ओशो इसे कहते है,उसे श्रवण की कला !!
उसमे कला की क्या बात है ? सुनते तो हम सब है,लेकिन सच में हम नहीं सुन रहे है ?
अगर हम सुनते समय विचार कर रहे है, उसका विश्लेषण कर रहे हैं, उनका बोलना ठीक है की नही वह भी सोच रहे है, फिर हम उसका बोलना हमारे विचार के साथ तुलना भी कर रहे हैं!
अगर प्रतिकूल है, तो मन में विरोध भी कर रहे है, अगर अनुकूल है तो खुश भी हो रहे है । अगर इतनी चीज एक साथ चल रही है, तो फिर सुनना कहां हुआ ?
ऐसा व्यक्ति धीरे धीरे बहेरा हो जाता है। वह अपने ही विचार को सुन रहा है। लोग पहले "बोलने की कला" सीखते हैं। इसकी क्लासेज भी चलायी जाती हैं।
हाउ टु स्पीक ?
अच्छा हो अगर 'कैसे सुना जाय' इसकी कक्षाएं चलायी जायें।पहले कैसे सुनें,बाद में कैसे बोलें ?
सच बात तो यह है कि जो सुनने की कला सीख जाता है,उसे बोलना भी आ ही जाता है,स्वत:आता है। कोशिश नहीं करनी पड़ती।
मैं केवल सुनूंगा,बोलूंगा नहीं" ऐसा निश्चय करते ही ठहराव आने लगता है। चित्त ठहरने लगता है।
बोलते समय कर्ताभाव की मूर्छित व्यग्रता, उग्रता रहती ही है। हमे पता ही नहीं चलता कि हम क्या बकवास किए जा रहे हैं!
जिस को भी श्रवण की कला आ गई, वह कुछ बोल ने पहले अपने आप "अवेर, जागृत" हो जाता है,और जागृत व्यक्ति में एक समझ आ जाती है की क्या और कैसे बोलना और ऐसा व्यक्ति के जीवन में झगड़ा झंझट समाप्त हो जाता है ।
और जैसे ही झगड़ा झंझट समाप्त हुआ की , हमारा एनर्जी (ऊर्जा) लेवल एकदम बढ़ जाता है,और यही ऊर्जा को हम ध्यान में परिवर्तित कर सकते है।
(My Life with Osho Gurdjieff and Krishnamurthy)
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