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तुम्‍हारी बात सुनने के लिए या तुम पर ध्‍यान देने के लिए किसी को खोजना बहुत कठि‍न हो गया है।और सब चाहते है कि उनकी और ध्‍यान दिया जाए !! osho !!

स्वर्णिम बचपन Osho (सत्र--25)शब्‍दों की अभिव्‍यक्‍त !
मैं बर्ट्रेड रसल को उद्धृत की रहा था—इस उद्धरण से मेरी बात को पुष्टि होगी उसने कहा है कि देर-अबेर सब लोगों को मनोविश्लेषण की आवश्यकता होगी। क्‍योंकि तुम्‍हारी बात सुनने के लिए या तुम पर ध्‍यान  देने के लिए किसी को खोजना बहुत कठि‍न हो गया है।और सब चाहते है कि उनकी और ध्‍यान दिया जाए। इसके लिए वे पैसे देने को भी तैयार है। कि‍ कोई मेरी बात को ध्यान से सुनें। भले ही सुनने वाले ने कानों में रूई डाल रखी हो। कोई मनोविश्लेषण दिन-रात मरीजों की बकवास को नहीं सुन सकता। फिर उसकी भी यही आवश्‍यकता है कि कोई दूसरा उसकी बातें सुने।
तुम्‍हें जान कर आश्‍चर्य होगा कि सब मनोविश्लेषण एक दूसरे के पास जाते है। अपने पेशे के शिष्‍टाचार के कारण वे एक दूसरे से पैसे नहीं लेते। दिमाग पर जो बोझ इक्‍कठ्ठा हो जाता है। उसे उतारना जरूरी होता है। नहीं तो वह परेशान कर देता है।
      अपनी कहानी से संबंध जोड़ने के लिए मैंने बर्ट्रेंड रसल को उद्धृत किया ताकि में उसे आगे बढा सकूं। हालांकि बर्ट्रेंड रसल बहुत दिनों तक जीवित रहा। फिर भी उसे स्‍वंय नहीं मालूम था कि जीवन क्‍या था? पर कई बार जो लोग नहीं जानते उनके शब्दों का प्रयोग बड़े महत्‍वपूर्ण संदर्भ में ऐसे लोगों द्वारा किया जा सकता है जो सकते है। 
      तुम लोगों ने इस उद्धरण को शायद न देखा हो, क्‍योंकि यह उस पुस्‍तक में है जिसे कोई नहीं पढ़ता। तुम्‍हें भरोसा नहीं होगा कि बर्ट्रेंड सरल ने ऐसी किताब भी लिखी ।यह छोटी कहानियों की पुस्‍तक है। रसल ने तो सैकडों पुस्‍तकें लिखी है और उनमें से कई तो बहुत प्रसिद्धि है और लोग उनको पंसद करते है, पढ़ते है। वे बहुत प्रचलित है। लेकिन यह पुस्‍तक अनोखी है, क्‍योंकि चह सिर्फ छोटी कहानियों का संकलन है। वह इसको प्रकाशित नहीं करना चाहता था। वह छोटी कहानियों का लेखक तो था नहीं। और उसकी कहानियों का स्‍तर बहुत नीचा है। लेकिन इन निम्‍न स्‍तर की कहानियों में कहीं-कहीं पर ऐसा एकाध वाक्‍य मिल जाता है जिसको केवल रसल ही लिख सकता है। यह उद्धरण उसी पुस्‍तक से है।
