहा: ठहरो! इसके पहले कि मैं भिक्षा स्वीकार करूं, मेरी शर्त भी सुन लो। बेशर्त मैं कुछ भी स्वीकार नहीं करता हूं। यह तो सुना गया था कि देने वाले शर्त के साथ देते हैं, यह बिलकुल पहली बात थी कि लेने वाला भी शर्त रखता हो, भिखारी! राजा ने कहा: शर्त! कैसी शर्त? उस भिखारी ने कहा: शर्त है मेरी एक: भिक्षा स्वीकार करूंगा, लेकिन तभी जब यह वचन दो कि पात्र मेरा पूरा भर दोगे, अधूरा तो नहीं छोड़ोगे? पात्र पूरा भरोगे यह वचन दो, तो भिक्षा स्वीकार करूं, अन्यथा किसी और द्वार चला जाऊं। राजा ने कहा: जानते हो राजा का द्वार है यह, क्या तुम्हारा छोटा सा पात्र न भर सकूंगा? पर उसने कहा: फिर भी शर्त ले लेनी उचित है, वचन ले लेना उचित है। राजा ने दिया वचन। और अपने मंत्रियों को कहा कि जब पात्र भरने की बात ही आ गई है, तो स्वर्णमुद्राओं से पात्र भर दो। बहुत थीं स्वर्णमुद्राएं उसके पास, बहुत थे हीरे-मोती, बहुत थे माणिक, बहुत था, अकूत खजाना था। स्वर्णमुद्राएं लाई गईं और पात्र में डाली गईं और तभी से भीड़ बढ़नी शुरू हो गई। और तभी से सारा गांव टकटकी बांधे आकर द्वार पर खड़ा हो गया। पात्र कुछ ऐसा था कि भरता ही नहीं था। मुद्राएं डाली जाती रहीं, पात्र खाली था खाली रहा। और दोपहर आ गई। और खजाने जो अकूत मालूम होते थे, खाली पड़ने लगे। ऐसा कौन सा खजाना है जो खाली न हो जाए? और सांझ होते-होते तो सभी खजाने जीवन के खाली हो ही जाते हैं। उस सांझ भी सारे खजाने खाली हो गए उस राजा के। और तब घबड़ाहट फैलनी शुरू हो गई दोपहर के बाद। भिखारी तो भिखारी था, सांझ होते-होते राजा भी भिखारी हो गया। कौन राजा सांझ होते-होते भिखारी नहीं हो जाता है? पात्र खाली था--खाली था खाली रहा। फिर तो राजा घबड़ाया और पैर पर गिर पड़ा और उसने कहा: मुझे क्षमा कर दें! मैं न समझा था कि शर्त इतनी महंगी पड़ जाएगी। क्या है, क्या है यह जादू, कैसा है यह पात्र? छोटा सा दिखाई पड़ता है और भरता नहीं! और खजाने जो मेरे बड़े दिखाई पड़ते थे खाली हो गए, व्यर्थ हो गए! छोटा सा पात्र और बड़े खजाने न भर पाए! क्या है इस पात्र में, कैसा जादू है? उस भिक्षु ने कहा: कोई भी जादू नहीं है। एक मरघट से निकलता था, आदमी की एक खोपड़ी पड़ी मिल गई, उससे ही इस पात्र को बना लिया है। आदमी की खोपड़ी से बना हुआ पात्र है। किस आदमी की खोपड़ी कब भरी है? किस आदमी का मन कब भरा है? पात्र में कोई जादू नहीं है, एक साधारण से आदमी का सिर है। पता नहीं फिर आगे क्या हुआ। लेकिन इस कहानी से इसलिए शुरू करना चाहता हूं कि मनुष्य के जीवन में जो प्रश्न हैं और जो समस्या है वह यही है: मन को भरना है और मन भरता नहीं है। और हजार-हजार उपाय हम करते हैं--और धन से, और यश से, और पद से, मित्रों से, प्रियजनों से भरते हैं--नहीं भरता। फिर, फिर कुछ हैं जो धर्म से भरने लगते हैं--गीता से और कुरान से; त्याग से, तपश्चर्या से; संन्यास से, साधना से, फिर भी मन भरता नहीं है। परमात्मा से, मोक्ष से, फिर भी मन भरता नहीं है। मन कुछ ऐसा है कि भरता ही नहीं है। और भरने के सारे प्रयास में हम टूटते हैं, नष्ट होते हैं, जीर्ण और जर्जर होते हैं और भरने की सारी आशाएं टकरा-टकरा कर नष्ट हो जाती हैं। और तब विफलता और विषाद मन को घेर लेता है और दुख और पीड़ा और संताप और चिंता और सब व्यर्थ दीख पड़ने लगता है। जीवन व्यर्थ मालूम होने लगता है, क्योंकि मन भरता नहीं है और भरने के सब प्रयास असफल हो जाते हैं। कभी किसी का मन भरा नहीं है। कभी किसी का मन भरा नहीं है! मन कुछ ऐसा है कि भर सकता ही नहीं।
❤ ओशो ❤
🌹 में कौन हूँ 🌹
❤ ओशो ❤
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