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मृत्यु का भय !! क्योंकि अब जिंदगी मौत की तरफ चलनी शुरू हो गयी !! Osho !!


मृत्यु का भय !! क्योंकि अब जिंदगी मौत की तरफ चलनी शुरू हो गयी !!

जैसे ही व्यक्ति की जिंदगी ढलनी शुरू होती है,पैंतीस साल तक उम्र चढ़ती है , उसके बाद उम्र ढलनी शुरू हो जाती है । 

तो हो सकता है पैंतीस साल तक ध्यान की कोई जरूरत मालूम न पडे़ , क्योंकि आदमी बाडी-ओरिएन्टेड है, अभी चढ़ रहा है शरीर । अभी हो सकता है सब बीमारियां शरीर की हों । लेकिन पैंतीस साल के बाद बीमारियां नया रुख लेंगी

क्योंकि अब जिंदगी मौत की तरफ चलनी शुरू हो गयी ।

और जब जिंदगी बढ़ती है तो बाहर की तरफ फैलती है और जब आदमी मरता है तो भीतर की तरफ सिकुड़ता है । बुढा़पा भीतर की तरफ सिकुड़ जाता है ।

सच तो यह है कि बूढ़े आदमियों की सारी बीमारियों में बहुत गहरे में मृत्यु होती है । आमतौर पर लोग कहते हैं कि फलां आदमी बीमारी के कारण मर गया।

मैं मानता हूं, इस से ज्यादा उचित होगा कि फलां आदमी मरने के कारण बीमार हो गया । असल में मरने की संभावना हजार तरह की बीमारियों के लिए वल्नरेबिलिटी, पैदा कर देती है ।

जैसा मुझे लगता है कि मैं मर जाऊंगा,मेरे सब द्वार खुल जाते हैं बीमारियों के लिए , मैं उनको पकड़ लेता हूं ।

अगर एक आदमी को पक्का हो जाये कि वह कल मर जायेगा तो बिलकुल स्वस्थ आदमी बीमार पड़ जायेगा ।

सब तरह से ठीक था , सब तरह की रिपोर्ट ठीक थी । एक्स-रे ठीक था , उसका ब्लड-प्रेशर ठीक था , उसकी

हृदय-गति ठीक थी । स्टेथस्कोप सब ठीक कहता था ।

लेकिन इसे पक्का बता दिया जाये कि वह चौबीस घंटे बाद मर जायेगा । आप अचानक पायेंगे कि उसने हजारों बीमारियां पकड़नी शुरू कर दीं । चौबीस घंटे में इतनी बीमारियां पकड़नी शुरू कर दीं । चौबीस घंटे में इतनी बीमारियां पकड़ लेगा, जितनी कि चौबीस जिंदगी में पकड़ना मुश्किल था ।


क्या हो गया इस आदमी को ?

वह ओपन हो गया बीमारी के लिए , अब उसने रेजिस्टेंस छोड़ दिया। जब मरना ही है तो उसके भीतर जो चेतना की दीवार , वह जो चेतना की परिधि थी बीमारी के प्रति, उससे लौट गये, अब वह मरने के लिए राजी हो गया, तो बीमारी आनी शुरू हो गयी । इसलिए रिटायर्ड आदमी जल्दी मर जाता है और रिटायर्ड आदमी को रिटायर्ड होने के पहले ठीक से समझ लेना चाहिए । पांच - छः साल उम्र का फर्क पड़ता है । जो आदमी सत्तर साल में मरता है , वह पैंसठ में मरेगा । जो अस्सी में मरता हो , वह पचहत्तर में मर जायेगा। और बाकी वक्त रिटायरमेंट के जो दस-पंद्रह वर्ष गुजारेगा , वह मरने की

तैयारी है । वह और कोई काम नहीं करेगा ; क्योंकि जैसे ही एक दफा उसे पता चलेगा कि वह जिंदगी के लिए बेकार हो गया है ---- अब उसका कोई काम न रहा । सड़क पर कोई नमस्कार नहीं करता, क्योंकि जब तक वह सेक्रेटरियट में था,बात और थी । अब कोई नमस्कार नहीं करता , कोई देखता

नहीं, क्योंकि अब नमस्कार भी लोग दूसरों को करेंगे । सब चीज की इकानामी है । सेक्रेटरियट में दूसरे लोग पहुंच