      मुझे कहानियां बहुत प्रिय है और यह सिलसिला शुरू हुआ नानी से। उनको भी कहानियां बहुत पसंद थी। नहीं कि वे मुझे कहानी सुनाती थीं। बिलकुल उल्‍टा, वे मुझे उकसाती थी कि मैं उन्‍हें कहानी सुनाऊं—सब तरह की कहानियां और दुनिया भर की गप्‍पें। वे मरी इन कहानियों को इतने ध्‍यान से सुनती कि उन्‍होंने मुझे कहानी कहने वाला बना दिया। उनके लिए मैं कोई न कोई दिलचस्‍प बात खोज ही लेता,क्‍योंकि वे मेरी कहानी सुनने के लिए दिन भर इंतजार करती। जब मुझे कोई दिलचस्‍प बात न मिलती तो मैं कपोल-कल्‍पना से कोई न कोई कहानी तैयार की लेता। वे जिम्‍मेवार है, सारा श्रेय या दोष जो भी तुम कहो, उनको जाता है। मैंने उन्हें सुनाने के लिए कहानियां गढ़ी ताकि वे निराश न हों और मैं तुमसे वादा करता हूं कि सिर्फ उनके लिए मैं सफल कहानी कहने वाला बन गया।   
      जब मैं प्राइमरी स्‍कूल में अभी बच्‍चा ही था जब से मैं स्‍कूल की प्रतियोगिताओं में जीतता था। और यह क्रम तब तक चलता रहा जब तक मैंने विश्‍वविद्यालय नहीं छोड़ा। मैंने बहुत से पुरस्‍कार—मैडल, पदक, और शील्‍ड जीती। इनको देख कर मेरी नानी खुश हो जाती, उनका उत्‍साह बढ़ जाता और वे नवयुवती सह दिखाई देने लगती। वे जब मेरे इन पुरस्‍कारों को किसी को दिखाती तो उनके चेहरे का उल्‍लास देखने योग्‍य होता। उनका बुढ़ापा गायब हो जाता और नव-यौवन की झलक दिखाई देने लगती। उनका सारा घर अजायबघर बन गया था। मैं उनको अपने पुरस्‍कार भेजता रहता। हाईस्‍कूल तक तो मैं उनके साथ ही रहता था। हां, दिन के समय शिष्टाचार वश मैं अपने माता-पिता के पास जाता था। लेकिन रात को तो मैं नानी के पास ही रहता, क्‍योंकि उस समय मैं उनको सुनाता था।
      अभी भी में देख सकता हूं कि मैं उनके बिस्‍तर के पास बैठा हूं और वे बड़ी एकाग्रता से मेरी बातों को सुन रही है। मैं जो कहता था उसका एक-एक शब्‍द वे इस प्रकार आत्‍मसात करती थी, मानों वे बहुत ही मूल्‍यवान हों। वे उन शब्‍दों को इतने प्रेम और आदर से ग्रहण करती थी कि वे मूल्‍यवान हो जाते थे। जब वे मेरे द्वार पर आते तो भिखारी होते, लेकिन नानी के घर में प्रवेश करते तो वे वैसे ही न रह जाते। जैसे ही मेरी नानी मुझसे कहती, राजा, बताओ तो आज तुम्‍हारे साथ क्‍या हुआ—सब बताओ। कुछ भी न छोड़ना, इसका वादा करो। वैसे ही भिखारी से वह सब गिर जाता जिससे वह भिखारी दिखता था। और वह राजा बन जाता। हर रोज मैं उनसे यह वादा करता और दिन भर की सारी घटनाएं सुनाता। फिर भी वे कहती, ‘ अच्‍छा और बताओ या वह बात फिर से बताओ।‘कई बार मैं उनसे कहता, ‘ तुम मुझे बिगाड़ दोगी; तुम और शंभु बाबू दोनों मुझे सदा के लिए बिगाड़ रहे हो।’ और सचमुच उन्‍होंने अपना काम बड़े अच्‍छे से किया।   
      मैंने सैकडों पुरस्‍कार प्राप्‍त किए। सारे प्रदेश में ऐसा कोई हाईस्‍कूल नहीं था। जहां पर बोल कर मैंने पुरस्‍कार प्राप्‍त न किया हो—एक बार को छोड़ कर। केवल एक बार मैं नहीं जीता और कारण बिलकुल साधारण था। सब लोगों को बड़ा आश्‍चर्य हुआ। जो लड़की जीती थी उसे हैरानी हुई। उसने भी मुझसे कहा, ‘ मैं तो यह सोच भी नहीं सकती कि तुम्‍हारे विरोध में मैं जीत सकती हूं।’ पूरा हॉल—और उस हॉल में कोई दो हजार छात्र रहे होंगे, वे सब इसकी चर्चा करने लगे कि यह निर्णय गलत है, अन्‍याय किया गया है। इस प्रतियोगिता का सभापतित्‍व करने वाले प्रिंसिपल ने भी यही कहा। उस कप का हारना मेरे लिए बहुत महत्‍वपूर्ण हो गया। सच तो यह है कि अगर मैं न हारता तो मैं बड़ी मुसीबत में पड जाता। उसके बारे में मैं तुम्‍हें समय आने पर बताऊंगा।
