जार्ज गुरुजिएफ पश्चिम का एक बहुत अदभुत सदगुरु
हुआ। वह अक्सर अपने शिष्यों को यह समझाने के लिए
कि आदमी के पास कितने चेहरे हैं,एक प्रयोग किया करता थ।दो शिष्य बैठे हों एक बाएं एक दाएं वह एक की तरफ इस तरह देखेगा जैसे मार ही डालेगा और दूसरे की तरफ ऐसे देखेगा जैसे अमृत की वर्षा कर रहा है । दोनों में बाद में कलह हो जाएगी । एक कहेगा कि बहुत दुष्ट आदमी है , इसके पास अब तो मैं जाने से भी डरूंगा ; दूसरा कहेगा कि तुम कह क्या रहे हो ! इससे ज्यादा प्यारा आदमी मैंने नहीं देखा । उसकी आंखें देखते थे , कैसी अमृत बरसा रही थीं ।
उसका विवाद हल न होता तो वे गुरुजिएफ के पास
आते । गुरुजिएफ कहते : तुम दोनों ठीक कह रहे हो ।
मैं अलग-अलग चेहरे दिखा रहा था । एक चेहरा इसको
दिखला रहा था , एक तुमको । मैं तुमसे यह कह रहा था
कि यही हालत तुम्हारी है , लेकिन तुम होशपूर्वक नहीं कर रहे हो , मैं होशपूर्वक कर रहा हूं ।
पत्नी के पास तुम्हारा एक चेहरा होता है , प्रेयसी के पास
तुम्हारा दूसरा चेहरा होता है । प्रेयसी के पास तुम कैसे गदगद दिखाई पड़ते हो ! पत्नी के पास तुम कैसे उजडे़-उजडे़ मालूम होते हो , उखडे़-उखडे़ , भागे-भागे !
दो आदमी बैठे देर तक शराबखाने में शराब पीते रहे ।
पहले ने दूसरे से पूछा कि भाईजान , आप इतनी देर-देर तक यहां क्यों बैठे रहते हैं ।
उसने कहा कि जाऊं तो कहां जाऊं ? घर में कोई है ही नहीं अविवाहित हूं । पहले को तो नशा चढ़ रहा था , एकदम उतर गया । उसने कहा : कहते क्या हो ! अविवाहित होकर और आधी-आधी रात तक यहां
बैठते हो !
अरे मैं तो यहां इसलिए बैठा हूं कि जाऊं तो कहां जाऊं , घर में पत्नी है । जब बिलकुल नशे से भर जाता हूं , जब ऐसी हालत आ जाती है कि अगर सिंहनी की मांद में भी मुझे जाना पडे़ तो भी जा सकता हूं , क्योंकि होश ही नहीं रहता तब घर जाता हूं ।
फिर मुझे पता नहीं क्या गुजरती है ।
पाखंड पैदा हुआ है तुम्हारे अनुशासन से ,
तुम्हारे धर्म से ।
इस पाखंड का मैं निश्चित विरोधी हूं ।
इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं चाहता हूं कि लोग अराजक
हो जाएं , स्वच्छंद हो जाएं । इसका सिर्फ इतना ही अर्थ है कि मैं चाहता हूं लोग स्वतंत्र हो जाएं ।
स्वच्छंद शब्द भी हमने खराब कर लिया है , नहीं तो बहुत
प्यारा है । उसका अर्थ उच्छृंखल कर लिया , करना नहीं
चाहिए । स्वच्छंद का अर्थ होता है : स्वयं के छंद में आबद्ध एक भीतरी संगीत में लयबद्ध ।
स्वच्छंद बडा़ प्यारा शब्द है ।
स्वतंत्र से भी प्यारा शब्द है । स्वतंत्र में भी थोडी़ सी तांत्रिकता रहती है , थोडी़ यांत्रिकता रहती है , थोडी़ औपचारिकता रहती है । स्वच्छंदता में तो सिर्फ एक गीतमयता है , एक लयबद्धता है स्वयं के छंद में जो आबद्ध है ।
