डर’ से ज्यादा खतरनाक इस दुनिया में कोई भी वायरस नहीं है !! सामूहिक पागलपन है जो अखबारों और TV के माध्यम से भीड़ को बेचा जा रहा है !! ओशो !!
पूर्व में हैजा भी महामारी के रूप में पूरे विश्व में फैला था,तब अमेरिका में किसी ने ओशो रजनीश जी से प्रश्न किया
"इस महामारी से कैसे बचे ?"
ओशो ने विस्तार से जो समझाया वो आज कोरोना के सम्बंध में भी बिल्कुल प्रासंगिक है।
ओशो* "यह *प्रश्न* ही आप *गलत* पूछ रहे हैं,
*प्रश्न* ऐसा होना चाहिए था कि *महामारी* के कारण मेरे मन में *मरने का जो डर बैठ गया है* उसके सम्बन्ध में कुछ कहिए!
इस *डर* से कैसे बचा जाए...?
क्योंकि *वायरस* से *बचना* तो बहुत ही *आसान* है,
लेकिन जो *डर* आपके और *दुनिया* के *अधिकतर लोगों* के *भीतर* बैठ गया है, उससे *बचना* बहुत ही *मुश्किल* है।
अब इस महामार से कम लोग, इसके *डर* के कारण लोग ज्यादा मरेंगे।
’डर’ से ज्यादा खतरनाक इस दुनिया में कोई भी वायरस नहीं है।
इस *डर* को समझिये, अन्यथा *मौत* से पहले ही आप एक *जिंदा* लाश बन जाएँगे।
यह जो *भयावह माहौल* आप अभी देख रहे हैं, इसका *वायरस* आदि से कोई *लेना* *देना* नहीं है। यह एक *सामूहिक पागलपन* है, जो एक *अन्तराल* के बाद हमेशा घटता रहता है, कारण *बदलते* रहते हैं, कभी *सरकारों की प्रतिस्पर्धा*, कभी *कच्चे तेल की कीमतें*, कभी *दो देशों की लड़ाई*, तो कभी *जैविक हथियारों की टेस्टिंग*!!
इस तरह का *सामूहिक* *पागलपन* समय-समय पर *प्रगट* होता रहता है। *व्यक्तिगत पागलपन* की तरह *कौमगत*, *राज्यगत*, *देशगत* और *वैश्विक* *पागलपन* भी होता है।
इस में *बहुत* से लोग या तो हमेशा के लिए *विक्षिप्त* हो जाते हैं या फिर *मर* जाते हैं ।
ऐसा पहले भी *हजारों* बार हुआ है, और आगे भी होता रहेगा और आप देखेंगे कि आने वाले बरसों में युद्ध *तोपों* से नहीं बल्कि *जैविक हथियारों* से लड़ें जाएंगे।
मैं फिर कहता हूं हर समस्या *मूर्ख* के लिए *डर* होती है, जबकि *ज्ञानी* के लिए *अवसर*!!
इस *महामारी* में आप *घर* बैठिए, *पुस्तकें पढ़िए*, शरीर को कष्ट दीजिए और *व्यायाम* कीजिये, *फिल्में* देखिये, *योग* कीजिये और एक माह में *5* किलो वजन घटाइए, चेहरे पर बच्चों जैसी ताजगी लाइये
अपने *शौक़* पूरे कीजिए।
मुझे अगर *15* दिन घर बैठने को कहा जाए तो में इन *15* दिनों में *30* पुस्तकें पढूंगा और नहीं तो एक *बुक* लिख डालिये, इस *महामन्दी* में पैसा *इन्वेस्ट* कीजिये, ये अवसर है जो *बीस तीस* साल में एक बार आता है *पैसा* बनाने की सोचिए....क्युं बीमारी की बात करके वक्त बर्बाद करते हैं...
ये *’भय और भीड़’* का मनोविज्ञान सब के समझ नहीं आता है।
*’डर’* में रस लेना बंद कीजिए...
आमतौर पर हर आदमी *डर* में थोड़ा बहुत रस लेता है, अगर *डरने* में मजा नहीं आता तो लोग *भूतहा* फिल्म देखने क्यों जाते?
यह सिर्फ़ एक *सामूहिक पागलपन* है जो *अखबारों* और *TV* के माध्यम से *भीड़* को बेचा जा रहा है...
लेकिन *सामूहिक पागलपन* के *क्षण* में आपकी *मालकियत छिन* सकती है...आप *महामारी* से *डरते* हैं तो आप भी *भीड़* का ही हिस्सा है
*ओशो* कहते है...TV पर खबरे सुनना या *अखबार* पढ़ना बंद करें
ऐसा कोई भी *विडियो* या *न्यूज़* मत देखिये जिससे आपके भीतर *डर* पैदा हो...
*महामारी* के बारे में बात करना *बंद* कर दीजिए,
*डर* भी एक तरह का *आत्म-सम्मोहन* ही है।
एक ही तरह के *विचार* को बार-बार *घोकने* से *शरीर* के भीतर *रासायनिक* बदलाव होने लगता है और यह *रासायनिक* बदलाव कभी कभी इतना *जहरीला* हो सकता है कि आपकी *जान* भी ले ले;
*महामारी* के अलावा भी बहुत कुछ *दुनिया* में हो रहा है, उन पर *ध्यान* दीजिए;
*ध्यान-साधना* से *साधक* के चारों तरफ एक *प्रोटेक्टिव Aura* बन जाता है, जो *बाहर* की *नकारात्मक उर्जा* को उसके भीतर *प्रवेश* नहीं करने देता है,
अभी पूरी *दुनिया की उर्जा* *नाकारात्मक* हो चुकी है.......
ऐसे में आप कभी भी इस *ब्लैक-होल* में गिर सकते हैं....ध्यान की *नाव* में बैठ कर हीं आप इस *झंझावात* से बच सकते हैं।
शास्त्रों* का *अध्ययन* कीजिए,
*साधू-संगत* कीजिए, और *साधना* कीजिए, *विद्वानों* से सीखें
आहार* का भी *विशेष* ध्यान रखिए, *स्वच्छ* *जल* पीए,
अंतिम बात:*
*धीरज* रखिए... *जल्द* ही सब कुछ *बदल* जाएगा.......
जब तक *मौत* आ ही न जाए, तब तक उससे *डरने* की कोई ज़रूरत नहीं है और जो *अपरिहार्य* है उससे *डरने* का कोई *अर्थ* भी नहीं है,
*डर* एक प्रकार की *मूढ़ता* है, अगर किसी *महामारी* से अभी नहीं भी मरे तो भी एक न एक दिन मरना ही होगा, और वो एक दिन कोई भी दिन हो सकता है, इसलिए
*विद्वानों* की तरह *जीयें*,
*भीड़* की तरह नहीं!!"
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