      उस प्रिंसिपल ने मुझे बुलाकर कहा: ‘ मुझे बहुत अफसोस है। विजेता तो तुम्हीं हो।‘ और उन्‍होंने अपनी घड़ी मुझे देते हुए कहा: ‘ यह घड़ी उस लड़की को दिए कप से कहीं अधिक मूल्‍यवान है।‘ 
      और सचमुच वह घड़ी बहुत कीमती थी। वह सोने की घड़ी थी। मुझे हजारों घड़ियाँ मिली है, लेकिन उतनी सुंदर घड़ी तो कभी नहीं मिली। वह प्रिंसिपल अनोखी और दुर्लभ चीजों का संग्रह करते थे। और यह घड़ी भी बहुत अनोखी थी। अभी भी मैं उसे देख सकता हुं।
      मुझे बहुत घड़ियाँ मिलीं थी उन्‍हें मैं भूल गया हूं। उनमें से एक घड़ी  तो विचित्र ढंग से चलती है। जब मुझे उसकी जरूरत पड़ती है तो वह बंद हो जाती है। बाकी समय वह ठीक चलती है, सिर्फ रात को तीन और पांच बचे के बीच रूक जाती है। बाकी समय वह ठीक चलती है। क्‍या ये अजीब बात नहीं है! क्‍योंकि यह ठीक वही समय है जब मेरी आँख खुलती है। यह मेरी पुरानी आदत है। अपनी युवावस्‍था में मैं सुबह तीन बजे उठ जाता था। यह मेरा क्रम इतने बरसों तक चला कि अब नहीं भी उठता हूं तो भी मेरी नींद खुल जाती है और मैं करवट बदल कर फिर सो जाता हूं। यही समय है जब मैं घड़ी देखना चाहता हूं कि मैं उठ जांऊ या थोड़ी और सो जांऊ। और आश्‍चर्य तो यह है कि घड़ी ठीक इसी वक्‍त बंद हो जाती है।
      आज सुबह यह ठीक चार बजे बंद हो गई। मैंने घड़ी देखी और सोचा कि अभी बहुत जल्‍दी है और मैं दुबारा सो गया। एक घंटा सोने के बाद मैंने फिर घड़ी देखी, तो तब भी चार ही बजे थे। मैंने अपने से कहा, अच्‍छा हो, आज रात कभी समाप्‍त ही नहीं होने वाली। मैं फिर सो गया बिना सोचे—तूम मुझे जानते हो, मैं सोचने वाला नहीं हूं—बिना सोचे कि शायद घड़ी बंद हो गई होगी। मैंने सोचा, यह रात अंतिम रात लगती है। अब मैं सदा के लिए सो सकता हूं। और मैं यह सोच कर बहुत खुश हो गया कि रात समाप्‍त ही नहीं होगी। और मैं फिर सो गया। दो घंटे बाद जब फिर घड़ी देखी तो उस समय भी चार ही बजे थे। मैंने कहा, वाह, सिर्फ रात ही लंबी नहीं है, इसके साथ समय भी रूक गया है।
      उस प्रिंसिपल ने अपनी घड़ी मुझे देते हुए कहा: माफ करना, क्‍योंकि जीते तो तुम्हीं हो, और मैं तुम्‍हें बताना चाहता हूं कि यह निर्णायक इस लड़की से प्रेम करता है, इसलिए उसने उसके पक्ष में निर्णय दिया है। वह प्रोफेसर है और मेरा सहयोगी है, लेकिन बेवकूफ है। मैं उसे अभी नौकरी से निकाल देता हूं। इस कालेज में उसका सेवाकाल अब समाप्‍त हो गया है। बेवकूफी की भी हद होती है। मैं सभापति की कुर्सी पर बैठा हुआ था और सार हॉल हंस रहा था। सबने देखा था कि वह लड़की कुछ भी नहीं बोल सकी। और जो थोड़ा बहुत बोली वह भी सिर्फ उसके प्रेमी, उस प्रोफेसर को छोड़ कर किसी की समझ में नहीं आया। लेकिन तुम जानते हो, प्रेम तो अंधा होता है।