बुद्ध स्वच्छंद है । और ऐसे ही व्यक्ति वस्तुत : अनुशासित भी ; लेकिन अनुशासन भीतर से आता है ।
यह ऊपर से थोपा गया आचरण नहीं है ।
मैं आचरण-विरोधी हूं , अंतस का पक्षपाती हूं ।
अंतस से आचरण आए तो शुभ । और जबरदस्ती तुम
ऊपर से थोप लो -- क्योंकि लोग कहते हैं , क्योंकि परिवार कहता है , क्योंकि परंपरा कहती है - तो तुम दो हिस्सों में बंट जाओगे भीतर तुम कुछ और , बाहर तुम कुछ और ।
तुम्हारी जिंदगी में तब दो दरवाजे हो जाएंगे ;
एक तो बैठकखाना , जहां तुम मिलते हो एक ढंग से ;
और एक भीतर का दरवाजा , पीछे का दरवाजा ,
जहां तुम्हारी असली शक्लें देखी जाती हैं ।
बाहर तो तुम मुस्कराते हुए मिलते हो ।
वह मुस्कराहट कूटनीतिक है , राजनैतिक है ।
राजनेता तो मुस्कुराते ही रहते हैं । कहीं कोई उनके हृदय
में मुस्कराहट नहीं होती । और जब चुनाव आता है , तब तो मुस्कराहट का एकदम मौसम आता है ! जो देखो वही मुस्कुरा रहा है ।
जैसे वसंत में फूल खिलते हैं न ,
ऐसे चुनाव में मुस्कुराहटें खिलती हैं ।
जिनकी शक्ल पर मुस्कराहट जैसी चीज बिलकुल ही
असंभव मालूम हो -- जैसे मोरारजी देसाई , जिनकी शक्ल और मुस्कराहट में कोई संबंध नहीं मालूम होता ;
वहां भी मुस्कराहट आ जाती है ! पद पर पहुंचते ही
मुस्कराहट खो जाती है । क्या जरूरत रही !
वह तो खुशामद थी लोगों की ।
तुम देखते हो , कार्टर जब चुनाव लडा़ , तब उसके बत्तीसों दांत गिन सकते थे । अब कितने गिन सकते हो ?
धीरे-धीरे कम होते गए दांत । अब तो दांत वगैरह दिखाई
नहीं पड़ते । अब तो कार्टर वेदांती हो गए हैं ।
अब गई वह बत्तीसा-मुस्कान । अब तो भूल-भाल गए ,
चौकडी़ भूल गई । मगर अभी चुनाव फिर आ रहा है ,
मुस्कराहट आ जाएगी । वसंत आ रहा है फिर ,
फिर मुस्कराहटें लगेंगी ।
लेकिन तुम भी छोटे-मोटे तल पर यही कर रहे हो ।
जब किसी से काम होता है तो तुम मुस्कराहट से मिलते हो ; और जब किसी से काम नहीं होता तो तुम यूं गुजर जाते हो जैसे पहचानते भी नहीं । अपने भी अजनबी हो जाते हैं जब काम नहीं । और जब काम होता है तब अजनबी भी अपने हो जाते हैं ।
इसको मैं आचरण नहीं कहता । इसको मैं कोई
व्यवस्था नहीं कहता । यह तो थोथा पाखंड है ।
इस पाखंड से मुक्त होना आवश्यक है ,
तभी कोई व्यक्ति जीवन में वस्तुतः धार्मिक हो पाता है ।
धार्मिक होना एक क्रांति है । और धार्मिक होने के लिए
निश्चित एक अराजकता से गुजरना पड़ता है ।
क्योंकि सब पुराना कूडा़-कर्कट निकाल कर बाहर करना
होता है । पुराने खंडहर गिराने पड़ते हैं , तभी नए भवन खडे़ हो सकते हैं ।
• ओशो
रहिमन धागा प्रेम का
प्रवचन ८ स्वानुभव ही मुक्ति का द्वार है
से संकलन ।
