ध्यान के समय मन एकाग्र नहीं होता, तो क्या करूं?
नहीं; पहली तो यह बात आपके खयाल में नहीं आयी कि एकाग्रता ध्यान नहीं है। मैंने कभी एकाग्रता करने को नहीं कहा। ध्यान बहुत अलग बात है। साधारणत: तो यही समझा जाता है कि एकाग्रता ध्यान है। एकाग्रता ध्यान नहीं है। क्योंकि एकाग्रता में तनाव है। एकाग्रता का मतलब यह है कि सब जगह से छोड्कर एक जगह मन को जबरदस्ती रोकना। एकाग्रता सदा जबरदस्ती है; इसमें कोएर्सन है। क्योंकि मन तो भागता है, और आप कहते हैं : 'नहीं भागने देंगे ' तो आप और मन के बीच एक लडाई शुरू हो जाती है। और जहां लडाई है, वहां ध्यान कभी नहीं होगा। क्योंकि लडाई ही तो उपद्रव है, हमारे पूरे व्यक्तित्व की। कि वह पूरे वक्त कॉनफ्लिक्ट है, द्वंद्व है, संघर्ष है। और मन को ऐसी अवस्था में छोडना है, जहां कोई कॉनफ्लिक्ट ही नहीं है, तब ध्यान में आप जा सकते हैं।
मन को छोडना है निद्वंद्व। अगर द्वंद्व किया, तो कभी ध्यान में नहीं जा सकते। और अगर द्वंद्व किया, तो परेशानी बढ़ जाने वाली है। क्योंकि हारेंगे, दुखी होंगे। जोर से दमन करेंगे; हारेंगे, दुखी होंगे और चित्त विक्षिप्त होता चला जायेगा। बजाय इसके कि चित्त आनंदित हो, प्रफुल्लित हो—और उदास, और हारा हुआ, फ्रस्ट्रेटेड हो जायेगा।
तो मन से तो लड़ना ही नहीं है, यह तो मेरा पहला सूत्र है। जो मन से लड़ेगा, उसकी हार निश्चित है। अगर जीतना है मन को, तो पहला नियम यह है कि लड़ना मत। इसलिए मैं एकाग्रता के लिए, कनसनट्रेशन के लिए सलाह नहीं देता हूं। मेरी सलाह तो है रिलैक्वेशन के लिए—कनसनट्रेशन के लिए नहीं। मेरी सलाह एकाग्रता के लिए नहीं है, मेरी सलाह विश्राम के लिए है। एक घण्टे भर के लिए मन को विश्राम देना है, तो विश्राम का सूत्र अलग हो जायेगा।
विश्राम का पहला तो सूत्र यह है कि मन जैसा है, हम उससे राजी हैं। अगर आप नाराज हैं उससे, तो फिर विश्राम संभव नहीं हो सकता है। क्योंकि नाराजगी से लडाई शुरू हो जायेगी। मन जैसा भी है—बुरा और भला, क्रोध से भरा, चिंता से भरा, विचारों से भरा—जैसा भी है, हम उसी मन के साथ राजी हैं।
तो एक घंटे के लिए समय निकाल लें और मन जैसा है, वैसा उसके साथ पूरी तरह राजी हो जायें। टोटल एक्सेप्टिबिलिटी। विरोधी नहीं है हमारा मन। अगर मन भागता है, तो हम भागने देते हैं। अगर रोता है, तो रोने देते हैं, अगर हंसता है, तो हंसने देते हैं। अगर वह व्यर्थ की बातें सोचता है, तो सोचने देते हैं। हम कहते हैं कि मन जो भी करे, एक घण्टा लडाई नहीं करेंगे। पहली बात। हम लडेंगे ही नहीं। मन जो भी करेगा, हम चुपचाप बैठे देखते रहेंगे, इससे न लडेंगे।
जब सब होता रहे और हम सब स्वीकार कर लें, तो एक बहुत नयी चेतना का जन्म शुरू होता है। तत्काल तुम साक्षी हो जाते हो, तत्काल। क्योंकि जैसे ही तुम कर्त्ता नहीं रहते, तुम साक्षी हो जाते हो। कोई उपाय ही नहीं है दूसरा। यह ट्रांसफामेंशन आटोमैटिक है। लोग सोचते हैं कि साक्षी होना पड़ेगा। साक्षी कोई हो ही नहीं सकता। वह तो जब कर्त्ता नहीं रह जाता, तो होगा क्या! जैसे कि नसरुद्दीन की अर्थी बांधी जा रही है। क्या करेगा बेचारा, देख रहा है। साक्षी है भर, अब तर्क करने की बात ही खत्म हो गयी। वह आदमी मर गया है।