      मैंने कहा: आपने बिलकुल ठीक कहा कि प्रेम अंधा होता है। खासकर जब यह लड़की प्रतियोगिता में भाग ले रही थी, तो आपने इस अंधे आदमी को निर्णायक क्‍यों बनाया। मैं तो यह बात सबको बता दूँगा।
      और मैंने यह सारी कहानी समाचार-पत्रों को बता दी। बेचारे प्रोफेसर की तो बड़ी दुर्गति हुई। वह अपनी नौकरी और प्रतिष्‍ठा तो खो ही बैठा, साथ ही उस लड़की को भी खो बैठा जिसके लिए उसने यह गलत काम किया था। उसकी प्रेम कहानी समाप्‍त हो गई।
      वे अभी भी जीवित है। अब बूढे हो गए है। एक दिन वे मेरे पास आए और उन्‍होंने यह स्‍वीकार किया कि मुझे अपने किए पर बहुत अफसोस है। गलती अवश्‍य की,लेकिन यह मुझे नहीं मालूम था कि यह घटना ऐसा रूप लें लेगी।मैंने उनसे कहा: यह तो कोई जानता कि एक साधारण सी घटना इस दुनिया में क्‍या ले आएगी। और अफसोस मत करिए। आप अपनी नौकरी और प्रेमिका दोनों को खो बैठे हे। मैंने तो क्‍या खोया, सिर्फ एक शील्‍ड ही तो खोई। लेकिन उसकी मुझे कोई परवाह नहीं, क्‍योंकि मेरे पास बहुत शील्ड है।
      सच तो यह है कि मेरी नानी का घर मेरे इन कपों, मेडलों और शील्‍डों के लिए धीरे-धीरे एक अजायबघर बन गया था। लेकिन वे बहुत प्रसन्‍न होती थी। इस कचरे से भरने के लिए वह घर छोटा था लेकिन वे बहुत खुश थी कि मैं कालेज और युनिवर्सिटी से अपने पुरस्‍कारों को उन्‍हें भेजता रहता था। मैं वाद-विवाद प्रतियोगिता, कहानी प्रतियोगिता, कविता-पाठ प्रतियोगिता में अनेक पुरस्‍कार प्राप्‍त करता और इन सबको नानी के पास भेज देता। हर वर्ष मुझे दर्जनों पुरस्‍कार मिलते। लेकिन एक बात मैं तुमसे कहूं कि नानी और शंभु बाबू इन दोनों ने मेरी बातों पर पूरा ध्‍यान देकर मुझे बहुत बिगाड़ दिया। बिना सिखाए ही उनहोंने मुझे बोलने की कला सिखा दी। जब कोई इतने ध्‍यान से सुन रहा हो तो तुम अनायास ही कुछ ऐसा कह देते हो जिसके बारे में पहले न सोचा था न कल्‍पना की थी। यह ऐसे है जैसे कि दूसरे का ध्‍यान चुंबक बन जाता है। और वह आकर्षित करता है। उसको जो तुम्‍हारे भीतर छिपा हुआ है, और तब शब्‍द प्रवाहित होने लगते है।
