हिंसा की तलवार हाथ में हो, तो भी प्रेम का दीया मन से न बुझे !
पुराने मनुष्य-जाति के इतिहास में कृष्ण अकेले हैं जो दमनवादी नहीं हैं।
वे जीवन के सब रंगों को स्वीकार कर लिए हैं। वे प्रेम से भागते नहीं।
वे पुरुष होकर स्त्री से पलायन नहीं करते। वे परमात्मा को अनुभव करते हुए युद्ध से विमुख नहीं होते।
वे करुणा और प्रेम से भरे होते हुए भी युद्ध में लड़ने की सामर्थ्य रखते हैं।
अहिंसक चित्त है उनका, फिर भी हिंसा के ठेठ दावानल में उतर जाते हैं।
अमृत की स्वीकृति है उन्हें, लेकिन जहर से कोई भय भी नहीं है।
और सच तो यह है, जिसे भी अमृत का पता चल गया है उसे जहर का भय मिट जाना चाहिए।
क्योंकि ऐसा अमृत ही क्या जो जहर से फिर डरता चला जाए!
और जिसे अहिंसा का सूत्र मिल गया उसे हिंसा का भय मिट जाना चाहिए। ऐसी अहिंसा ही क्या जो अभी हिंसा से भी भयभीत और घबड़ाई हुई हो!
और ऐसी आत्मा ही क्या जो शरीर से भी डरती हो और बचती हो!
और ऐसे परमात्मा का क्या अर्थ जो सारे संसार को अपने आलिंगन में न ले सकता हो।
तो कृष्ण द्वंद्व को एक साथ स्वीकार कर लेते हैं और इसलिए द्वंद्व के अतीत हो जाते हैं।
ट्रांसेंडेंस जो है, अतीत जो हो जाना है, वह द्वंद्व में पड़ कर कभी संभव नहीं है;
दोनों को एक साथ स्वीकार कर लेने से संभव है।
तो भविष्य के लिए कृष्ण की बड़ी सार्थकता है। और भविष्य में कृष्ण का मूल्य निरंतर बढ़ता ही जाने को है।
जब कि सबके मूल्य फीके पड़ जाएंगे और द्वंद्व भरे धर्म जब कि पीछे अंधेरे में डूब जाएंगे और इतिहास की राख उन्हें दबा देगी, तब भी कृष्ण का अंगार चमकता हुआ रहेगा।
और भी निखरेगा क्योंकि पहली दफे मनुष्य इस योग्य होगा कि कृष्ण को समझ पाए।
कृष्ण को समझना बड़ा कठिन है।
आसान है यह बात समझना कि एक आदमी संसार को छोड़ कर चला जाए और शांत हो जाए।
कठिन है इस बात को समझना कि संसार के संघर्ष में, बीच में खड़ा होकर और शांत हो।
आसान है यह बात समझनी कि एक आदमी विरक्त हो जाए, आसक्ति के संबंध तोड़ कर भाग जाए और उसमें एक पवित्रता का जन्म हो।
कठिन है यह बात समझनी कि जीवन के सारे उपद्रव के बीच, जीवन के सारे उपद्रव में अडिग, जीवन के सारे धूल-धवांस, कोहरे और आंधियों में खड़ा हुआ दीया हिलता न हो, उसकी लौ कंपती न हो--
कठिन है यह समझना।
इसलिए कृष्ण को समझना बहुत कठिन था। निकटतम जो कृष्ण के थे वे भी नहीं समझ सकते थे।
लेकिन पहली दफा एक महान प्रयोग हुआ है। पहली दफा आदमी ने अपनी शक्ति का पूरा परीक्षण कृष्ण में किया है।
ऐसा परीक्षण कि संबंधों में रहते हुए असंग रहा जा सके,
और युद्ध के क्षण पर भी करुणा न मिटे।
और हिंसा की तलवार हाथ में हो, तो भी प्रेम का दीया मन से न बुझे।
इसलिए कृष्ण को जिन्होंने पूजा भी है, जिन्होंने कृष्ण की आराधना भी की है, उन्होंने भी कृष्ण के टुकड़े-टुकड़े करके किया है।
सूरदास के कृष्ण कभी बच्चे से बड़े नहीं हो पाते। बड़े कृष्ण के साथ खतरा है। सूरदास बरदाश्त न कर सकेंगे।
वह बालकृष्ण को ही...।
क्योंकि बालकृष्ण अगर गांव की स्त्रियों को छेड़ आता है तो हमें बहुत कठिनाई नहीं है।
लेकिन युवा कृष्ण जब गांव की स्त्रियों को छेड़ देगा तो फिर बहुत मुश्किल हो जाएगा।
फिर हमें समझना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
क्योंकि हम अपने ही तल पर तो समझ सकते हैं।
हमारे अपने तल के अतिरिक्त समझने का हमारे पास कोई उपाय भी नहीं है।
तो कोई है जो कृष्ण के एक रूप को चुन लेगा, कोई है जो दूसरे रूप को चुन लेगा।
गीता को प्रेम करने वाले भागवत की उपेक्षा कर जाएंगे, क्योंकि भागवत का कृष्ण और ही है।
भागवत को प्रेम करने वाले गीता की चर्चा में न पड़ेंगे,
क्योंकि कहां राग-रंग और कहां रास और कहां युद्ध का मैदान! उनके बीच कोई तालमेल नहीं है।
शायद कृष्ण से बड़े विरोधों को एक साथ पी लेने वाला कोई व्यक्तित्व ही नहीं है।
इसलिए कृष्ण की एक-एक शक्ल को लोगों ने पकड़ लिया है।
जो जिसे प्रीतिकर लगी है, उसने छांट लिया है, बाकी शक्ल को उसने इनकार कर दिया है।
ओशो
पुराने मनुष्य-जाति के इतिहास में कृष्ण अकेले हैं जो दमनवादी नहीं हैं।
वे जीवन के सब रंगों को स्वीकार कर लिए हैं। वे प्रेम से भागते नहीं।
वे पुरुष होकर स्त्री से पलायन नहीं करते। वे परमात्मा को अनुभव करते हुए युद्ध से विमुख नहीं होते।
वे करुणा और प्रेम से भरे होते हुए भी युद्ध में लड़ने की सामर्थ्य रखते हैं।
अहिंसक चित्त है उनका, फिर भी हिंसा के ठेठ दावानल में उतर जाते हैं।
अमृत की स्वीकृति है उन्हें, लेकिन जहर से कोई भय भी नहीं है।
और सच तो यह है, जिसे भी अमृत का पता चल गया है उसे जहर का भय मिट जाना चाहिए।
क्योंकि ऐसा अमृत ही क्या जो जहर से फिर डरता चला जाए!