जिस क्षण तुम्हारा कर्त्ता का भाव चला जाता है, उसी क्षण तुम्हारा साक्षी का भाव आविर्भूत हो जाता है। यह सहज होता है। इसलिए साक्षी होना कोई कर्म नहीं, कृत्य नहीं। और साक्षी हो जाना ध्यान है। साक्षी हो जाना ध्यान है—इससे ज्यादा ध्यान कुछ भी नहीं है।
इसलिए एकाग्रता तो कभी ध्यान नहीं है, क्योंकि तुम कर्त्ता हो, तुम कर रहे हो। तुम्हारा किया हुआ, तुमसे बड़ा नहीं होने वाला है। तुम परेशान हो, दुखी हो। तुम्हारा किया हुआ भी परेशानी होगी, दुख होगा। अगर मैं स्टुपिड आदमी हूं मूड आदमी हूं तो मेरी एकाग्रता भी मूढ़ता ही होगी। मैं ही एकाग्र करूंगा न! एकाग्रता कोई और तो नहीं करेगा। मैं एक मूड आदमी हूं मैं एकाग्रता करता हूं। तो एक मूरख एकाग्र हो जायेगा और क्या हो जाने वाला है! और एकाग्र मूरख और खतरनाक है। अगर तुम दुखी हो, तो दुखी होना ही एकाग्रता बन जायेगी। दुख पर ही तुम एकाग्र हो जाओगे और और मुश्किल है।
एकाग्रता कभी भी तुम्हें अपने से ऊपर नहीं ले जा सकती। ट्रान्सेंडेन्स उसमें नहीं है संभव, क्योंकि तुम्हीं करोगे, तो आगे कैसे जाओगे? लेकिन साक्षी भाव जो है, वह तुम्हारा कृत्य नहीं है। तुम हो ही नहीं उसमें। वह हैपनिग है। तुम तो अचानक पाते हो कि जिस क्षण वह स्थिति आ जाती है कि तुम कर्त्ता नहीं रहे, तुम अचानक पाते हो कि तुम साक्षी हो गये हो। इस होने में कोई यात्रा नहीं करनी पड़ती। कर्त्ता होने से साक्षी होने तक तुम्हें जाना नहीं पड़ता। बस, अचानक एक क्षण पहले तुम कर्त्ता थे और अचानक एक क्षण बाद तुम पाते हो कि कर्त्ता खो गया है और मैं सिर्फ साक्षी रह गया हूं।
यह जो दशा है, यह ध्यान है। और इसलिए ध्यान करने की कोशिश मत करना। ध्यान हो सके, इस हालत में अपने को छोड़ना है। ध्यान होगा, आपको तो सिर्फ अपने को उस हालत में छोड़ देना है कि हो जाये। सूरज निकला है और मैंने अपना दरवाजा खुला छोड़ दिया है। सूरज निकलेगा, रोशनी भीतर आ जायेगी, वह मुझे लानी नहीं पड़ेगी। लेकिन एक बड़े मजे की बात है कि मैं सूरज की रोशनी बांधकर कमरे के भीतर तो नहीं ला सकता, लेकिन दरवाजा बंद करके सूरज की रोशनी को रोक सकता हूं। बाहर रोकने में कठिनाई है। दरवाजा बंद है, तो रुक जायेगी। तो तुम ध्यान को होने से रोक सकते हो, रोक रहे हो; लेकिन ध्यान को ला नहीं सकते। हमारी जो सारी तकलीफ है, वह बहुत उलटी है।