      मेरा अपना अनुभव यह है कि यह दुनिया रहने के लिए तब तक सुंदर स्‍थान नहीं बन सकती जब तक लोग एकाग्र मन से, ध्‍यान से दूसरे की बात सुनना न सीख जाएं। अभी तो को ध्यान  नहीं देता। जब लोग यह दिखाते भी है कि वे सुन रहे है। तब भी सुन नहीं रहे होते है। वे हजार दूसरी चीज कर रहे होते है। बड़े पाखंडी होते है—कहते कुछ है और दिखाते कुछ है। ध्‍यान से सुनने की बात ही कुछ और होती है। ध्‍यान से सुनने बाला तो पूरी तरह से खुला रहता है।  केवल ध्‍यान, केवल एकाग्रता और कुछ नहीं। ध्‍यान देने की कला स्‍त्रैण गुण है। और जो ध्‍यान देने की कला जान लेता है वह एक विशेष अर्थ में स्‍त्रैण हो जाता है, इतन सुकुमार इतना कोमल कि तुम उसको अपने नाखूनों से खरोंच सकते हो।
      मेरी नाना दिन भर प्रतीक्षा करतीं रहती कि में कब उनके पास आऊँगा और उनको कहानी सुनाऊं गा। और तुम्‍हें यह जान कर आश्‍चर्य होगा कि उन्‍होंने अनजाने ही कैसे मुझे उस काम के लिए तैयार कर दिया जो मैं बाद में करने वाला था। बहुत सी कहानियां जो मैंने तुम्‍हे सुनाई, नानी ने ही उन्‍हें सबसे पहले सुना था। उन्‍हें ही बिना किसी डर के मैं कुछ भी सुना सकता था।
      दूसरे व्‍यिक्‍त, शंभु बाबू मेरी नानी से बिलकुल भिन्‍न थे। नानी का अंतबोर्ध बहुत प्रखर था। लेकिन वे बौद्धिक नहीं थी। शंभु बाबू में भी अंतर्बोध था, लेकिन वे बौद्धिक भी थे। वे तो प्रथम श्रेणी के बौद्धिक थे। मैं बहुत से बुद्धिजीवियों से मिला हूं—कुछ प्रसिद्ध और कुछ बहुत प्रसिद्ध—लेकिन उनमें कोई भी शंभु बाबू की बराबरी नहीं कर सकता। उनमें अंतर्बोध और बुद्धि, दोनों का मेल था, और थोड़ा बहुत नहीं बहुत मात्रा में था। असा गोली उनसे खुश हो जाता।
      वे भी मेरी बातों को बड़े चाव से सुनते थे। रोज स्‍कूल के बाद मैं उनके पास जाता था। और वे दिन भर प्रतीक्षा करते कि कब मेरे स्‍कूल कि छुटटी होगी। जैसे ही मैं स्‍कूल की कैद से छूटता, मैं पहले शंभु बाबू के पास जाता। वे मेरे लिए चाए और मेरी पसंद की मिठाइयों तैयार रखते। यह बात मैं इसलिए बता रहा हूं, क्योंकि बहुत कम लोग दूसरों के बारे में सोचते है। शंभु बाबू सदा दूसरे का खयाल रख कर ही नाश्‍ते का इंतजाम करते। मैंने कभी किसी और को उनके जैसा दूसरे का ध्‍यान रखते हुए नहीं देखा। अधिकांश लोग, हालांकि वे दूसरों के लिए तैयारी करते है। पर अपनी रूचि के अनुसार ही दूसरों को खिलाते-पिलाते है और अपनी पंसद की चीजों को ही दूसरों को पसंद करने के लिए मजबूर करते है।
      शंभु बाबू ऐसा नहीं करते थे। वे हमेशा दूसरों की पसंद के बारे में सोचते थे। उनकी इस बात को में प्रेम करता था। और उसका आदर करता था। उनके मरने के बाद मुझे मालूम हुआ कि दुकानदारों से पूछ कर उन्‍ही चीजों को खरीदते थे जिनको मेरी नानी ख़रीदती थी। बाद में दुकानदारों और हलवाई यों ने मुझे बताया कि शंभु बाबू एक बड़ा अजीब प्रश्न पूछते थे। वे जो बूढी महिला नदी के पास अकेली रहती है, वे तुमसे क्‍या ख़रीदती है। उस समय तो हमने ध्‍यान दिया कि वे ऐसा क्‍यों पूछते है। लेकिन मालूम हुआ कि वे तुम्‍हारी पसंद जानना चाहते थे।
