Skip to main content

Posts

Showing posts with the label Court case

कोई कर्मचारी रिटायर हो जाता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि नौकरी में रहते हुए उसने अगर कोई ग़लती की है तो अथॉरिटी उसके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं कर सकते हैं। बॉम्बे हाईकोर्ट

बॉम्बे हाईकोर्ट ने को कहा कि अगर कोई कर्मचारी रिटायर हो जाता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि नौकरी में रहते हुए उसने अगर कोई ग़लती की है तो अथॉरिटी उसके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं कर सकते हैं।  न्यायमूर्ति आरएम बोर्डे और न्यायमूर्तिएनजे जमदार ने रिटायर हुए एक पूर्व न्यायिक अधिकारी को कोई भी राहत देने से मना कर दिया। जज का दर्जा ज़िला जज का था और उन्होंने अपने ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई को जारी रखने को चुनौती दी है।  पृष्ठभूमि याचिकाकर्ता जूनियर डिविज़न में दीवानी जज के कैडर में 7 सितम्बर 1992 में प्रवेश लिया।  अक्टूबर 2011 में उनको ज़िला जज के रूप में प्रोन्नति दी गई। अक्टूबर 2016 में याचिकाकर्ता को राष्ट्रीय राजमार्ग अधिकरण का पीठासीन अधिकारी बनाया गया।  उन्होंने 25 अक्टूबर 2016 को बॉम्बे हाईकोर्ट से इस पद पर ज्वाइन करने के लिए अनुमति माँगी। याचिकाकर्ता के अनुसार, रजिस्ट्रार जनरल से उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला और 3 दिसम्बर 2016 को उन्होंने स्वैच्छिक अवकाश के लिए आवेदन दिया। इस बीच 7 दिसम्बर 2016 को हाईकोर्ट के प्रशासनिक प्रभाग ने उनके ख़िलाफ़ महाराष्ट्र सिविल सर्व...

SC / ST अत्याचार निरोधक कानून में धारा 18 ए के तहत प्रारंभिक जांच की जरूरत नहीं है,और न ही जांच अधिकारी को गिरफ्तारी करने से पहले किसी से इजाजत लेने की जरूरत है !! SC !!

SC / ST अत्याचार निरोधक कानून में धारा 18 ए  के तहत प्रारंभिक जांच की जरूरत नहीं है,और न ही जांच अधिकारी को गिरफ्तारी करने से पहले किसी से इजाजत लेने की जरूरत है !! !! SC !! संशोधित कानून के जरिए एससी-एसटी अत्याचार निरोधक कानून में धारा 18 ए जोड़ी गई। इस धारा के मुताबिक, इस कानून का उल्लंघन करने वाले के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच की जरूरत नहीं है और न ही जांच अधिकारी को गिरफ्तारी करने से पहले किसी से इजाजत लेने की जरूरत है।   मार्च 2018 में कोर्ट ने तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगाने वाला फैसला दिया था। कोर्ट ने कहा था कि कानून के दुरुपयोग के बढ़ते मामलों के मद्देनजर शिकायतों की शुरुआती जांच के बाद ही पुलिस को कोई कदम उठाना चाहिए। इस फैसले के व्यापक विरोध के चलते सरकार को कानून में बदलाव कर तुरंत गिरफ्तारी का प्रावधान दोबारा जोड़ना पड़ा था।

IPC (आईपीसी) की धारा 353 क्या है !!

  IPC (आईपीसी) की धारा 353 क्या है। IPC की इस  धारा 353 के अंतर्गत क्या अपराध आता है साथ ही इस धारा 353 में  सजा का क्या प्रावधान  बताया गया है । इस धारा में जब किसी व्यक्ति द्वारा  एक लोक सेवक / सरकारी कर्मचारी को अपने कर्तव्य के निर्वहन से रोकने के  लिए हमला या आपराधिक बल का प्रयोग किया जाता है तो यह एक अपराध होगा । जो कोई भी सरकारी कर्मचारियों को अपनी ड्यूटी करने से रोकता है तो ऐसे व्यक्ति को न्यायालय 2 वर्ष की कारावास या जुर्माना लगा कर या फिर दोनों से दंडित किया जाता है।

धारा 304 बी आईपीसी के तहत दोषी ठहराए जाने और आजीवन कारावास की सजा को रद्द कर दिया !! SC !!

सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड हाईकोर्ट द्वारा तीन व्यक्तियों मृतक पत्नी के पति,ससुर और सास को धारा 304 बी आईपीसी के तहत दोषी ठहराए जाने और आजीवन कारावास की सजा को रद्द कर दिया। ट्रायल कोर्ट ने उन्हें यह कहते हुए बरी कर दिया था कि दहेज हत्या का अपराध साबित नहीं हुआ था। हालांकि, उच्च न्यायालय ने मृतक महिला के पिता द्वारा दायर अपील पर फैसला पलट दिया था। अदालत ने यह भी कहा कि यह भी दिखाया जाना चाहिए कि मृतक पत्नी को मृत्यु से पहले दहेज की मांग के संबंध में क्रूरता या उत्पीड़न का शिकार होना पड़ रहा था। यह मानते हुए कि इन कारकों को स्थापित नहीं किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 304 बी के तहत दहेज हत्या का अपराध नहीं बनाया जा सकता है, यदि यह स्‍थापित नहीं हो पाता है कि मृत्यु का कारण अप्राकृतिक था।   सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस आरएफ नरीमन, केएम जोसेफ और अनिरुद्ध बोस की खंडपीठ ने हाईकोर्ट के फैसले को रद्द किया और ट्रायल कोर्ट द्वारा दिए गए बरी के फैसले को बहाल कर दिया।  धारा 304 बी आईपीसी के तहत अपराध की सामग्री जस्टिस केएम जोसेफ द्वारा लिखे गए फैसले के...

अदालत को बदनाम करने के लिए क्यों न उनके खिलाफ कार्रवाई की जाए और उन्हें सजा सुनाई जाए !! SC !!

एनजीओ सुराज इंडिया ट्रस्ट के चेयरपर्सन राजीव दहिया के खिलाफ आज से एक साल पहले जमानती वारंट जारी किया था।  उनके खिलाफ बिना किसी वर्षों तक 64 जनहित याचिकाएं दायर करने और शीर्ष न्यायालय के न्यायाधिकार का 'लगातार दुरुपयोग' करने के लिए लगाए गए 25 लाख रुपये के जुर्माने की रकम जमा नहीं कराने पर वारंट जारी किया गया था।  किसी भी जनहित याचिका में कोई फैसला नहीं आया। सुप्रीम कोर्ट ने एक गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) के प्रमुख को अवमानना का नोटिस जारी कर पूछा है कि अदालत को बदनाम करने के लिए क्यों न उनके खिलाफ कार्रवाई की जाए और उन्हें सजा सुनाई जाए।

6 माह से 5 वर्ष की सजा के साथ-साथ दस लाख रुपये जुर्माना !! वकीलों से पंगा, पड़ेगा महंगा !!

एडवोकेट प्रोटेक्शन बिल की रूपरेखा व ड्रॉफ्ट बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) की सात सदस्यीय कमेटी ने तैयार की है। इसमें 16 धाराएं रखी गई हैं।  प्रस्तावित बिल में वकील तथा उनके परिवार के सदस्यों को किसी प्रकार की क्षति व चोट पहुंचाने की धमकी देना, किसी भी सूचना को जबरन उजागर करने का दबाव देना, पुलिस अथवा किसी अन्य पदाधिकारी से दबाव दिलवाना, वकीलों को किसी केस में पैरवी करने से रोकना, वकील की संपत्ति को नुकसान पहुंचाना, किसी वकील के खिलाफ अपमानजनक शब्द का इस्तेमाल करना जैसे कार्यों को अपराध की श्रेणी में रखा गया है। ये सभी अपराध गैर जमानती अपराध होंगे। ऐसे अपराध के लिए 6 माह से 5 वर्ष की सजा के साथ-साथ दस लाख रुपये जुर्माना लगाने का भी प्रावधान है। इन अपराधों के लिए पुलिस को 30 दिनों के भीतर अनुसंधान पूरा करना होगा, जिसकी सुनवाई जिला व सत्र न्यायाधीश/अतिरिक्त जिला व सत्र न्यायधीश करेंगे लेकिन अगर कोई वकील अभियुक्त हो तो यह कानून उसपर लागू नहीं होगा । वकील को सुरक्षा के लिए हाईकोर्ट में आवेदन देना होगा। हाईकोर्ट वकील के आचरण सहित अन्य तथ्यों की जांच कर, जरूरत पड़ने पर स्टेट बार काउंसिल ...