जो असलियत है, वह यह है कि जब कोई मुझसे पूछता है कि ध्यान नहीं हो रहा है, तो उलटी ही बात पूछ रहा है। वह असल में प्राणपण से चेष्टा कर रहा है कि कहीं ध्यान न हो जाये! पूरी जिंदगी लगा रहा है कि ध्यान न हो जाये। जन्म—जन्म उसने खराब किये हैं कि ध्यान न हो जाये! और ध्यान के लिए उसने हजार तरह के बैरियर खड़े किये हैं कि वह हो न जाये! कहीं मैं साक्षी न हो जाऊं, इसके लिए तुम सब इंतजाम किये हुए बैठे हो। और फिर जब सुनते हो किसी से कि साक्षी होने में बड़ा आनंद है, तब तुम सोचते हो, 'चलो, साक्षी भी हो जायें। ' तो साक्षी होने की भी कोशिश करते हो और वह तुम्हारा साक्षी से रोकने का पूरा इंतजाम जारी है। उसमें कोई फर्क नहीं पडता है। उसी इंतजाम के भीतर तुम साक्षी भी होना चाहते हो। यह नहीं होगा।
तो घड़ी दो घड़ी के लिए अपने को पूरा छोडो। जो हो रहा है, उसे पूरा स्वीकार कर लो। फिर कुछ होगा। वह कुछ होना ध्यान है। और इसलिए जिनको ध्यान मिलेगा, जिनको हो जायेगा, वे यह नहीं कह सकेंगे कि मैंने किया। अगर कहते हों, तो समझ लेना, अभी नहीं हुआ। और इसीलिए तो बेचारा वैसा आदमी कहता है, 'प्रभु की कृपा है।' उसका कोई और मतलब नहीं है, कोई प्रभु कृपा वगैरह नहीं करता। मगर उसकी तकलीफ है। उसकी तकलीफ यह है कि उसके द्वारा तो हुआ नहीं, वह कहां कहे, किससे कहे। हो तो गया है। उसके द्वारा हुआ नहीं। किसने किया है? बताने जाइए, तो उसकी बडी मुश्किल है। तो वह कहता है कि प्रभु की कृपा से हुआ है, इसका कुल मतलब इतना है कि मेरे द्वारा नहीं हुआ है। प्रभु कृपा से नहीं हुआ है। प्रभु कृपा का मतलब तो यह हो जायेगा कि प्रभु किसी पर कम कृपालु है, किसी पर ज्यादा है, तो बडी गड़बड़ हो जायेगी। उसमें प्रभु पर बडा लांछन लगेगा।
ओशो♣️
नहीं; पहली तो यह बात आपके खयाल में नहीं आयी कि एकाग्रता ध्यान नहीं है। मैंने कभी एकाग्रता करने को नहीं कहा। ध्यान बहुत अलग बात है। साधारणत: तो यही समझा जाता है कि एकाग्रता ध्यान है। एकाग्रता ध्यान नहीं है। क्योंकि एकाग्रता में तनाव है। एकाग्रता का मतलब यह है कि सब जगह से छोड्कर एक जगह मन को जबरदस्ती रोकना। एकाग्रता सदा जबरदस्ती है; इसमें कोएर्सन है। क्योंकि मन तो भागता है, और आप कहते हैं : 'नहीं भागने देंगे ' तो आप और मन के बीच एक लडाई शुरू हो जाती है। और जहां लडाई है, वहां ध्यान कभी नहीं होगा। क्योंकि लडाई ही तो उपद्रव है, हमारे पूरे व्यक्तित्व की। कि वह पूरे वक्त कॉनफ्लिक्ट है, द्वंद्व है, संघर्ष है। और मन को ऐसी अवस्था में छोडना है, जहां कोई कॉनफ्लिक्ट ही नहीं है, तब ध्यान में आप जा सकते हैं।
मन को छोडना है निद्वंद्व। अगर द्वंद्व किया, तो कभी ध्यान में नहीं जा सकते। और अगर द्वंद्व किया, तो परेशानी बढ़ जाने वाली है। क्योंकि हारेंगे, दुखी होंगे। जोर से दमन करेंगे; हारेंगे, दुखी होंगे और चित्त विक्षिप्त होता चला जायेगा। बजाय इसके कि चित्त आनंदित हो, प्रफुल्लित हो—और उदास, और हारा हुआ, फ्रस्ट्रेटेड हो जायेगा।