      मुझे यह देख कर बड़ा आश्‍चर्य होता था कि वे सदा मेरी पसंद की चीजें मेरे सामने रखते थे। वे कानून के आदमी थे, इसलिए उन्‍होंने  मेरी पसंद को जानने को ये तरीका खोज लिया। स्‍कूल से मैं भागा-भागा उनके घर पहुंचता,चाय पीता और मिठाइयों  खाता। अभी में नाश्ता खत्‍म भी नकरता कि वे मेरी बातें सुनने के लिए तैयार हो जाते। वे कहते, तुम जो चाहो वह कहो। तुम क्‍या कहते हो, इससे  मुझे कोई मतलब नहीं में तो केवल सुनना चाहता है। उनहोंने स्‍पष्‍ट कह दिया था कि बोलने कि मुझे पूरी स्‍वतंत्रता है। किसी विशेष विषय का कोई आग्रह नहीं है। में जो चाहूं वह बोलूं। और वे यह भी कहते कि अगर तूम मौन रहना चाहो तो मौन रहो। मैं तुम्‍हारे मौन को सुन लूंगा।         
      और कभी कभी ऐसा भी होता कि मैं चुप रह जाता, कुछ न बोलता। और जब में अपनी आंखें बंद करता तो वे भी अपनी आंखे बंद कर लेते और हम दोनों क्‍वेकर्स की तरह मौन में बैठे रहते। एक बार मैने उनसे कहा: शंभु बाबू आप एक बच्‍चे की बातें सुनते है। बड़ा अजीब लगता है। होना तो यह चाहिए कि आप बोले और में सुनु। उन्‍होंने हंस कर कहा: यह असंभव है। और कभी कुछ नहीं कहूंगा। मैं तुमसे कुछ नहीं कह सकता, क्योंकि मैं कुछ नहीं जानता। और मैं तुम्हारा बहुत आभारी हूं। क्योंकि तुमने मुझे अपने अज्ञान का बोध करा दिया है।   
      इन दोनो व्यिक्तयों न मुझे  इतना ध्यान दिया कि अपने बचपन में ही में जीवन के इस तथ्‍य की समझ गया कि अपने प्रति दूसरे का ध्‍यान अपने लिए एक प्रकार का भोजन है, एक प्रकार कि पौष्टिकता है। मनोवैज्ञानिक तो अब इसकी चर्चा कर रहे है। बच्‍चे की देखभाल अच्‍छी तरह से की जाए,लेकिन अगर उसको ध्‍यान न मिला तो शायद वह बचेगा नहीं। अपनी पौष्टिकता के लिए ध्‍यान बहुत आवश्‍यक चीज है। इस अर्थ में मैं बहुत भाग्‍यशाली रहा। मेरी नानी  और शंभु बाबू ने अनजाने ही मुझे जिस दिशा कि और प्रेरित किया, मैं उस और बढ़ता ही गया, बढ़ता ही गया।
      भाषण की कला सीखें बिना ही मैं वक्ता बन गया। अभी भी मुझे भाषण देना नहीं आता और हजारों लोगों से बोल रहा हूं। लेकिन मैं नहीं जानता कि भाषण को आरंभ कैसे किया जाता है। क्‍या तुम इसका मजा देखते हो। मैं अभी इक्‍यावन वर्ष का हूं और शायद मनुष्‍य के इतिहास में सबसे अधिक बोला होऊंगा। मैंने बहुत जल्‍दी बोलना शुरू कर दिया था। लेकिन पश्चिमी जगत में जिसको वक्‍ता कहते है। वह मैं किसी भी तरीके नहीं हूं। वैसा वक्‍ता नहीं जो भाषण को आरंभ करते है—सज्‍जनों और महिलाओं। और वह बकवास वे अपने अनुभव के आधार पर नहीं बोलते। उनके शब्‍द और विचार सब उधार होते हे। मैं उस प्रकार का वक्‍ता नहीं था। मैं तो अपने ह्रदय की गहराई से अपने अनुभव के आधार पर बोलता था। जिसके कारण मेरे