और जिसे अहिंसा का सूत्र मिल गया उसे हिंसा का भय मिट जाना चाहिए। ऐसी अहिंसा ही क्या जो अभी हिंसा से भी भयभीत और घबड़ाई हुई हो!
और ऐसी आत्मा ही क्या जो शरीर से भी डरती हो और बचती हो!
और ऐसे परमात्मा का क्या अर्थ जो सारे संसार को अपने आलिंगन में न ले सकता हो।
तो कृष्ण द्वंद्व को एक साथ स्वीकार कर लेते हैं और इसलिए द्वंद्व के अतीत हो जाते हैं।
ट्रांसेंडेंस जो है, अतीत जो हो जाना है, वह द्वंद्व में पड़ कर कभी संभव नहीं है;
दोनों को एक साथ स्वीकार कर लेने से संभव है।
तो भविष्य के लिए कृष्ण की बड़ी सार्थकता है। और भविष्य में कृष्ण का मूल्य निरंतर बढ़ता ही जाने को है।
जब कि सबके मूल्य फीके पड़ जाएंगे और द्वंद्व भरे धर्म जब कि पीछे अंधेरे में डूब जाएंगे और इतिहास की राख उन्हें दबा देगी, तब भी कृष्ण का अंगार चमकता हुआ रहेगा।
और भी निखरेगा क्योंकि पहली दफे मनुष्य इस योग्य होगा कि कृष्ण को समझ पाए।
कृष्ण को समझना बड़ा कठिन है।
आसान है यह बात समझना कि एक आदमी संसार को छोड़ कर चला जाए और शांत हो जाए।
कठिन है इस बात को समझना कि संसार के संघर्ष में, बीच में खड़ा होकर और शांत हो।
आसान है यह बात समझनी कि एक आदमी विरक्त हो जाए, आसक्ति के संबंध तोड़ कर भाग जाए और उसमें एक पवित्रता का जन्म हो।
कठिन है यह बात समझनी कि जीवन के सारे उपद्रव के बीच, जीवन के सारे उपद्रव में अडिग, जीवन के सारे धूल-धवांस, कोहरे और आंधियों में खड़ा हुआ दीया हिलता न हो, उसकी लौ कंपती न हो--
कठिन है यह समझना।
इसलिए कृष्ण को समझना बहुत कठिन था। निकटतम जो कृष्ण के थे वे भी नहीं समझ सकते थे।
लेकिन पहली दफा एक महान प्रयोग हुआ है। पहली दफा आदमी ने अपनी शक्ति का पूरा परीक्षण कृष्ण में किया है।
ऐसा परीक्षण कि संबंधों में रहते हुए असंग रहा जा सके,
और युद्ध के क्षण पर भी करुणा न मिटे।
और हिंसा की तलवार हाथ में हो, तो भी प्रेम का दीया मन से न बुझे।
इसलिए कृष्ण को जिन्होंने पूजा भी है, जिन्होंने कृष्ण की आराधना भी की है, उन्होंने भी कृष्ण के टुकड़े-टुकड़े करके किया है।
सूरदास के कृष्ण कभी बच्चे से बड़े नहीं हो पाते। बड़े कृष्ण के साथ खतरा है। सूरदास बरदाश्त न कर सकेंगे।
वह बालकृष्ण को ही...।
क्योंकि बालकृष्ण अगर गांव की स्त्रियों को छेड़ आता है तो हमें बहुत कठिनाई नहीं है।
लेकिन युवा कृष्ण जब गांव की स्त्रियों को छेड़ देगा तो फिर बहुत मुश्किल हो जाएगा।
फिर हमें समझना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
क्योंकि हम अपने ही तल पर तो समझ सकते हैं।
हमारे अपने तल के अतिरिक्त समझने का हमारे पास कोई उपाय भी नहीं है।
तो कोई है जो कृष्ण के एक रूप को चुन लेगा, कोई है जो दूसरे रूप को चुन लेगा।
गीता को प्रेम करने वाले भागवत की उपेक्षा कर जाएंगे, क्योंकि भागवत का कृष्ण और ही है।
भागवत को प्रेम करने वाले गीता की चर्चा में न पड़ेंगे,
क्योंकि कहां राग-रंग और कहां रास और कहां युद्ध का मैदान! उनके बीच कोई तालमेल नहीं है।
शायद कृष्ण से बड़े विरोधों को एक साथ पी लेने वाला कोई व्यक्तित्व ही नहीं है।
इसलिए कृष्ण की एक-एक शक्ल को लोगों ने पकड़ लिया है।
जो जिसे प्रीतिकर लगी है, उसने छांट लिया है, बाकी शक्ल को उसने इनकार कर दिया है।
ओशो
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