आपराधिक मामलों में आरोपियों के बरी होने पर पुलिस अधिकारियों को सजा मिले: SC

आपराधिक मामलों में आरोपियों के बरी होने पर पुलिस अधिकारियों को सजा मिले: SC न्यायमूर्ति सी के प्रसाद और न्यायमूर्ति जे एस खेहर की पीठ ने खराब जांच के कारण बरी होने वालों की बढ़ती संख्या पर चिंता व्यक्त की। नई दिल्ली: एक आपराधिक मामले में बरी होने को न्याय वितरण प्रणाली की विफलता के रूप में समझा जाना चाहिए और न्याय के कारण की सेवा में, सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को सरकारों को ऐसे मामलों में जांच अधिकारियों को दंडित करने का निर्देश दिया। न्यायमूर्ति सीके प्रसाद और न्यायमूर्ति जेएस खेहर की पीठ ने खराब जांच के कारण बरी होने वालों की बढ़ती संख्या पर चिंता व्यक्त की और सभी राज्य सरकारों को छह महीने के भीतर अपने अधिकारियों के उचित प्रशिक्षण के लिए एक तंत्र स्थापित करने का निर्देश दिया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि आरोपी को दंडित किया जा सके। उसी समय निर्दोष व्यक्तियों को आपराधिक मामलों में फंसाया नहीं जाता है । प्रत्येक दोषमुक्ति को न्याय प्रदान करने वाली प्रणाली की विफलता के रूप में समझा जाना चाहिए, न्याय के कारण की सेवा में। इसी तरह, प्रत्येक बरी होने से आमतौर पर यह निष्कर्ष निकलता है कि ए...

सीआरपीसी 167 के तहत रिमांड शक्ति का इस्तेमाल मजिस्ट्रेट से वरिष्ठ अदालतें भी कर सकती हैं : सुप्रीम कोर्ट" !!

Crpc Act 167 के तहत रिमांड शक्ति का इस्तेमाल मजिस्ट्रेट से वरिष्ठ अदालतें भी कर सकती हैं : सुप्रीम कोर्ट" !! दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 के तहत शक्ति का प्रयोग उन न्यायालयों द्वारा भी किया जा सकता है जो मजिस्ट्रेट से वरिष्ठ हैं, सुप्रीम कोर्ट ने भीमा कोरेगांव मामले में जेल में बंद एक्टिविस्ट गौतम नवलखा द्वारा दायर अपील को खारिज करने के फैसले में ये कहा।  न्यायमूर्ति यूयू ललित और न्यायमूर्ति केएम जोसेफ की पीठ ने फैसले में इस प्रकार कहा : हालांकि मजिस्ट्रेट के पास उच्च न्यायालयों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले उचित क्षेत्राधिकार के माध्यम से रिमांड का आदेश देने की शक्ति निहित है, (इसमें वास्तव में सत्र न्यायालय शामिल होगा) धारा 439 के तहत कार्य करते हुए धारा 167 के तहत शक्ति का प्रयोग उन न्यायालयों द्वारा भी किया जा सकता है जो मजिस्ट्रेट से वरिष्ठ हैं। अदालत ने कहा कि उच्च न्यायालयों द्वारा आदेशित ऐसी हिरासत उस अवधि की गणना के उद्देश्य से हिरासत होगी जिसके भीतर आरोप पत्र दायर किया जाना चाहिए, असफल होने पर आरोपी को डिफ़ॉल्ट जमानत का वैधानिक अधिकार प्राप्त हो जाता है।  इस मामले...