तो मन से तो लड़ना ही नहीं है, यह तो मेरा पहला सूत्र है। जो मन से लड़ेगा, उसकी हार निश्चित है। अगर जीतना है मन को, तो पहला नियम यह है कि लड़ना मत। इसलिए मैं एकाग्रता के लिए, कनसनट्रेशन के लिए सलाह नहीं देता हूं। मेरी सलाह तो है रिलैक्वेशन के लिए—कनसनट्रेशन के लिए नहीं। मेरी सलाह एकाग्रता के लिए नहीं है, मेरी सलाह विश्राम के लिए है। एक घण्टे भर के लिए मन को विश्राम देना है, तो विश्राम का सूत्र अलग हो जायेगा।
विश्राम का पहला तो सूत्र यह है कि मन जैसा है, हम उससे राजी हैं। अगर आप नाराज हैं उससे, तो फिर विश्राम संभव नहीं हो सकता है। क्योंकि नाराजगी से लडाई शुरू हो जायेगी। मन जैसा भी है—बुरा और भला, क्रोध से भरा, चिंता से भरा, विचारों से भरा—जैसा भी है, हम उसी मन के साथ राजी हैं।
तो एक घंटे के लिए समय निकाल लें और मन जैसा है, वैसा उसके साथ पूरी तरह राजी हो जायें। टोटल एक्सेप्टिबिलिटी। विरोधी नहीं है हमारा मन। अगर मन भागता है, तो हम भागने देते हैं। अगर रोता है, तो रोने देते हैं, अगर हंसता है, तो हंसने देते हैं। अगर वह व्यर्थ की बातें सोचता है, तो सोचने देते हैं। हम कहते हैं कि मन जो भी करे, एक घण्टा लडाई नहीं करेंगे। पहली बात। हम लडेंगे ही नहीं। मन जो भी करेगा, हम चुपचाप बैठे देखते रहेंगे, इससे न लडेंगे।
जब सब होता रहे और हम सब स्वीकार कर लें, तो एक बहुत नयी चेतना का जन्म शुरू होता है। तत्काल तुम साक्षी हो जाते हो, तत्काल। क्योंकि जैसे ही तुम कर्त्ता नहीं रहते, तुम साक्षी हो जाते हो। कोई उपाय ही नहीं है दूसरा। यह ट्रांसफामेंशन आटोमैटिक है। लोग सोचते हैं कि साक्षी होना पड़ेगा। साक्षी कोई हो ही नहीं सकता। वह तो जब कर्त्ता नहीं रह जाता, तो होगा क्या! जैसे कि नसरुद्दीन की अर्थी बांधी जा रही है। क्या करेगा बेचारा, देख रहा है। साक्षी है भर, अब तर्क करने की बात ही खत्म हो गयी। वह आदमी मर गया है।
जिस क्षण तुम्हारा कर्त्ता का भाव चला जाता है, उसी क्षण तुम्हारा साक्षी का भाव आविर्भूत हो जाता है। यह सहज होता है। इसलिए साक्षी होना कोई कर्म नहीं, कृत्य नहीं। और साक्षी हो जाना ध्यान है। साक्षी हो जाना ध्यान है—इससे ज्यादा ध्यान कुछ भी नहीं है।
इसलिए एकाग्रता तो कभी ध्यान नहीं है, क्योंकि तुम कर्त्ता हो, तुम कर रहे हो। तुम्हारा किया हुआ, तुमसे बड़ा नहीं होने वाला है। तुम परेशान हो, दुखी हो। तुम्हारा किया हुआ भी परेशानी होगी, दुख होगा। अगर मैं स्टुपिड आदमी हूं मूड आदमी हूं तो मेरी एकाग्रता भी मूढ़ता ही होगी। मैं ही एकाग्र करूंगा न! एकाग्रता कोई और तो नहीं करेगा। मैं एक मूड आदमी हूं मैं एकाग्रता करता हूं। तो एक मूरख एकाग्र हो जायेगा और क्या हो जाने वाला है! और एकाग्र मूरख और खतरनाक है। अगर तुम दुखी हो, तो दुखी होना ही एकाग्रता बन जायेगी। दुख पर ही तुम एकाग्र हो जाओगे और और मुश्किल है।