गये हैं , इनको नमस्कार करें , कि अब अगर आपको भी नमस्कार बजाते रहें तो मुश्किल हो जायेगी । लोग आपको भूल जायेंगे । अब उस आदमी को अचानक लगता है कि वह बेकार हो गया , यूजलेस हो गया किसी को उसकी कोई जरूरत नहीं ।

घर में बच्चे अपनी पत्नियों के साथ चित्र देखने जाने लगेंगे ।

पहले जिनके लिए वह काम का था , अब उनके लिए वह बेकाम हो गया । अचानक वल्नरेबिलिटी पैदा हो गयी ,

अब मौत के लिए चारों तरफ से खुल गया ।

मनुष्य की चेतना भीतर से कब स्वस्थ होती है ? एक , उसे भीतर की चेतना का अहसास शुरू हो जाये , भीतर की चेतना की फीलिंग्स शुरू हो जायें । हमे आमतौर से भीतर की कोई फीलिंग्स नहीं होती , हमारी सब फीलिंग्स शरीर की होती हैं ---- हाथ की होती है , पैर की होती है , सिर की होती है , हृदय की होती है । उसके लिए होती हैं , जो नहीं हैं ।

हमारा सारा बोध , हमारी सारी अवेयरनेस घर की होती है ; घर में रहने वाले मालिक की नहीं होती । यह बडी़ खतरनाक स्थिति है , क्योंकि कल अगर मकान गिरने लगेगा , तो मैं समझूंगा कि मैं गिर रहा हूं , यही मेरी बीमारी बनेगी ।

नहीं , अगर मैं यह भी मान लूं कि मैं मकान से अलग हूं ।

मकान के भीतर हूं , मकान गिर जायेगा , फिर भी मैं हो सकता हूं तो बहुत फर्क पडे़गा ----- बहुत बुनियादी फर्क पड़ जायेगा ।

तब मृत्यु का भय क्षीण हो जायेगा ।


क्यों अब तक हम मानसिक बीमारी के संबंध में सदभाव पैदा नहीं कर पाये , अगर मेरे पैर में चोट है तो सब सहानुभूति

दिखायेंगे । लेकिन अगर मेरे मन में चोट है तो लोग कहते हैं कि यह तो मानसिक बीमारी है , जैसे कि मैंने कोई गलती की है । पैर में चोट होती , सहानुभूति भी मिलती , लेकिन मानसिक बीमारी जैसे मेरी कोई भूल है । नहीं भूल नहीं है ।


 मानसिक बीमारी का अपना तल है ।

लेकिन चिकित्सक उसको स्वीकार नहीं करता है । नहीं करता है इसलिए कि उसके पास सिर्फ शारीरिक चिकित्सा

का उपाय है और कोई कारण नहीं है । वह कहता है , यह बीमारी नहीं । असल में उसे कहना चाहिए कि मेरे हाथ के भीतर नहीं है ।

तुम और तरह का चिकित्सक खोजो या मुझे और तरह का चिकित्सक बनना पडे़गा ।

ध्यान के अतिरिक्त मृत्यु का भय कभी भी नहीं घटता ।

तो ध्यान का पहला अर्थ है -- अवेयरनेस आफ वन सेल्फ ।

हम जब भी होश में होते हैं , तो हमारा होश जो है वह अवेयरनेस अबाउट है , किसी चीज के बाबत है सदा ।

वह अभी अपने बाबत नहीं है । इसलिए तो हम अकेले बैठें तो हमें नींद आनी शुरू हो जाती है , क्योंकि वहां क्या करें ?

अखबार पढे़ं , रेडियो खोलें , तो जरा जागने सा मालूम पड़ता है । अगर एक आदमी को हम बिलकुल अकेले में छोड़ दें । अंधेरा कर दें कमरे में । अंधेरे में इसलिए नींद आ जाती है , क्योंकि आपको चीजें कोई दिखायी नहीं पड़ती तो कांशसनेस की कोई जरूरत नहीं रह जाती । कुछ चीजें दिखायी नहीं पड़ती ,

तब क्या करें सिवाय सोने के ? कोई उपाय नहीं मालूम पड़ता । अकेले पड़ जायें , अंधेरा हो , कोई बात करने को न हो , कुछ सोचने को न हो , तो बस आप आ गये नींद में । और कोई उपाय नहीं है।

❣️❣️ओशो📍❤️

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