अदालतों को सावधान रहना चाहिए कि शादी की आड़ में आरोपी द्वारा अपराधों से बचने के लिए पीड़िता का इस्तेमाल ढाल के रूप में न किया जाएः इलाहाबाद हाईकोर्ट !!

अदालतों को सावधान रहना चाहिए कि शादी की आड़ में आरोपी द्वारा अपराधों से बचने के लिए पीड़िता का इस्तेमाल ढाल के रूप में न किया जाएः इलाहाबाद हाईकोर्ट !! न्यायमूर्ति सूर्य प्रकाश केसरवानी और न्यायमूर्ति पीयूष अग्रवाल की खंडपीठ ने यह टिप्पणी उस मामले की सुनवाई के दौरान की,जिसमें याचिकाकर्ताओं ने पहले एक लड़की/ पीड़ित का अपहरण किया और उसके बाद जबरदस्ती और धमकी के तहत, उसके साथ विवाह किया और उसके बाद हाईकोर्ट से संरक्षण भी प्राप्त किया।  इस तरह कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग किया गया। संक्षेप में मामला याचिकाकर्ताओं ने सीआरपीसी की धारा 482 के तहत आवेदन दायर कर उनके खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 366, 376-डी, 323, 342 और एसी/एसटी एक्ट की धारा 3 (2) (वी) के तहत दर्ज प्राथमिकी को रद्द करने की मांग की थी। दिनांक 16.06.2021 को इस मामले में लड़की के अपहरण और बलात्कार के आरोप में यह प्राथमिकी दर्ज की गई थी।

धारा 376 के प्रावधान पर विचार करते हुए सजा को कम करने की आरोपी की याचिका को भी खारिज कर दिया !!

अदालत ने आईपीसी की धारा 376 के प्रावधान पर विचार करते हुए सजा को कम करने की आरोपी की याचिका को भी खारिज कर दिया।  यदि गवाही भरोसेमंद है तो केवल पीड़िता की गवाही के आधार पर बलात्कार के आरोपी को दोषी ठहराया जा सकता है,सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया । सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि बलात्कार के आरोपी को केवल पीड़िता/अभियोक्ता की गवाही के आधार पर दोषी ठहराया जा सकता है, लेकिन यह गवाही विश्वसनीय और भरोसेमंद होनी चाहिए। जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने इस तर्क की जांच करते हुए कहा  केस का नाम: फूल सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य 

तलाक के बिना लिव इन रिलेशनशिप में रहना आईपीसी की धारा 494 के तहत अपराध हो सकता है !!

तलाक के बिना लिव इन रिलेशनशिप में रहना आईपीसी की धारा 494 के तहत अपराध हो सकता है !!  !! पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट !! पिछले महीने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने एक लिव-इन जोड़े द्वारा दायर एक संरक्षण याचिका को खारिज कर दिया था, जिसमें कहा गया था कि वे दोनों अपने-अपने जीवनसाथी से तलाक लिए बिना एक-दूसरे के साथ वासनापूर्ण और व्यभिचारी जीवन जी रहे हैं। जस्टिस अरविंद सिंह सांगवान की बेंच एक लिव-इन कपल की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें कहा गया था कि वे दोनों पिछले कई सालों से एक-दूसरे से प्यार करते हैं और पिछले एक महीने से लिव-इन रिलेशनशिप में हैं।  पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि यदि कोई विवाहित व्यक्ति अपने जीवनसाथी (पति या पत्नी) से तलाक लिए बिना लिव-इन-रिलेशनशिप में है तो यह भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के तहत अपराध हो सकता है। न्यायमूर्ति अशोक कुमार वर्मा की खंडपीठ ने अपने पति से तलाक लिए बिना लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली एक महिला द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए इस प्रकार देखा। अनिवार्य रूप से याचिकाकर्ताओं (महिला और उसके साथी) ने यह प्रस्तुत कर...

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक आरोपी केवल इस आधार पर डिफ़ॉल्ट जमानत की मांग नहीं कर सकता है कि 60 दिनों की समाप्ति से पहले संज्ञान नहीं लिया गया है !! SC !!

सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या एक आरोपी सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत वैधानिक जमानत का हकदार है।  सीआरपीसी की धारा 167(2) के तहत वैधानिक जमानत का हकदार है, इस आधार पर कि 60 दिनों या 90 दिनों की समाप्ति से पहले संज्ञान नहीं लिया गया है। आदर्श ग्रुप ऑफ कंपनीज और एलएलपी के निदेशकों पर कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 447, धारा 120-बी के तहत अपराध करने का आरोप लगाया गया था। भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 417, 418, 420, 406, 463, 467, 468, 471, 474 के साथ। वैधानिक जमानत के लिए दायर उनके आवेदनों को खारिज कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक आरोपी केवल इस आधार पर डिफ़ॉल्ट जमानत की मांग नहीं कर सकता है कि 60 दिनों की समाप्ति से पहले संज्ञान नहीं लिया गया है।

पहली बार नहीं था जब CP मुंबई नागराले ने गुजारा भत्ते की बकाया राशि के भुगतान में देरी की थी !!

बॉम्बे हाई कोर्ट ने मुंबई के पुलिस आयुक्त हेमंत नागराले को अपनी पूर्व पत्नी प्रतिमा उर्फ रानी हेमंत नागराले का बकाया गुजारा भत्ता यथाशीघ्र चुकाने का निर्देश दिया है। न्यायमूर्ति ए.ए.सईद और न्यायमूर्ति एस.जी.डिगे की खंडपीठ ने 15 नवम्बर को इस बाबत अपना आदेश पारित किया। प्रतिमा के वकील पी.वी.नेल्सन राजन ने अदालत को सूचित किया था कि पिछले चार महीनों से हेमंत नागराले ने गुजारा भत्ता की राशि का भुगतान नहीं किया था.

'संरक्षण अधिकारियों' या 'सेवा प्रदाताओं' के साथ-साथ 'आश्रय गृहों' का संपर्क विवरण आसानी से उपलब्ध कराया जाए !! वी द वूमेन ऑफ इंडिया !!

याचिका में तर्क दिया गया है कि 2005 के अधिनियम के सफल कार्यान्वयन और निष्पादन के लिए यह आवश्यक है कि पीड़ित महिलाओं के लिए आवश्यक और समय पर सहायता के लिए संबंधित 'संरक्षण अधिकारियों' या 'सेवा प्रदाताओं' के साथ-साथ 'आश्रय गृहों' का संपर्क विवरण आसानी से उपलब्ध कराया जाए। एक रिट याचिका में केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया। याचिका में घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के तहत घरेलू हिंसा के शिकार लोगों की सुरक्षा के लिए आश्रय गृहों की स्थापना और संरक्षण अधिकारियों और सेवा प्रदाताओं की नियुक्ति के लिए अधिनियम के अध्याय III के अनिवार्य प्रावधानों के उचित कार्यान्वयन की मांग की गई है। याचिकाकर्ता ने आगे तर्क दिया कि इस उद्देश्य के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक राज्य और केंद्र शासित प्रदेश के सभी जिलों में, सभी संपर्क विवरणों के साथ 'संरक्षण अधिकारियों'/'सेवा प्रदाताओं'/'आश्रय गृहों' की एक सूची बनाई जाए। इसे महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की आधिकारिक वेबसाइटों पर और प्रत्येक जिले और राष्ट्रीय महिला आयोग और राज्य महिला आयोग की वेबसाइट पर...

अगर सुरक्षा कारणों से बाहर से पानी की बोतलें नहीं ले जा सकते तो सिनेमा हॉल को मुफ्त पीने का पानी उपलब्ध कराना चाहिए !! मद्रास हाईकोर्ट !!

