मन के कुछ नियम हैं, मन के कुछ खेल हैं; उनमें एक नियम यह है कि जो चीज उपलब्ध हो जाए, मन उसे भूलने लगता है !! Osho !!
मन के कुछ नियम हैं,मन के कुछ खेल हैं,उनमें एक नियम यह है कि जो चीज उपलब्ध हो जाए,मन उसे भूलने लगता है ! जो मिल जाए, उसकी विस्मृति होने लगती है। जो पास हो, उसे भूल जाने की संभावना बढ़ने लगती है ! मन उसकी तो याद करता है, जो दूर हो; मन उसके लिए तो रोता है, जो मिला न हो; जो मिल जाए, मन उसे धीरे-धीरे भूलने लगता है ! मन की आदत सदा भविष्य में होने की है, वर्तमान में होने की नहीं !
तो अगर तुम मेरे पास हो, हजार-हजार तमन्नाएं लेकर तुम मेरे पास आए हो, कितने-कितने सपने सजाकर, कितने भाव से !! पर अगर तुम यहां रुक गए मेरे पास ज्यादा देर, तो धीरे-धीरे तुम मुझे भूलने लगोगे ! तुम बड़े हैरान होओगे कि दूर थे, अपने घर थे, हजारों मील दूर थे, वहा तो इतनी याद आती थी, वहां इतने तड़फते थे, अब यहां पास हैं और एक दूरी हुई जाती है !
मन के इस नियम को समझना और तोड़ना जरूरी है ! इसको तोड़ दो...वही ध्यान है ! ध्यान का अर्थ है : जो है, उसके प्रति जागो - जो नहीं है, उसकी फिक्र छोड़ो ! और मन का नियम यह है - जो है, उसके प्रति सोए रहो, जो नहीं है, उसके प्रति जागते रहो ! मन का सारा खेल अभाव के साथ संबंध बनाने का है !
तुम्हारे पास अगर लाख रुपए हैं तो मन उनको नहीं देखता, जो दस लाख तुम्हारे पास नहीं हैं, उनका हिसाब लगाता रहता है कि कैसे मिलें ? जब तुम्हारे पास लाख न थे, दस हजार ही थे, तब वह लाख की सोचता था ! अब लाख हैं, वह दस लाख की सोचता है ! जब तुम्हारे पास दस हजार थे, सोचा था, लाख होंगे तो बड़े आनंदित होओगे ! अब तुम बिलकुल आनंदित नहीं हो ! लाख तुम्हारे पास हैं, अब तुम कहते हो, दस लाख होंगे, तब आनंदित होंगे ! दस लाख भी हो जाएं, तुम आनंदित होने वाले नहीं हो ! क्योंकि तुम मन का सूत्र ही नहीं पकड़ पा रहे हो..! वह कहेगा, दस करोड़ होने चाहिए ! वह आगे ही बढ़ाता जाता है !
मन ऐसा ही है, जैसे जमीन को छूता हुआ क्षितिज ! वह कहीं है नहीं, सिर्फ दिखाई पड़ता है ! तुम आगे बढ़े, वह भी आगे बढ़ गया !
तो जहां तुम पहुंच जाते हो, मन वहा से हट जाता है ! मन आगे दौड़ने लगता है ! कहीं और जाता है ! मन सदा तुमसे आगे दौड़ता रहता है ! तुम जहां हो, वहां कभी नहीं होता ! तुम मंदिर में हो, वह दुकान में है ! तुम दुकान में हो, तो वह मंदिर में ! तुम बाजार में हो तो वह हिमालय की सोचता है ! तुम हिमालय पहुंच जाओ, वह बाजार की सोचने लगता है !
मन के इस खेल को समझो !! अगर न समझे, तो धीरे-धीरे तुम पाओगे, तुम मेरे पास रहकर भी बहुत दूर हो गए ! इससे मेरा कुछ लेना-देना नहीं है ! इससे तुम्हारे मन की मूर्च्छा का ही संबंध है !
ओशो,
"एस धम्मो सनंतनो" - (प्रवचन--028)
तो अगर तुम मेरे पास हो, हजार-हजार तमन्नाएं लेकर तुम मेरे पास आए हो, कितने-कितने सपने सजाकर, कितने भाव से !! पर अगर तुम यहां रुक गए मेरे पास ज्यादा देर, तो धीरे-धीरे तुम मुझे भूलने लगोगे ! तुम बड़े हैरान होओगे कि दूर थे, अपने घर थे, हजारों मील दूर थे, वहा तो इतनी याद आती थी, वहां इतने तड़फते थे, अब यहां पास हैं और एक दूरी हुई जाती है !
मन के इस नियम को समझना और तोड़ना जरूरी है ! इसको तोड़ दो...वही ध्यान है ! ध्यान का अर्थ है : जो है, उसके प्रति जागो - जो नहीं है, उसकी फिक्र छोड़ो ! और मन का नियम यह है - जो है, उसके प्रति सोए रहो, जो नहीं है, उसके प्रति जागते रहो ! मन का सारा खेल अभाव के साथ संबंध बनाने का है !
तुम्हारे पास अगर लाख रुपए हैं तो मन उनको नहीं देखता, जो दस लाख तुम्हारे पास नहीं हैं, उनका हिसाब लगाता रहता है कि कैसे मिलें ? जब तुम्हारे पास लाख न थे, दस हजार ही थे, तब वह लाख की सोचता था ! अब लाख हैं, वह दस लाख की सोचता है ! जब तुम्हारे पास दस हजार थे, सोचा था, लाख होंगे तो बड़े आनंदित होओगे ! अब तुम बिलकुल आनंदित नहीं हो ! लाख तुम्हारे पास हैं, अब तुम कहते हो, दस लाख होंगे, तब आनंदित होंगे ! दस लाख भी हो जाएं, तुम आनंदित होने वाले नहीं हो ! क्योंकि तुम मन का सूत्र ही नहीं पकड़ पा रहे हो..! वह कहेगा, दस करोड़ होने चाहिए ! वह आगे ही बढ़ाता जाता है !
मन ऐसा ही है, जैसे जमीन को छूता हुआ क्षितिज ! वह कहीं है नहीं, सिर्फ दिखाई पड़ता है ! तुम आगे बढ़े, वह भी आगे बढ़ गया !
तो जहां तुम पहुंच जाते हो, मन वहा से हट जाता है ! मन आगे दौड़ने लगता है ! कहीं और जाता है ! मन सदा तुमसे आगे दौड़ता रहता है ! तुम जहां हो, वहां कभी नहीं होता ! तुम मंदिर में हो, वह दुकान में है ! तुम दुकान में हो, तो वह मंदिर में ! तुम बाजार में हो तो वह हिमालय की सोचता है ! तुम हिमालय पहुंच जाओ, वह बाजार की सोचने लगता है !
मन के इस खेल को समझो !! अगर न समझे, तो धीरे-धीरे तुम पाओगे, तुम मेरे पास रहकर भी बहुत दूर हो गए ! इससे मेरा कुछ लेना-देना नहीं है ! इससे तुम्हारे मन की मूर्च्छा का ही संबंध है !
ओशो,
"एस धम्मो सनंतनो" - (प्रवचन--028)
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