हुआ। वह अक्सर अपने शिष्यों को यह समझाने के लिए
कि आदमी के पास कितने चेहरे हैं,एक प्रयोग किया करता थ।दो शिष्य बैठे हों एक बाएं एक दाएं वह एक की तरफ इस तरह देखेगा जैसे मार ही डालेगा और दूसरे की तरफ ऐसे देखेगा जैसे अमृत की वर्षा कर रहा है । दोनों में बाद में कलह हो जाएगी । एक कहेगा कि बहुत दुष्ट आदमी है , इसके पास अब तो मैं जाने से भी डरूंगा ; दूसरा कहेगा कि तुम कह क्या रहे हो ! इससे ज्यादा प्यारा आदमी मैंने नहीं देखा । उसकी आंखें देखते थे , कैसी अमृत बरसा रही थीं ।
उसका विवाद हल न होता तो वे गुरुजिएफ के पास
आते । गुरुजिएफ कहते : तुम दोनों ठीक कह रहे हो ।
मैं अलग-अलग चेहरे दिखा रहा था । एक चेहरा इसको
दिखला रहा था , एक तुमको । मैं तुमसे यह कह रहा था
कि यही हालत तुम्हारी है , लेकिन तुम होशपूर्वक नहीं कर रहे हो , मैं होशपूर्वक कर रहा हूं ।
पत्नी के पास तुम्हारा एक चेहरा होता है , प्रेयसी के पास
तुम्हारा दूसरा चेहरा होता है । प्रेयसी के पास तुम कैसे गदगद दिखाई पड़ते हो ! पत्नी के पास तुम कैसे उजडे़-उजडे़ मालूम होते हो , उखडे़-उखडे़ , भागे-भागे !
दो आदमी बैठे देर तक शराबखाने में शराब पीते रहे ।
पहले ने दूसरे से पूछा कि भाईजान , आप इतनी देर-देर तक यहां क्यों बैठे रहते हैं ।
उसने कहा कि जाऊं तो कहां जाऊं ? घर में कोई है ही नहीं अविवाहित हूं । पहले को तो नशा चढ़ रहा था , एकदम उतर गया । उसने कहा : कहते क्या हो ! अविवाहित होकर और आधी-आधी रात तक यहां
बैठते हो !
अरे मैं तो यहां इसलिए बैठा हूं कि जाऊं तो कहां जाऊं , घर में पत्नी है । जब बिलकुल नशे से भर जाता हूं , जब ऐसी हालत आ जाती है कि अगर सिंहनी की मांद में भी मुझे जाना पडे़ तो भी जा सकता हूं , क्योंकि होश ही नहीं रहता तब घर जाता हूं ।
फिर मुझे पता नहीं क्या गुजरती है ।
पाखंड पैदा हुआ है तुम्हारे अनुशासन से ,
तुम्हारे धर्म से ।
इस पाखंड का मैं निश्चित विरोधी हूं ।
इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं चाहता हूं कि लोग अराजक
हो जाएं , स्वच्छंद हो जाएं । इसका सिर्फ इतना ही अर्थ है कि मैं चाहता हूं लोग स्वतंत्र हो जाएं ।
स्वच्छंद शब्द भी हमने खराब कर लिया है , नहीं तो बहुत
प्यारा है । उसका अर्थ उच्छृंखल कर लिया , करना नहीं
चाहिए । स्वच्छंद का अर्थ होता है : स्वयं के छंद में आबद्ध एक भीतरी संगीत में लयबद्ध ।
स्वच्छंद बडा़ प्यारा शब्द है ।
स्वतंत्र से भी प्यारा शब्द है । स्वतंत्र में भी थोडी़ सी तांत्रिकता रहती है , थोडी़ यांत्रिकता रहती है , थोडी़ औपचारिकता रहती है । स्वच्छंदता में तो सिर्फ एक गीतमयता है , एक लयबद्धता है स्वयं के छंद में जो आबद्ध है ।