शब्‍द अंगारे बन जाते थे। मेरा बोलना कोई सीखी हुई कला नहीं बल्‍कि मेरा जीवन था। मेरे स्‍कूल के दिनों से ही सुनने वालों को यह पता लग गया था और किसी एक को नहीं, बहुतों को—कि मेरा बोलना ह्रदय से आता है। मैं तोतों की तरह रटा-रटाया भाषण नहीं देता। उसी समय वहां पर मेरे में विचार आते या ह्रदय में जो भाव उठता उनको सहज ढंग से अभिव्यक्त कर देता। बोलते समय मेरे शब्‍द सहज-स्‍फूर्त होते।
      जिस प्रिंसिपल ने मुझे घड़ी दी थी और जो तुम्‍हारे लिए इस सारी मुसीबत को ले आया, उसका नाम था बी. एस. औधोलिया। मुझे आशा है कि वे अभी जीवित है। जहां तक मुझे मालूम है वे अभी जीवित है। जब मैं आशा करता हूं तो उसका अर्थ है कि ऐसा ही है।
      उस रात उन्‍होंने कहा: मुझे बहुत अफसोस है। और सचमुच उनको बहुत अफसोस था। उन्‍होंने उस प्रोफसर को नौकरी से निकाल दिया। बी. एस. औधोलिया ने मुझ से यह भी कहा कि मुझे जब भी किसी चीज की जरूरत हो तो मैं सिर्फ उन्‍हें तुरंत सुचित कर दूँ। और अगर उनकी ताकत के अंदर हुआ तो वे उसे पूरा करेंगे। बाद में जब भी मुझे कोई जरूरत होती तो मैं उन्हें एक नोट लिख कर भेज देता और वे तुरंत उस आवश्‍यकता की पूर्ति करते। उन्‍होंने मुझसे कभी नहीं पूछा कि यह चीज क्‍यों चाहिए। एक बार मैंने उनसे स्‍वयं पूछा कि आप यह क्‍यों नहीं कभी पूछते कि तुम्‍हें इस चीज की जरूरत क्‍यों है। उन्‍होंने कहा: में तुम्‍हें जानता हूं। अगर तुमने किसी चीज कि मांग कि  है तो मेरा क्‍यों पूछना निहायत बेवकूफी होगी। अगर तुमने कोई चीज मांगी है तो यह मानना असंभव है कि बिना जरूरत के तुम किसी चींजे कि मांग कर सकते हो। मैं तुम्‍हें जानता हूं और तुम्‍हे जानना काफी है।मैने उनकी और देखा। मुझे आशा नहीं थी कि ऐ नामी कालेज का प्रिंसिपल इतना समझदार हो सकता है। उन्‍होंने हंस कर कहा: यह सिर्फ संयोग कि बात है कि मैं प्रिसिंपल हूं। मुझे होना नहीं चाहिए था। लेकिन शासकों कि गलती से मैं नियुक्‍त हो गया।
      मैंने तो उनसे कुछ भी नहीं पूछा था, लेकिन उन्‍होंने मेरे चेहरे के भाव पढ़ लिए थे। उसी दिन से मैंने अपनी दाढ़ी बढानी शुरू कर दी। दाढ़ी के कारण तुम ज्‍यादा कुछ नहीं पढ़ सकते। अगर इतनी आसानी से चीजें पढ़ी जा सकें तो यह खतरनाक है। कुछ तो करना पड़े ताकि लोग चेहरे को समाचारपत्र कि तरह से पढ़ सकें। छह महीने के बाद जब वे मुझे फिर से मिले तो उन्‍होंने कहा कि तुमने दाढ़ी बढानी क्‍यों शुरू कर दी।
      मैंने कहा: आपके कारण, आपने कहा था कि आपने मेरे चेहरे को पढ़ लिया। अब मेरा चेहरा इतनी आसानी से नहीं पढ़ा जा सकता।
      उन्‍होंने कहा: तुम छिपा नहीं सकते, तुम्‍हारी आंखे तुम्‍हारे भावों को प्रकट कर देगी। अगर तुम सच मूच में छिपाना चाहते हो तो रंगीन चश्‍मे लगाना क्‍यों नहीं शुरू कर देते।