अगर सुरक्षा कारणों से बाहर से पानी की बोतलें नहीं ले जा सकते तो सिनेमा हॉल को मुफ्त पीने का पानी उपलब्ध कराना चाहिए !! मद्रास हाईकोर्ट !! न्यायमूर्ति एसएम सुब्रमण्यम ने कहा, "एक सिनेमा हॉल अगर सुरक्षा कारणों से सिनेमा हॉल के अंदर पीने के पानी को ले जाने पर रोक लगाने का प्रयास करता है, उसे सिनेमा हॉल के अंदर स्थापित वाटर कूलर के माध्यम से मुफ्त पीने योग्य और शुद्ध पेयजल प्रदान करना चाहिए। कोर्ट ने हालांकि स्वीकार किया कि सिनेमा हॉल के अंदर पानी की बोतलों को अनुमति देने के लिए वैध सुरक्षा जोखिम हैं। कोर्ट ने नोट किया कि बोलत में 'अवांछनीय तत्व' में अल्कोहल या एसिड मिला हुआ पानी भी हो सकता है। यह भी राय थी कि ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें सिनेमाघरों में 'बोतल बम उपकरण' फट गए हैं।  इससे पहले कि इस तरह का प्रतिबंध लागू किया जा सके पीने के पानी की उपलब्धता सिनेमा हॉल के अंदर पीने के पानी के निषेध को लागू करने के लिए पर्याप्त नहीं होगी। निर्धारित मानकों के साथ शुद्ध पेयजल प्रदान किया जाना चाहिए, ताकि आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके यह सुनिश्चित किया जाए कि हॉल में सिनेमा देखने ...

क्या मात्र माँ की मृत्यु के आधार पर पिता को बच्चे की हिरासत का अधिकार है ?

क्या मात्र माँ की मृत्यु के आधार पर पिता को बच्चे की हिरासत का अधिकार है? जानिए हाई कोर्ट का निर्णयहाल ही में, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने अपने ससुराल से अपने बच्चे की कस्टडी की मांग करने वाली एक पिता की याचिका को खारिज कर दिया है। इस मामले में पत्नी की मौत हो गई थी और पति ने बच्चे की कस्टडी की माँग की थी। न्यायमूर्ति सुवीर सहगल की खंडपीठ ने याचिका को खारिज कर दिया और कहा कि बच्चे को उसके परिवार से दूर करना बच्चे के सर्वोत्तम हित में नहीं होगा, भले ही पिता प्राकृतिक अभिभावक हो। याचिकाकर्ता फरवरी 2021 में उच्च न्यायालय चला गया। उस व्यक्ति की पत्नी ने मतभेदों के कारण उसे छोड़ दिया था और 2020 के जुलाई से अपने माता-पिता के साथ रह रही थी। उसका 2020 के दिसंबर में निधन हो गया कोर्ट के अनुसार, पिता ऐसा कोई भी सबूत रिकॉर्ड पर नहीं लाया है जिससे ये पता चल सके कि वह उस बच्चे की देखभाल कैसे करेगा जिसने स्कूल अभी अभी शुरू किया है। कोर्ट ने कहा कि प्रतिवादी एक संयुक्त परिवार में रह रहे थे और बच्चे की मौसी और चाचा बच्चे की देखभाल कर रहे थे। बच्चे के मायके वालों ने पहले फैमिली कोर्ट का दरवाजा खट...

लोक अदालत से बंद हुआ मामला डिक्री/निर्णय के समान,उक्त आदेश को अदालतें वापस नहीं ले सकतीं, सीआरपीसी की धारा 362 के तहत प्रतिबंध लागू होगा : कर्नाटक हाईकोर्ट !!

लोक अदालत से बंद हुआ मामला डिक्री/निर्णय के समान,उक्त आदेश को अदालतें वापस नहीं ले सकतीं, सीआरपीसी की धारा 362 के तहत प्रतिबंध लागू होगा : कर्नाटक हाईकोर्ट !! कर्नाटक हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि एक बार लोक अदालत में मामला बंद हो जाने के बाद यह एक डिक्री या निर्णय के समान होता है, इसलिए अदालत या मजिस्ट्रेट के पास उक्त आदेश को वापस लेने की शक्ति नहीं होती। न्यायमूर्ति के. नटराजन की एकल न्यायाधीश पीठ ने कहा, "एक बार जब मामला बंद हो जाता है, तो यह लोक अदालत में डिक्री या निर्णय के समान होता है। इसलिए, एक बार समझौता के मामले में आरोपी द्वारा राशि का भुगतान नहीं किया गया है तो याचिकाकर्ता कानून के अनुसार राशि की वसूली के लिए उसी अदालत से संपर्क कर सकता है।

केंद्र को 4 महीने के भीतर विकलांग व्यक्तियों के लिए पदोन्नति में आरक्षण लागू करने के निर्देश जारी करने को कहा !! सुप्रीम कोर्ट ने कहां !!