एकाग्रता कभी भी तुम्हें अपने से ऊपर नहीं ले जा सकती। ट्रान्सेंडेन्स उसमें नहीं है संभव, क्योंकि तुम्हीं करोगे, तो आगे कैसे जाओगे? लेकिन साक्षी भाव जो है, वह तुम्हारा कृत्य नहीं है। तुम हो ही नहीं उसमें। वह हैपनिग है। तुम तो अचानक पाते हो कि जिस क्षण वह स्थिति आ जाती है कि तुम कर्त्ता नहीं रहे, तुम अचानक पाते हो कि तुम साक्षी हो गये हो। इस होने में कोई यात्रा नहीं करनी पड़ती। कर्त्ता होने से साक्षी होने तक तुम्हें जाना नहीं पड़ता। बस, अचानक एक क्षण पहले तुम कर्त्ता थे और अचानक एक क्षण बाद तुम पाते हो कि कर्त्ता खो गया है और मैं सिर्फ साक्षी रह गया हूं।
यह जो दशा है, यह ध्यान है। और इसलिए ध्यान करने की कोशिश मत करना। ध्यान हो सके, इस हालत में अपने को छोड़ना है। ध्यान होगा, आपको तो सिर्फ अपने को उस हालत में छोड़ देना है कि हो जाये। सूरज निकला है और मैंने अपना दरवाजा खुला छोड़ दिया है। सूरज निकलेगा, रोशनी भीतर आ जायेगी, वह मुझे लानी नहीं पड़ेगी। लेकिन एक बड़े मजे की बात है कि मैं सूरज की रोशनी बांधकर कमरे के भीतर तो नहीं ला सकता, लेकिन दरवाजा बंद करके सूरज की रोशनी को रोक सकता हूं। बाहर रोकने में कठिनाई है। दरवाजा बंद है, तो रुक जायेगी। तो तुम ध्यान को होने से रोक सकते हो, रोक रहे हो; लेकिन ध्यान को ला नहीं सकते। हमारी जो सारी तकलीफ है, वह बहुत उलटी है।
जो असलियत है, वह यह है कि जब कोई मुझसे पूछता है कि ध्यान नहीं हो रहा है, तो उलटी ही बात पूछ रहा है। वह असल में प्राणपण से चेष्टा कर रहा है कि कहीं ध्यान न हो जाये! पूरी जिंदगी लगा रहा है कि ध्यान न हो जाये। जन्म—जन्म उसने खराब किये हैं कि ध्यान न हो जाये! और ध्यान के लिए उसने हजार तरह के बैरियर खड़े किये हैं कि वह हो न जाये! कहीं मैं साक्षी न हो जाऊं, इसके लिए तुम सब इंतजाम किये हुए बैठे हो। और फिर जब सुनते हो किसी से कि साक्षी होने में बड़ा आनंद है, तब तुम सोचते हो, 'चलो, साक्षी भी हो जायें। ' तो साक्षी होने की भी कोशिश करते हो और वह तुम्हारा साक्षी से रोकने का पूरा इंतजाम जारी है। उसमें कोई फर्क नहीं पडता है। उसी इंतजाम के भीतर तुम साक्षी भी होना चाहते हो। यह नहीं होगा।
तो घड़ी दो घड़ी के लिए अपने को पूरा छोडो। जो हो रहा है, उसे पूरा स्वीकार कर लो। फिर कुछ होगा। वह कुछ होना ध्यान है। और इसलिए जिनको ध्यान मिलेगा, जिनको हो जायेगा, वे यह नहीं कह सकेंगे कि मैंने किया। अगर कहते हों, तो समझ लेना, अभी नहीं हुआ। और इसीलिए तो बेचारा वैसा आदमी कहता है, 'प्रभु की कृपा है।' उसका कोई और मतलब नहीं है, कोई प्रभु कृपा वगैरह नहीं करता। मगर उसकी तकलीफ है। उसकी तकलीफ यह है कि उसके द्वारा तो हुआ नहीं, वह कहां कहे, किससे कहे। हो तो गया है। उसके द्वारा हुआ नहीं। किसने किया है? बताने जाइए, तो उसकी बडी मुश्किल है। तो वह कहता है कि प्रभु की कृपा से हुआ है, इसका कुल मतलब इतना है कि मेरे द्वारा नहीं हुआ है। प्रभु कृपा से नहीं हुआ है। प्रभु कृपा का मतलब तो यह हो जायेगा कि प्रभु किसी पर कम कृपालु है, किसी पर ज्यादा है, तो बडी गड़बड़ हो जायेगी। उसमें प्रभु पर बडा लांछन लगेगा।
ओशो♣️
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