      मैंने कहा: रंगीन चश्‍मा नहीं लगा सकता, क्योंकि मैं अपने और आस्तित्व के बीच कोई बाधा नहीं डालना चाहता। आंखें ही तो दोनों के बीच सेतु, पुल का काम करती है।
      इसीलिए अंधे आदमी के प्रति सभी लोगों को सभी जगह सभी लोगों क मन में इतनी सहानुभूति होती है। उसके लिए कोई पुल नहीं रहा। इसलिए उसका संपर्क टूट गया है। अब शोधकर्ता कहते है कि अस्सी प्रतिशत अस्‍तित्‍व के साथ हमारा संपर्क आंखों के माध्‍यम से होता है। शायद वे ठीक कहते है। शायद जितना वे सोचते है उससे भी ज्यादा लेकिन अस्‍सी प्रतिशत तो निशचित है और शायद उससे भी अधिक सिद्ध हो, शायद नब्‍बे प्रतिशत या निन्यानवे प्रतिशत। आँख ही आदमी को अभिव्‍यक्‍त करती है।   
      बुद्ध कि आंखें एडोल्‍फ हिटलर जैसी नहीं हो सकती.....या तुम्‍हारा क्‍या खयाल है कि ऐसा हो सकता है। अच्‍छा, इन दोनों को छोड़ो, ये समकालीन नहीं थे। जीसस और जुदास समकालीन थे। समकालीन ही नहीं वरन गुरू और शिष्‍य थे। फिर भी मैं कहता हूं कि दोनों की आंखें एक जैसी नहीं हो सकतीं। जीसस की आंखे बच्‍चे जैसी सरल होंगी। हालांकि उस समय शारीरिक रूप से वे बच्‍चे नहीं थे। मनोवैज्ञानिक रूप से वे बच्‍चे ही थे। सूली पर मरते समय भी वे ऐसे दिखाई दे रहे थे, मानों वे अभी गर्भ में ही हो। इतने ताजा दिखार्इ दे रहे थे मानों फूल खिल ही न पाया हो और कली के रूप में ही ठहर गया हो। और उसको चारों और फैली हुई कुरूपता कि कोई जानकारी न हो। जीसस और जुदास एक साथ रहते थे। एक साथ घूमते थे। लेकिन मेरा ख्‍याल नहीं है कि जुदास ने कभी जीसस की आंखों में देखा हो। अगर देखा होता तो घटनाक्रम बदल जाता। 
      अगर जुदास एक बार भी जीसस की आंखों में देखने का साहस जुटा पाता, तो न जीसस को सूली लगती और न क्रासियनिटी होती—मेरा मतलब है, न क्रिश्चियनिटी होती। क्रिश्‍चिनिटी के लिए क्रासयानिटी ही मेरा शब्‍द है। जुदास चालाक था।   
      जीसस इतने सरल थे कि उनको बुद्धू भी कहा जा सकता है। अपने उपन्‍यास ‘’द ईडियट’’ में फयोदोर दोस्‍तोवस्‍की ने यह कहा है।
      जब वे जीसस के बारे में नहीं लिखा गया, फिर भी दोस्‍तोवस्‍की जीसस से इतना प्रभावित था कि किसी न किसी प्रकार जीसस भीतर से आ ही जाता था। उपन्‍यास का मुख्‍य चरित्र, ‘’द ईडियट’’ असल में कोई और नहीं जीसस ही है। उनका उल्लेख कहीं नहीं किया गया। उनका नाम भी नहीं आता, उनसे कोई साम्‍य भी नहीं है। लेकिन जब इस उपन्‍यास को पढ़ो तो ह्रदय में जो गूंज उठती है उसके कारण तुम्‍हें मुझसे सहमत होना पड़ेगा। यह सहमति मस्‍तिष्‍क से नहीं होगी। यह सहमति कल्‍पना जहां तक जा सकती है उससे गहरी होगी, ह्रदय कि गहराई से होगी—सही सहमति।

शंभु बाबू

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