केंद्र को 4 महीने के भीतर विकलांग व्यक्तियों के लिए पदोन्नति में आरक्षण लागू करने के निर्देश जारी करने को कहा !! सुप्रीम कोर्ट !! कोर्ट ने कहा कि फैसले में कोई अस्पष्टता नहीं है और केंद्र को विकलांग व्यक्तियों के लिए पदोन्नति में आरक्षण लागू करने के लिए 2016 अधिनियम की धारा 34 के प्रावधान के तहत निर्देश जारी करने का निर्देश दिया। जस्टिस एल नागेश्वर राव, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने मंगलवार को केंद्र सरकार की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल माधवी दीवान और प्रतिवादियों की ओर से पेश अधिवक्ता राजन मणि की दलीलें सुनीं। सुप्रीम कोर्ट ने यूनियन ऑफ इंडिया को निर्देश दिया कि वह विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 की धारा 34 के प्रावधानों के अनुसार विकलांग व्यक्तियों को पदोन्नति में आरक्षण के लिए "जल्द से जल्द" निर्देश जारी करे। निर्देश जारी करने में चार महीने से ज्यादा समय ना लगे। कोर्ट ने आदेश केंद्र सरकार की ओर से दायर एक विविध आवेदन पर जारी किया, जिसमें सिद्धाराजू बनाम कर्नाटक राज्य के फैसले के संबंध में स्पष्टीकरण मांगा गया था। उक्‍त आदेश में घोषित किया ...

कोर्ट ने कहा कि तीन महीने की अंतरिम जमानत की अवधि समाप्त होने पर शाहिद बिना किसी चूक के संबंधित जेल अधीक्षक के समक्ष आत्मसमर्पण करेगा।

अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अमिताभ रावत ने अंतरिम जमानत देते हुए कहा: "आवेदक/आरोपी मोहम्मद शाहिद के खिलाफ अपराध और सामग्री में निश्चित रूप से गंभीरता है। हालांकि आवेदक/अभियुक्त की चिकित्सा स्थिति भी सर्वोपरि है।" शाहिद के खिलाफ FIR No: 50/2020 जाफराबाद में आईपीसी की धारा 147, 148, 149, 186, 353, 283, 332, 333, 323, 307, 302, 427, 120B, 34 और 388 सहित आर्म्स एक्ट की धारा 25 और 27 और सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान की रोकथाम अधिनियम की धारा तीन और चार के तहत दर्ज आरोपियों में से एक है।

भारत में धर्म ग्रंथ पर हाथ रखकर कसम खाने का कानून कब समाप्त हुआ !!

भारत में धर्म ग्रंथ पर हाथ रखकर कसम खाने का कानून कब समाप्त हुआ !! भारत में किताब पर हाथ रखकर कसम खाने की यह प्रथा 1969 में समाप्त हुई। जब लॉ कमीशन ने अपनी 28वीं रिपोर्ट सौंपी तो देश में भारतीय ओथ अधिनियम, 1873 में सुधार का सुझाव दिया गया और इसके स्थान पर 'ओथ्स एक्ट, 1969' पास किया गया। इस प्रकार पूरे देश में एक समान शपथ कानून लागू कर दिया गया है।  भारत में मुगल शासकों ने धार्मिक किताबों पर हाथ रखकर शपथ लेने की प्रथा शुरू की थी। क्योंकि मुगल शासक अपने लाभ के लिए झूठ बोलते थे, छल-कपट करते थे, इसलिए भारत के नागरिकों के वचन पर विश्वास नहीं करते थे लेकिन वह इस बात पर विश्वास करते थे कि भारत के नागरिक अपने धर्म ग्रंथ पर हाथ रखकर यदि शपथ उठा ले तो फिर झूठ नहीं बोलते। शायद उन्हें भारत में सत्य वचन के लिए 'गंगाजल' परंपरा का ज्ञान था।