बुद्ध स्वच्छंद है । और ऐसे ही व्यक्ति वस्तुत : अनुशासित भी ; लेकिन अनुशासन भीतर से आता है ।
यह ऊपर से थोपा गया आचरण नहीं है ।
मैं आचरण-विरोधी हूं , अंतस का पक्षपाती हूं ।
अंतस से आचरण आए तो शुभ । और जबरदस्ती तुम
ऊपर से थोप लो -- क्योंकि लोग कहते हैं , क्योंकि परिवार कहता है , क्योंकि परंपरा कहती है - तो तुम दो हिस्सों में बंट जाओगे भीतर तुम कुछ और , बाहर तुम कुछ और ।
तुम्हारी जिंदगी में तब दो दरवाजे हो जाएंगे ;
एक तो बैठकखाना , जहां तुम मिलते हो एक ढंग से ;
और एक भीतर का दरवाजा , पीछे का दरवाजा ,
जहां तुम्हारी असली शक्लें देखी जाती हैं ।
बाहर तो तुम मुस्कराते हुए मिलते हो ।
वह मुस्कराहट कूटनीतिक है , राजनैतिक है ।
राजनेता तो मुस्कुराते ही रहते हैं । कहीं कोई उनके हृदय
में मुस्कराहट नहीं होती । और जब चुनाव आता है , तब तो मुस्कराहट का एकदम मौसम आता है ! जो देखो वही मुस्कुरा रहा है ।
जैसे वसंत में फूल खिलते हैं न ,
ऐसे चुनाव में मुस्कुराहटें खिलती हैं ।
जिनकी शक्ल पर मुस्कराहट जैसी चीज बिलकुल ही
असंभव मालूम हो -- जैसे मोरारजी देसाई , जिनकी शक्ल और मुस्कराहट में कोई संबंध नहीं मालूम होता ;
वहां भी मुस्कराहट आ जाती है ! पद पर पहुंचते ही
मुस्कराहट खो जाती है । क्या जरूरत रही !
वह तो खुशामद थी लोगों की ।
तुम देखते हो , कार्टर जब चुनाव लडा़ , तब उसके बत्तीसों दांत गिन सकते थे । अब कितने गिन सकते हो ?
धीरे-धीरे कम होते गए दांत । अब तो दांत वगैरह दिखाई
नहीं पड़ते । अब तो कार्टर वेदांती हो गए हैं ।
अब गई वह बत्तीसा-मुस्कान । अब तो भूल-भाल गए ,
चौकडी़ भूल गई । मगर अभी चुनाव फिर आ रहा है ,
मुस्कराहट आ जाएगी । वसंत आ रहा है फिर ,
फिर मुस्कराहटें लगेंगी ।
लेकिन तुम भी छोटे-मोटे तल पर यही कर रहे हो ।
जब किसी से काम होता है तो तुम मुस्कराहट से मिलते हो ; और जब किसी से काम नहीं होता तो तुम यूं गुजर जाते हो जैसे पहचानते भी नहीं । अपने भी अजनबी हो जाते हैं जब काम नहीं । और जब काम होता है तब अजनबी भी अपने हो जाते हैं ।
इसको मैं आचरण नहीं कहता । इसको मैं कोई
व्यवस्था नहीं कहता । यह तो थोथा पाखंड है ।
इस पाखंड से मुक्त होना आवश्यक है ,
तभी कोई व्यक्ति जीवन में वस्तुतः धार्मिक हो पाता है ।
धार्मिक होना एक क्रांति है । और धार्मिक होने के लिए
निश्चित एक अराजकता से गुजरना पड़ता है ।
क्योंकि सब पुराना कूडा़-कर्कट निकाल कर बाहर करना
होता है । पुराने खंडहर गिराने पड़ते हैं , तभी नए भवन खडे़ हो सकते हैं ।
• ओशो
रहिमन धागा प्रेम का
प्रवचन ८ स्वानुभव ही मुक्ति का द्वार है
से संकलन ।
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